महानाट्य का शीर्ष चरण है !
महानाट्य का शीर्ष चरण है !
बात ज्यादा पुरानी नहीं है। बंगाल और झारखंड की सीमा पर बसे उस ढेर सारी ऊबड़ खाबड़ पथरीली ज़मीन और पहाड़ का लगभग आधा हिस्सा दान देते समय राजा प्रथमेश का सीना चौड़ा हो गया था।उन्हें गर्व का अनुभव हो रहा था कि वह जो दान पुण्य दे रहे हैं वह व्यर्थ नहीं जाएगा।जिन सन्यासियों ने उनसे इस हेतुक सम्पर्क किया था उन्हें भी सपने में यह अनुमान नहीं था कि राजा इतने उदार निकलेंगे।असल में उस दौर में धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर अनेक भारतीय साधु सन्यासियों ने लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया था।मठ और मंदिर के नाम पर विदेशों में भी अपनी पूंजी लगा दी थी।मनबढ़ई का आलम यह रहा कि एक ने तो उत्तरी भारत के पवित्र तम ग्रन्थ मानस तक के संशोधन की आवश्यकता बता डाली थी। उधर एक स्वामी जी ने अपने चेलों को ईट ड्रिंक एंड बी मैरी के मंत्र से यह बताया था कि अगर तुम कुछ भी अपने अंदर का रोकोगे तो चित्त एकाग्र नहीं हो पायेगा।इसलिए पहले भोग फिर योग करें।
बहरहाल इस कथा के नायक स्वामी जी का विशुद्ध पारंपरिक योग और धर्म के सिद्धांत को वैज्ञानिकता देते हुए अध्यात्म पिपासु साधकों को अपनी साधना पद्धति से लोक और परलोक के लिए चरम आनन्द की प्राप्ति दिलानी थी।उन्होंने कुछ सामाजिक और राजनीतिक सूत्र भी दिये थे जो न तो पूंजीवाद को समर्थन देता था और न ही कम्युनिज्म को।यह दौर था उस समय का जब बंगाल में कम्युनिज्म की जय जय कार हो रही थी।
ज़मीन मिलते ही और अन्तरण की जटिल अदालती कार्यवाही होते ही समर्पित युवा सन्यासियों और गृहस्थ अनुयायियों ने दिन रात एक करके उस पथरीली ज़मीन और पहाड़ियों को हरी भरी वसुंधरा में परिवर्तित कर दिया।गुरुदेव के लिए सुंदर आवास बने,संगठन का मुख्यालय बना और क्षेत्र के आदिवासियों के लिए अनेक शिक्षण संस्था, अस्पताल आदि बने।उधर अपनी वैचारिक प्रतिद्वन्द्विता के चलते हिंसक वारदातों में भी संगठन को क्षति उठानी पड़ी।लेकिन क्या कोई बादल,कोई अन्धेरा किसी उगते सूरज की रौशनी रोक सकेगा ?कत्तई नहीं।उसी तरह स्वामी जी की विचारधारा और संगठन तन कर खड़े हो गये और उनकी साधना पद्धति लोगों को सही राह दिखाने लगी।
साल में एक बार होनेवाले मई महीने के उस सत्संग में देश के दूरदराज इलाकों से भक्त आ चुके थे।कपिल भी उन्हीं में से एक था।छोटी सी नौकरी मुश्किल सी ज़िंदगी लेकिन जीवन से कोई शिकवा कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि वह आनन्द को बाहरी संसाधन की वस्तु नहीं मानता था। आनन्द तो रुखी रोटी खाकर भी मिल सकता है और चिन्ता से छुटकारा महल अटारी खड़ा करके भी नहीं मिल सकती है...यह उसका जीवन का फंडा था।
गुरुदेव ने मंच पर आसन ग्रहण किया ही था कि एक ग्रुप ने भजन कीर्तन शुरु कर दिया।
"मालिक हो मेरे,दिल के अरस पे बसो जी।
नवचक्र की कलियां खिल रही हैं ,
उनकी ख़ुशबू से रमते रहो जी !
