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Dr Baman Chandra Dixit

Tragedy

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Dr Baman Chandra Dixit

Tragedy

मेरी बारी

मेरी बारी

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उफ ये स्टेट बैंक की खिड़कियां इतनी व्यस्त क्यों हैं। जब भी आओ भीड़ ही भीड़। सब एकल खिड़की होने के बावजूद कोई भी काम एक खिड़की से पूरा नहीं होता। यहाँ उप डेट करने के बाद वहाँ जाओ, फिर यहीं आओ यानी तीन बार कतार में खड़े रहो और अपनी बारी की इंतज़ार करो। ऑन लाइन लेन-देन, नेट बैंकिंग, यूपीआई इतने सारे विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद कोई ना कोई पेंच अटक ही जाता, और बैंक की चक्कर लगाना पड़ ही जाता। उस दिन शुक्र बार था, मेरा साप्ताहिक विश्राम का दिन। सेवानिवृत्ति अगले महीने इसलिए बैंक खाते में कुछ जरूरी सुधार करना था, सो कतार में खड़े खड़े अपनी बारी की इंतज़ार कर रहा था। मेरे सामने एक दो पेंशन भोगी सेवानिवृत्त रेल कर्मी खड़े आपस में बात कर रहे थे। उनकी बातचीत से यह पता चला कि पहले व्यक्ति गोपाल जो कि बिलासपुर के बासिन्दा थे और दूसरे सज्जन जीतेन बाहर के थे। गोपाल ने पूछा

:-और आजकल कहाँ रहते हो जितेन भाई ! बड़े दिन के बाद दर्शन मिल रहा है। बुझी बुझी सी आवाज़ में जितेन ने कहा- यहीं बिलासपुर में भाई। और कहाँ जाऊंगा। एक ही महीना हुआ तो है

रिटायरमेंट के पैसे से राधिका विहार में एक मकान लिया हूँ, बच्चे वहीं रहते हैं।

सीपत रोड़ में एक टुकड़ा जमीन ले कर छोटा मोटा फार्म हाउस एक बना लिया हूँ। मेरा पूरा दिन वहीं बीतता है । कभी कभी रात को भी वहीं ठहर जाता हूँ। शांत माहौल, बहुत सुकून मिलता है दिल को।

तब गोपाल बोले, अरे भाई तुम तो गाँव चले गये थे सुना था, और आज यहां देख कर अचरज हुआ सो पूछ लिया। जितेन बोले-हाँ भाई गाँव चला तो गया था, मगर कुछ जमा नहीं, फिर वापस आना पड़ा।

             

        सवालिया नजर से गोपाल देख रहा था। दोनों को दोनों खामोश-

 कुछ पलों की खामोशी के बाद एक ठंडी साँस भरते हुए जितेन बोला-

जब तक नौकरी थी सब ठीक ठाक था, ये समझ लो कि सब कुछ ठीक ठाक रखने में कामयाब रहा था, बाद में जैसे जैसे रिटायरमेंट नज़दीक आने लगा मौसम ने करवट बदलना शुरू कर दिया था, मगर मैं ध्यान दे नहीं पाया था। बच्चे बड़े हो जाने के बाद उनकी स्कूल कॉलेज की पढ़ाई और उनकी छुट्टी और मेरी छुट्टी में तालमेल न होने के कारण साल में एकाध बार ही घर जाना होता था। जाने आने के बीच के दो तीन दिन ख़ुशी ख़ुशी बीतते थे। खेत खलिहान गाँव घर पगडंडियां गली मोहल्ले अपने लगते थे। संपर्क मधुर प्रतीत होता था। मुझे लगता था मेरा घर आज भी मेरा है। बड़ी सुकून मिलती थी गाँव में। यही सोच कर आखरी तक यहाँ पर कोई व्यवस्था भी नहीं किया था। सोचा था गाँव तो चला जाऊंगा, यहां पर जमीन मकान ले कर क्या फायदा। पुश्तैनी घर, 18 एकड़ जमीन, दोनों भाई मिलकर खेती करेंगे अपनों का साथ मिलेगा, बाकी के दिन अच्छे से व्यतीत हो जाएंगे। मगर कुदरत को मंजूर न था शायद।  

    दिसंबर की बात है, बातों ही बातों में मैंने छोटे को बताया कि अगले महीने मेरा रिटायरमेंट है। फरवरी तक हम लोग शिफ्ट हो जाएंगे। ऊपर वाला दो कमरा (उनमें से एक बेकार पड़ा था और एक में कभी कभार कोई मेहमान आ जाते तो ठहरते थे) साफ करवा देना। हम वहीं रहेंगे। इतना बोल ही पाया था कि फोन कट गया, उधर से कोई प्रतिक्रिया मिल नहीं पाया था । फिर मैं कई बार फोन लगाने की कोशिश की । लगातार रिंग जा रहा था मगर कोई उठा नहीं रहा था । और 

