Rajesh Kumar Shrivastava

Inspirational Others

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Rajesh Kumar Shrivastava

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महाभारत से सबक

महाभारत से सबक

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  इतिहास लेखन तथा पठन-पाठन का मुख्य रुप से दो ही उद्देश्य है। पहला—पूर्व काल की घटनाओं यथा आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक आदि के संबंध में वर्तमान तथा भावी पीढ़ी को अवगत कराना, तथा दूसरा—इतिहास (पूर्व काल) की घटनाओं का सम्यक विश्लेषण करते हुए पूर्व काल में हुई त्रुटियों (गलतियों) से सबक लेना तथा उसकी पुनरावृत्ति से बचना।


उस देश की रक्षा कोई महाशक्ति भी नहीं कर सकती, जो इतिहास से सबक नहीं लेता। इतिहास से सबक न लेने वालों को बार-बार अपमानित व प्रताड़ित होना पड़ता है, तथा समय के साथ उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

इसीलिए प्रत्येक नागरिक को अपने देश का इतिहास पढ़ने तथा जानने की आवश्यकता होती है। 


भारत का प्राचीनतम इतिहास पुराणों में सुरक्षित है। यह इतिहास उस तरह का नहीं है, जैसा आंग्ल प्रभुओं तथा उनके भारतीय चेलों द्वारा शोधित-लिखित इतिहास हमने स्कूल-कालेजों में पढ़ा है, या इतिहास की पोथियों में वर्णित हैं।  


पुराणों में प्राचीन इतिहास कथाओं तथा देवी-देवताओं के अवतारों के जीवन चरित्र, पराक्रम, प्रजा वत्सलता आदि के रुप में हैं, इन चरित्रों तथा कथाओं में उस समय की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, व्यापारिक, शैक्षणिक गतिविधियों का समावेश है।


 प्राचीन इतिहास को जानने का इच्छुक अपनी पसंद तथा जिज्ञासा अनुसार विषय चुनकर वांछित जानकारियां प्राप्त कर सकता है। जिनका उल्लेख तथा वर्णन आलंकारिक तथा लाक्षणिक रुपों में प्राचीन इतिहास कारों (ऋषि-मुनियों) ने किया है। इसके अलावा अंत में परिणामों की चर्चा तथा विवेचना भी स्पष्टता एवं प्रमुखता से है 

भगवान वेदव्यास जी कृत महाभारत ग्रंथ मात्र धार्मिक ग्रंथ न होकर, द्वापर युग के अंतिम तथा कलियुग के आरंभिक वर्षों का इतिहास भी है। यह नीति शास्त्र भी है, तथा यह भूगोल विषय से भी संबंद्ध है। ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो महाभारत में न हो।


 महाभारत के संबंध में प्रसिद्ध है कि जो संसार में है, वही महाभारत में है, तथा जो महाभारत में नहीं है वह कहीं नहीं है।


महाभारत में परस्पर चचेरे भाइयों (धृतराष्ट्र तथा पाण्डु के पुत्रों) की परस्पर वैमनस्यता तथा इनके मध्य हुए भारत युद्ध का वर्णन है। कौरव पक्ष कुटिल, कपटी, दुराचारी होता है जो बार बार अपने चचेरे भाइयों (पाण्डवों) से छल करता है।


कौरवों ने पाण्डवों को विष देकर, लाक्षागृह में जलाकर, द्यूत क्रीड़ा में छल से हराकर, बारह वर्ष के वनवास के समय तथा एक वर्ष के अज्ञात वास के समय येन केन प्रकारेण मारने तथा अपमानित करने में कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ी थी। अंततः इनके मध्य अठारह दिनों तक घोर युद्ध हुआ जिसमें कौरव मारे गये साथ ही अठारह अक्षौहिणी सेना भी लड़ भिड़कर समाप्त हो गयी थी।


यह पाँच हजार पूर्व का इतिहास है, जो यह संदेश देता है कि (१) दुष्टों (शत्रुओं) के ऊपर सही समय पर वार किया जाना चाहिए ! (२).शत्रु के ऊपर कभी भी भरोसा नहीं करना चाहिए (३) अमुक व्यक्ति शत्रु है यह निश्चय होते ही उसका प्रतिकार चाहिए (४) शत्रु को शक्ति संचय का कोई भी अवसर नहीं देना चाहिए (५) कुटिल तथा कपटी शत्रु के साथ वैसा ही व्यवहार करनी चाहिए (६) दुष्ट तथा कुटिल शत्रु दया, करुणा, प्रेम सज्जनता आदि का अधिकारी नहीं होता ! आदि आदि।

अफसोस कि हमने महाभारत युद्ध के उपरोक्त निष्कर्षों को भुला दिया तथा अपने शत्रुओं को भी अपने जैसा उच्च चरित्रवान, दया करुणा प्रेम सज्जनता आदि गुणों से युक्त समझा इसका परिणाम बहुत भयंकर हुआ। 


सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद घोरी (गोरी) को युद्ध में सोलह बार पराजित किया और उसे हर बार क्षमा कर दिया। वह कृतघ्न हर बार पहले से अधिक शक्ति संचय कर भारत भू पर आक्रमण करता रहा। सत्रहवीं बार घोरी विजयी हुआ। उस नीच कृतघ्न ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान को क्षमा करने या मुक्त करने का ख्याल तक नहीं किया।  


यदि सम्राट पृथ्वीराज चौहान महाभारत में वर्णित पाण्डवों से हुई गलतियों को स्मरण करते और उससे सीख लेते तब ११७५ में तराईन के पहले ही युद्ध में वे घोरी का वध कर देते तब क्रूर आतताइयों को सदियों तक भारत पर आक्रमण करने का साहस न होता।