तुम हो सारे जहां में,
जंगल खोह आसमां में।
मैं भी हूं तुम्हारी जिस्मानी जमी में,
इस छोटे से रेंजेंं को न बिसरानख जी ! "
भक्तों में भावपूर्ण आध्यात्मिक रस और भाव संचार हो चुका था और अब गुरुदेव ने अपना आशीर्वचन देना शुरु कर दिया था।
"कोई कोई कहता है मांगन मरन समान है.. तो कोई कहता है बिना मांगे मोती मिले,मांगे मिले ना भीख...यह तो अदभुत बात है,रहस्यमय बात है..तो यही है तारक ब्रम्ह का नाटक !जीव इस नाटक का एक चरित्र है।उसके लिए एक भूमिका है जिसे ठीक ठीक ढंग से पालन करना होगा।इस नाटक के नाटककार हैं तारक ब्रह्म। तारक ब्रम्ह रचित इस विराट विश्व नाट्य में जीव मात्र ही एक चरित्र है।उतना ही उसका असली परिचय नहीं है।नाटक में जिस तरह से कोई राजा की भूमिका में अभिनय करता है किन्तु वहीं आदमी घर में हो सकता है दो मूठी भात भी ना पाता हो।कोई नाटक में गरीब प्रजा का अभिनय करता है किन्तु वास्तव में हो सकता है वह एक बड़ा धनी व्यक्ति हो।.......तो स्मरण रखना होगा कि हमलोग एक महानाट्य की विशेष भूमिका में अभिनय कर रहे हैं।केवल नाटक में मुझको जिस तरह का अभिनय करने को कहा गया है ठीक ठीक उसी तरह अभिनय करते जायेंगे।यही है मनुष्य का कर्तव्य।मनुष्य के लिए इससे अधिक कुछ सोचना अर्थहीन है...उसकी क्षमता के बाहर भी है। ""
बाबा,बाबा की ध्वनि पूरे परिसर में कुछ यूं गूंजने लगी मानो चर -अचर ,जड़ -चेतन सभी उनकी चरण वंदना कर रहे हों।ये ध्वनियाँ पहाड़ियों से टकरा कर प्रतिध्वनि कर रही थीं।पौधे झूमने लगे थे।चांदनी की वह रात और भी शीतलता बढ़ाती और दूधिया प्रकाश फैलाती प्रतीत होने लगी।कपिल ही नहीं उसके शहर से आए हर साधक अपने को स्पंदित महसूस करने लगे।
अगले दिन मंगल ग्रह पर अमेरिकी पाथफाइंडर के छोटे रोवर सजार्नर के पहुचने और वहां जल और जीवन होने की संभावना बताने का समाचार सुर्खियों मं छाया हुआ था।कुछ लोगों ने उत्सुकता वश जब उन गुरुदेव से इसकी चर्चा की तो उन्होंने जो बात बताई उसे सुनकर सब चौंक से गये।उन्होंने बताया कि पृथ्वी पर जीवन मंगल ग्रह से आया था।मंगल ग्रह चन्द्रमा से भी अधिक पृथ्वी के निकट है। पृथ्वी पर गिरे 12 उल्काओं की रासायनिक संरचनाओं और रोवर ने बार्नेकल बिल के जो सैकड़ों चित्र भेजे उससे पता चलता है कि चट्टानों में क्वार्ट्ज हैं जो चट्टानों की रासायनिक संरचनाओं में काफी समानता बताते हैं। उन्होंने यह भी बताया था कि अरबों वर्ष पहले मंगल ग्रह पर सृष्टि लीला हुई थी।वनस्पतियां ,पशु पक्षी,सरीसृप और हां...मनुष्य भी रह हैं.......अध्यात्म के सुमन भी खिले थे...तारक ब्रम्ह भी वहां अवतरित हुए थे लेकिन वहां के प्राणियों ने जलावरण सोख डाला और ग्रह पर जीवन समाप्त हो गया।
कपिल तीन दिनों तक अध्यात्म के रंग में डूबा रहा। उसमें जीवन के लिए नई ऊर्जा का मानो प्रवाह हो गया था।
एक रात उसने सपने में देखा कि पृथ्वी पर कोलाहल मचा हुआ है। चारों ओर लोग भाग रहे हैं। पानी के लिए छीना झपटी हो रही है। कुछ कुछ तो बिन पानी तड़प तड़प कर मर रहे हैं।विनाश का नग्न तांडव का कारण बन बैठा है जल !
वह स्वयं भी व्याकुल अवस्था में इधर उधर मारा मारा फिर रहा है।वह चीखकर गुरुदेव को पुकार रहा है...पुकारता ही जा रहा है और गुरुदेव उसके सम्मुख आकर उपस्थित हो जाते हैं।उनका वराभय मुद्रा में आशीर्वचन मिल रहा है;
"मैनें कहा था ना कि तुमलोग महानाट्य की विशेष भूमिका में अभिनय कर रहे हो..अभी तो यह साढ़े तीन लाख वर्ष तक ऐसा ही चलता रहेगा.....यह उसी महानाट्य का शीर्ष चरण है।घबराओ नहीं।तुम सब पृथ्वीवासियों का कल्याण होगा।अवश्य कल्याण होगा।"
एक झटके में कपिल की निद्रा खुल गई। वह अपने और सभी धरती वासियों के कल के प्रति आश्वस्त था।
