Shagufta Quazi

Drama Tragedy

4.7  

Shagufta Quazi

Drama Tragedy

ममता कराई कैश

ममता कराई कैश

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ट्रीन - - - ट्रीन - - - ट्रीन - - - ट्रीन - - - मोबाईल की घंटी से श्रीमती दिप्ति वर्मा की तंद्रा भंग हुई जो बड़े प्रेम एवं एकाग्रता से पति व स्वयं के लिए रात का खाना लगा रही थी। पति श्री प्रदीप वर्मा ज़ोरों से भूख लगने का हवाला दे पत्नी से गरमागरम खाना परोसने का आग्रह कर टीवी के न्यूज़ चैनल पर नोट बंदी पर छिड़ी गरमागरम बहस देख रहे थे। दिप्ति वर्मा ने एक नज़र घड़ी पर डाली रात के आठ बज रहे थे। वह सोचने लगी इस समय तो कोई फ़ोन करता नही है। किसी अनिष्ट की आशंका मन में हुई।पता नही किसका फ़ोन हो सकता है ? क्या ख़बर होगी ? विचारों के इन्ही झंजावात में उलझते हुए उन्होंने टेबल से मोबाईल उठाया। घंटी अब भी लगातार बज रही थी। डिस्प्ले स्क्रीन पर नज़र पड़ते ही वह चौंक गई ! यह क्या ? विश्वजीत का नाम देख वह हैरान-परेशान हो गई। माँ जो ठहरी। पिछले चार सालों में इकलौते बेटे विश्वजीत ने उन्हें एक बार भी फ़ोन करने का कष्ट न किया था न ही अपने कर्तव्य की इतिश्री हेतु उनका हाल-चाल जानने की कोशिश की। उसने तो जैसे अपने जीवन तो क्या दिलो-दिमाग़ से भी माता-पिता को निकाल दिया था।

गाँव में रहने वाले सरपंच किसान पिता ने बड़ी मेहनत से जी-जान से बेटे को शहर भेज उच्च शिक्षा दिलाने का निर्णय पत्नी के मना करने के बावजूद लिया था। बेटे ने भी लगन से पढ़ाई की जिसका नतीजा उसे शहर में अच्छी नौकरी मिल गई। वर्मा दंपत्ति चाहते थे पढ़-लिख कर बेटा गांव लौटकर खेती के साथ अपना पुश्तैनी कारोबार देख गाँव के विकास हेतु कार्य करे। किंतु बेटे ने उनकी एक न सुनी, हारकर उन्होंने उसे शहर जाने की अनुमति दे दी।विवाह भी उसने अपनी पसंद की पढ़ी-लिखी नौकरी वाली लड़की से करने माँ-पिता को मना ही लिया। वर्मा दंपत्ति ने निर्णय लिया कि जीवन की संध्या में वे बेटे-बहु के साथ रहकर नाती-पोती को खिला खुशहाल जीवन जिएंगे। किंतु बेटे-बहु ने उन्हें बड़ी चालाकी से यह कह, कि आप शहर में घर में अकेले बोर हो जाओगे। हम दोनों तो सारा दिन काम, नौकरी के कारण बाहर रहते है। यहां गाँव में नाते-रिश्तेदार है आपका काम है।वहां शहर में यह सब कहाँ ? वर्माजी अनुभवी व्यक्ति थे सारी बात ताड़ गए और ज़िद करती पत्नी को समझ बुझा बेटे-बहु को विदा कर दिया।

पहले पहल प्रतिदिन फिर प्रतिसप्ताह और फिर प्रतिमाह क्रमशः बेटे के फ़ोन आते रहे। धीरे -धीरे उसने व्यस्तता के बहाने बनाने शुरू कर दिये। अब वह साल में एक या दो दिन के लिए माता-पिता से मिलने गाँव आता तथा बच्चों की पढ़ाई का बहाना व छुट्टी न मिलने की बात कह लौट जाता। इसपर भी माता-पिता ने कोई शिकायत न की। किंतु कालांतर में स्वयं ही फ़ोन करना तथा गाँव आना बंद कर दिया। माता-पिता बेटे-बहु की अनकही बात को समझ गए व इसे नियति मान अपने जीवन के सांध्यकाल में अकेले रहने लगे। किंतु माता-पिता भी भला कहीं अपनी संतान को अपने जीवन या अपनी स्मृतियों, दिलो-दिमाग़ से निकल पाते हैं ? आस के मारे माता-पिता ने यादों में बेटे को याद रख अपने मोबाइल के कॉन्टेक्ट लिस्ट में उसका नाम सहेजे रखा।मोबाइल की लगातार बजती घंटी से माँ की ममता पिघल रही थी ।इसी उहापोह में जाने कब दिप्ति जी की उंगलियों ने स्वयं ही हरा बटन दबा दिया और यंत्रवत फ़ोन को कान से लगा वात्सल्य से सराबोर आवाज़ में हैलो - - - -बेटा - - - कह दिया- -