पाण्डवों ने कौरवों से युद्ध करने में वर्षों लगा दिये, जिसका खामियाजा १८ अक्षौहिणी सैनिकों को अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा था। यदि लाक्षागृह वाला काण्ड होने के बाद या दुर्योधन द्वारा कपटपूर्वक द्यूत क्रीड़ा में जीतने तथा कुलवधू द्रौपदी का अपमान सार्वजनिक रुप से करने (चीरहरण) के प्रतिकार स्वरूप तत्काल युद्ध होता और पाण्डव शस्त्र उठाते तब दुर्योधन आदि कौरवों के पक्ष में इतने राजा महाराजा और सैनिक इकठ्ठे न होते। क्योंकि लाक्षागृह काण्ड तथा द्रौपदी का अपमान करने से देश और विदेशों में कौरवों की व्यापक निंदा और भर्त्सना हो रही थी। भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण तथा कृपाचार्य भी दुर्योधन से रुष्ट थे।  


द्रौपदी के चीरहरण के तुरंत बाद युद्ध होता तब कौरवों की ओर से मात्र कौरव (हस्तिनापुर)की सेना तथा पाण्डव पक्ष से इंद्रप्रस्थ तथा महाराज द्रुपद की सेना ही युद्ध में सम्मिलित होती। तब जन धन की अपार हानि ना हुई होती !


 किंतु पाण्डव यह अवसर चूक गये वे धर्म-अधर्म सोचते ही रह गये, भाईचारा तथा सज्जनता का चादर ओढ़े रहे और कुटिल दुर्योधन अपनी शक्ति बढ़ाता रहा। परिणाम महाभारत का घोर युद्ध ! भयंकर विनाश।।


महाभारत युद्ध अथवा मोहम्मद घोरी (गोरी) के आक्रमणों के दुष्परिणामों से उमरकोट सिंध के राजा अमरसाल ने सबक लिया होता तब आज भारत का नक्शा (भूगोल) और इतिहास कुछ अलग ही होता ! इन्हीं अमरसाल के राजमहल में तीसरे मुगल जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का जन्म १४ अक्टूबर सन् १५४२ को तब हुआ था, जब दूसरा मुगल हुमायूं शेरशाह सूरी से बुरी तरह से परास्त होकर काबुल (अफगानिस्तान) भाग गया था और वहाँ निर्वासन काट रहा था और साथ ही भारत पर आक्रमण करने के लिए शक्ति संचय कर रहा था। 


सन् १५५४-५५ में उसने भारत पर भीषण आक्रमण किया और अनेक भागों को जीतकर (रौंदकर) मुगल उन्हें मुगल शासन के अधीन कर लिया। इस तरह भारत में मुगल शासन को मजबूत करने का श्रेय अप्रत्यक्ष रुप से उमरकोट नरेश अमरसाल को भी जाता है। राजा अमरसाल पहले मुगल बाबर तथा दूसरे मुगल हुमायूँ की बर्बरता तथा धर्माधंता से परिचित था , बाबर ने ही मृत शत्रुओं के सिरों का पिरामिड (स्तंभ) बनवाने का घृणित कार्य अनेकों बार किया था, उसके सिपहसालार मीरबाँकी ने अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि स्थित विशाल तथा भव्य मंदिर को तोड़ा था।


इसके बावजूद राजा अमरसाल अपने मानवीय उच्च गुणों तथा मित्रता के भरोसे इस विश्वास रहा कि हुमायूँ भी इन्हीं गुणों से संपन्न होगा तथा प्रजा के साथ उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार करेगा ! 

 राजा अमरसाल ऐसा सोचता ही रहा, और उधर भारत में मुगल सल्तनत स्थापित ही नहीं वरन बहुत मजबूत भी हो गयी। यदि राजा अमरसाल तथा दूसरे हिन्दू राजा महाभारत से शिक्षा ग्रहण करते, तब, पराजित तथा पददलित शत्रु हुमायूँ का वध कर देते तब भारत का इतिहास कुछ और ही होता।


 सन १८५७ के संग्राम में पराजित तथा बंदी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को उसके चार (पुत्रों) शहजादों का सिर काटकर ब्रिटिश सैन्य अधिकारी मेजर हडसन. द्वारा भेट किया गया था। इसके साथ ही भारत में मुगल शासन का पटाक्षेप हुआ था और ब्रिटिश शासन की शुरुआत हुई थी।


 महाभारत युद्ध से या पृथ्वीराज चौहान-मोहम्मद घोरी के युद्ध परिणामों से सबक लेकर यदि सन् १९६५ में ही या सन १९७१ में पराजित पाकिस्तान का विषदंत तोड़ दिया जाता, साथ ही पाक अधिकृत कश्मीर को वापस ले लिया गया होता, तथा अपनी सीमाओं को (पाकिस्तान का कुछ भाग लेकर) सुरक्षित कर लिया जाता, तब पाकिस्तान आज निश्चित ही अपने हद में रहता और आतंकियों की ओट में छद्मयुद्ध ना कर रहा होता। 


हमने कुटिल तथा कृतघ्न पाकिस्तान को क्षमा करते हुए बार-बार जीवनदान दिया। जिसका दुरुपयोग उसने शक्ति संचय करने में किया और अब परमाणु बम बनाकर हमें ही आँखें दिखा रहा है। यदि युद्ध हुआ तो पाकिस्तान की पराजय निश्चित है किन्तु अब १९६५ या १९७१ की तुलना में जन धन की क्षति कई गुना अधिक होगी। 


अतः यह कहा जा सकता है कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान की शिक्षा रोजगार परक तथा वैज्ञानिक उन्नति के लिए जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक इतिहास की शिक्षा है। यह शिक्षा देश की एकता, अखण्डता तथा स्थायित्व के लिए आवश्यक है। 



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