दूसरी तरफ़ से बेटे ने प्रेमभरी आवाज़ में कहा- -

हैलो माँ - - -नमस्ते - - -कैसी हो माँ - - -बाबूजी कैसे हैं- - -?

माँ:- बेटा पहले तू बात तू कैसा है ? सब कुशल-मंगल तो है ? बहु और बच्चे कैसे हैं- - - -?

बेटा:- हां माँ आपके व बाबूजी के आशीर्वाद से सब कुशल-मंगल है।बच्चे पढ़ाई में व्यस्त रहते हैं, मैं और तुम्हारी बहू नौकरी और घर-बच्चों की ज़िम्मेदारी में व्यस्त है।माँ - - - सुनो-- -- -

माँ;- हां बेटा - - - सुना क्या कहना चाहता है- -- -बरसों से तेरी आवाज़ सुनने को कान तरस गए है, तुझे देखने को आँखें तरस गई है,तेरी आवज़ सुन मेरे कलेजे को कुछ ठंडक मिल गई।

बेटा;- माँ- -- माँ - - - मुझे भी आप दोनों की बहुत याद आरही है, बहुत दिनों से आपको देखा नही, न ही आपकी आवाज़ सुनी।इसलिए सोचा चार दिन की छुट्टी लेकर गाँव आ जाऊं और आप लोगो के साथ समय बिताऊं, इसी लिए मैं परसों गाँव आ रहा हूं आप दोनों से मिलने।

माँ;- माँ बरसो बाद बेटे की आवाज़ सुन भावुकता में बह गई, बोली हां - - -हां बेटा क्यों नहीं- - - ? आ जाओ बेटा- - -तुम्हे देखकर तुम्हारे इंतेज़ार में पलकें बिछाए तरसती हम वृद्ध माता-पिता की आंखों को ठंडक व बेचैन दिल को सुकून मिल जाएगा।तुम्हारे बाबूजी भी तुम्हें बहुत याद करते हैं- - - तुम्हारे बिना घर सूना-सूना लगता है ।चार दिन ही सही तुम्हारे आने से घर मे रौनक़ लौट आएगी।

बेटा;- माँ सुनो न - - - मेरी पसंद के पकवान बनाना न भूलना- - - शहर में आपके हाथ के खाने को तरस गया हूं - - - हां माँ तुम्हारे हाथ का स्वाद किसी के हाथ में नहीं। माँ पूरण-पोली, चकली, पुलाव, भरता, झुनका और साथ में चूल्हे पर बनी भाकरी।

माँ;-स्नेहसिक्त, वात्सल्य रस से सराबोर आवाज़ में-- --बेटा तेरी आवाज़ से ही मैं जान गई थी - - - माँ अपने बच्चों के दिल की बात बिन कहे ही समझ जाती है - - - यह भी कोई कहने की बात है ? मुझे तुम्हारी पसंद याद है - - - मैं तो कब से तुम्हारी बाट जोह रही हूं कि तुम घर आओगे तो तुम्हें अपने हाथों से बने तुम्हारे पसंद के पंच-पकवान बनाकर खिलाऊंगी।

बेटा;-अच्छा माँ परसों पहुंचता हूं, फ़ोन रखता हूं, तैयारी करनी है,आप दोनों के लिए क्या लाऊं ? बाबूजी से मेरा प्रणाम कहिये, नमस्ते।

वर्माजी पास बैठे नज़र टीवी पर और कान पत्नी के वार्तालाप पर रखे हुए थे, अनुभवी व्यक्ति थे, सो माँ-बेटे की सारी बात सुन भी गए और गुन भी गए।फ़ोन रखते ही श्रीमती वर्मा ने न संभलने वाली खुशी को पति से साझा करते हुए बेटे द्वारा फ़ोन पर कही सारी बातें खशी-खुशी सुना दी।वर्माजी माँ के मन में उठते ममत्व के भावों को समझ रहे थे, किंतु अपने अनुभव से समझी बात का क्या ? दुनिया देखी थी उन्होनें, यूं ही धूप में बाल सफ़ेद न हुए थे उनके, न चाहते हुए भी तल्ख़ लहजे में पत्नी से कहने लगे, "बेटे को बहुत जल्दी हमारी याद आ गई, सालों बाद प्यार उमड़ने का कोई तो कारण अवश्य होगा ? चार सालों में जो बेटा बूढ़े माँ-बाप की सुध लेने, कुशल-मंगल जानने हेतु एक फ़ोन तक न कर सका, वह अचानक चार दिन का समय हमारे साथ बिताने आ रहा है, यह बात मेरे गले नहीं उतरती।भागवान इसके पीछे उसका कोई तो स्वार्थ, कोई तो उद्देश्य अवश्य है।"

माँ तो माँ ठहरी।बेटे के प्यार में उसका स्वार्थ न देख सकी और पती को ही भला-बुरा कह खरी-खोटी सुना दी, "तुम्हारी तो आदत ही है, हर बात में बाल की खाल निकल लेते हो।"

वर्मा जी बेचारे - - - - पत्नी का पुत्र मोह, वात्सल्य भाव, सालों से दबी ममता देख चुप्पी साध गए।माँ ने इन दो दिनों में रात-दिन एक कर बेटे के पसंदीदा पंच-पकवानों की सारी तैयारियां बड़े चाव से कर ली।

श्रीमती वर्मा के दो दिन काम में बीत गए।आज की रात नींद उनसे कोसों दूर थीं।बिस्तर पर लेटे-लेते वह जागती आंखों से सपने देख रही है यह बात वर्माजी ताड़ गए।उन्होनें पत्नी को उसके स्वास्थ्य का हवाला दे आराम से सो जाने की सलाह दी।किंतु आज माँ को नींद कहां आनेवाली थी वह तो रात के जल्द बीत जाने का इंतेज़ार कर रही थी।सुबह होने के इंतेज़ार में दरवाज़े पर टिक-टिकी लगाए रात के आखरी पहर कब आंख झपकी पता न चला।मुर्ग़े की बांग से वह हडबड़ा उठी और तुरंत अपने क्रियासकलापों में लग गई।रोज़ ही पौ फटती है, मुर्ग़ा रोज़ बांग देता किंतु हमेशा कर्कश लगनेवाली मुर्गे की बांग भी आज उन्हें बड़ी सुरीली लगी।आज की भोर चार सालों की भोर के मुक़ाबले कुछ अधिक उजली थी, सूर्योदय की सिंदूरी किरणे ममत्व को बेटे से मिलन के लिए जैसे ललकार रही थी।जैसे-तैसे घड़ी के कांटे धीमी गति से सरक रहे थे और द्वार पर हुई सांकल की दस्तक से इंतेज़ार की घड़ियां समाप्त हुई।फुर्ती से लपक माँ ने कुंडी खोल किवाड़ खोला, सामने बेटे को खड़ा देख बरसों से संचित ममता की दौलत उसकी बलाइयाँ ले उसे अपने आग़ोश में ले उसपर न्योछावर कर दी।

वर्मा जी पीछे कैसे रहते।पिता थे, पुरुष रोकर अपने मनोभाव प्रकट नही करते, किंतु प्रेम तो वह भी बेटे से उतना ही करते थे, पुत्र मोह के आवेग में भीगी पलकों से बेटे को गले से चिमटा स्नेहाशीष दे दिया।एकदूजे की कुशल-मंगल जान कुछ औपचारिक बातें हुई।वर्माजी ने बेटे से मुँह हाथ धो फ्रेश हो आने को कह पत्नी से नाश्ता लगाने को कह दिया।

चार साल बाद तीनों मिलकर नाश्ता करने लगे।बेटे ने माँ के बनाए व्यंजनों का बड़े चाव से लुत्फ उठाया, साथ में प्रशंसा करता रहा तथा उनसे बिछड़ने का दुखड़ा रो माँ-पिता की भावनाओं से खिलवाड़ कर मोहजाल बिछा प्यार के भँवर में फंसा ही लिया।साथ-साथ वह घड़ी पर नज़र रखे था, दस बजते ही उसने कहा, "माँ-बाबूजी आपलोग जल्दी से तैयार हो जाइए, हमें बैंक जाना है, आप दोनों के अकाउंट तो खाली पड़े होंगे मुझे उसमें पैसे जमा करवाने है।"इतना सुनते ही वर्माजी ने कहा, "बेटा हमें रुपयों की आवश्यकता नहीं, तू परेशान मत हो, हां चार साल पहले घर की मरम्मत के लिए हमें रुपयों की आवश्यकता अवश्य थी।किंतु तब तुम्हारा हाथ तंग था।मैं समझ सकता हूं, शहर में पत्नी व बच्चों का लालन-पालन एवं शिक्षा का खर्च उठाते तुम्हारे पास बचत न होती होगी।अगले साल फ़सल भी अच्छी हुई व दाम भी अच्छे मिले,जिससे मैन घर की मरम्मत करवा ली है।गाँव के जो दो घर खाली पड़े थे उन्हें किराए पर चढ़ा दिया है।"

पिता की बात सुन बेटे को कुछ शर्मिंदगी तो हुई किंतु चेहरे पर लाचारी के भाव लाकर पिता को अपनी मुसीबत बता दी, बाबूजी , आपको रूपये न भिजवाने का मुझे बहुत दुःख है, मुझे क्षमा करें, मैने पाई-पाई जोड़ बेटे की शिक्षा हेतु जो रूपये जमा किये थे वह रद्दी कागज़ हो गए।हज़ार, पांच सौ की नोट तो अब चलेगी नही, सरकार ने अचानक नोटबन्दी का निर्णय जो लागू कर दिया।मेरे व पत्नी के खाते में पहले से ही इतने रूपये है कि अगर इन रुपयों को उन खातों में जमा करवाऊंगा तो इनकम टैक्स में मेरी काफी रकम निकल जाएगी, बहुत नुक़सान होगा, सरकार को इन रुपयों का ब्यौरा देना होगा सो अलग और बेटे के दाखिले में रुपये कम पड़ जाएंगे।बेटे के भविष्य का सवाल है ।हज़ार पांच सौ की जो नोट मैने जमा की है उन्हें आप दोनों के खाते में जमा करवा नई नोटों में बदलवा लेता हूं।अब आप ही मेरी मदद कर सकते हैं।

पुत्र चाहे जैसा भी हो, जो भी सुलूक माता-पिता से करे लेकिन माता-पिता जीवन भर उसके लिये अपना फ़र्ज निभाते रहते है।और फिर ये तो पुत्र के पुत्र यानी पौत्र के भविष्य का प्रश्न था।कहते है मूल से सूद प्यार होता है।यही समीकरण वर्मा दंपत्ति पर भी लागू था।पौत्र ही तो उनकी वंशबेल, खानदान को आगे बढ़ाने वाला था।उसकी शिक्षा में आने वाले रोड़े को दूर करने में उन्होंने ज़रा भी आना-कानी न करते हुए माथे पर शिकन लाए बिन पत्नी को संग ले बेटे संग बैंक की ओर चल दिये।

बैंक में लंबी क़तार में खड़े घंटों की मशक़्क़त के बाद आवश्यक कार्यवाही उपरांत बैंक खातों में रूपया जमा करा साँझ होते-होते तीनों थके-हारे घर पहुँचे।माँ ने थकन के बावजूद बेटे के पसंद के व्यंजन बनाए।रात में तीनों ने फिर साथ बैठ खाना खाया, और इधर-उधर की बातें भी की।तत्पश्चात बेटे ने माता-पिता से कोरे चेक साइन करव लिये।और सोने से पहले सुबह की गाड़ी से शहर जाने का अपना निर्णय सुना दिया।वर्मा दंपत्ति अवाक से बेटे की ओर देखते रह गए।माँ के मुँह से अनायास ही शब्द बाहर निकल गए, "बेटा ! तुम तो चार दिन हमारे साथ समय बिताने आए थे, अभी तो केवल बारह घंटे मात्र हुए है, और मैंने तुम्हारी पसंद के व्यंजन बनाने बाक़ी है जिनकी तैयारी मैने तुम्हारे आने से पहले ही कर ली थी।और हां तुमसे जी भर के बतियाना है, ऐसा कौनसा आवश्यक काम आ पड़ा - - - जो - - - - ---कहते-कहते उनकी नज़र वर्मा जी की नज़र से मिली, वर्मा जी ने पत्नी को आंख के इशारे से चुप रहने का संकेत दे दिया। पति की आँखों की भाषा को पढ़ पत्नी ने ममत्व पर विजय पा ली, आगे के शब्द उनके गले में ही अटक गए और उसी पल उन्होंने अपने शब्दों को विराम दे दिया !


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