फिर इस बारे में कोई बात हो नहीं पाई थी। मैं दूसरे कामों में व्यस्त हो गया, और समय बीतता गया ।


         फरवरी की पहले हफ्ते हम कुछ सामानों के साथ शिफ्ट हो गए। सुबह आठ बजे घर पहुंच गये थे। जैसे सोच रखे थे की सब बहुत खुश होंगे ऐसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था । न जाने क्यों ऐसे महसूस हुआ कि हम कोई दूसरे जगह में आ गये थे। जिन कमरों को साफ करने के लिए बोला था उन कमरों का हालात देख कर मैं कुछ बोलता इससे पहले मेरे छोटे भाई ने बोला की वो कुछ समझ नहीं पाया था। उस दिन फोन में बात साफ नहीं आ रही थी। जैसे तैसे एक ही कमरे में सारे सामानों को ठूँस कर हम लोग एडजस्ट करने लगे।


     दो चार दिन के बाद एक आदमी को बुलाकर दुसरा कमरा साफ करने गया तो देखा बड़ा सा ताला लटक रहा था। छोटे को चाभी मांगा। तभी छोटे ने बोला छोड़ो ना भैया। ये कमरा श्याम का पढ़ाई का कमरा है, कमरा छोड़ने के लिए वो तैयार नहीं हो रहा। मैं उसे मनाने की कोशिश करता हूँ, तब तक आप उसी कमरे में एडजस्ट करिए। यह सुन कर में चकित रह गया। बात को आगे न बढ़ाते हुए चुप रहना मुनासिब समझा।


      मगर किनारा लांघ चले सैलाब को रोकना भी नामुमकिन होता। वर्तमान को तिनके की भांति बहा ले जाता वो। मैं तो सामान्य से भी बदतर स्थिति का एक सेवा निवृत्त कर्मचारी था, जिसका कमाई एकाएक 100 प्रतिशत से 30 प्रतिशत में पहुंच गया हो। इसलिए वापस मुड़ना पड़ा अपनी जन्म भूमि को छोड़ कर्म भूमि की तरफ।

 

क्या ऐसे हो गया कि आपके बुते से बाहर हो गया सब कुछ? गोपाल ने पूछा। लंबी कतार एक तरफ से घटती हुई खिड़की के पास पहुंचने वाली थी। जल्दी से बात खत्म करने की मुद्रा में जितेन बोला। बातों में जल्दी थी मगर वो ठहराव मुझे घायल कर गया। कितनी दर्द शामिल थी वो आखरी की कुछ पंक्तियों में, कितनी कोह समाए हुए थे लफ्ज़ दर लफ्ज़, कितनी वेदना थी आवाज़ों में उसे लाख कोशिश के बावजूद बयान कर नहीं पाऊंगा मैं। मगर मेरे अंतर्मन को हिला गए थे वो आवाजें।


  वो बोल रहे थे......

उसी दिन दो पहर को हम तीनों(मैं, मेरी पत्नी और मरी लड़की) भोजन के लिये नीचे उतरे। जब से आया हूँ तब से दोनों भाई एक साथ खाना खा नहीं पाए थे, कभी कुछ ना कुछ काम के कारण वो साथ दे नहीं पा रहा था, इस लिए उस दिन थोड़ा जल्दी ही हम नीचे आ गए थे, छोटे को खबर भी कर दिया था कि आज साथ में भोजन करेंगे। सोचा था छोटा हमारा इंतज़ार कर रहा होगा। मेरी धर्म पत्नी रसोई के तरफ गयी, में हल में पड़ा कुर्सी में बैठा ही था कि रसोई से आवाज आई।

 -दीदी आप खाना-वाना बना लिए हैं क्या, मेरा तो सब्जी बनने में और दस मिनट लगेंगे। इतना सुनते ही मेरा होश ठिकाने आ गया। इशारे से पत्नी को बुलाया। मुश्किल से आधे घंटे में सारे सामानों को लपेट कर बैग में डाले और निकल आये अपनी पुश्तैनी मकान छोड़ कर। कोरोना काल में बाहर खाने को जी नहीं करता था, सो कुछ फलाहार करके साम की गाड़ी में लौट आये, फिर से अपनी कर्म भूमि की ओर। एक लंबी साँस लिया जितेन ने। कुछ अवसाद और बहुत सारा आश्वस्ति शामिल थीं उस हवा में, जो माहौल को कुछ हद तक सामान्य करने में कामयाब हो पाया। यहाँ पर हर शख्स परेशान है, किसके पास समय है दूसरे का दुखड़ा सुनें। बात खत्म करने की जल्दी में जितेन बोला-इस महीने से पेंशन मिलना था, वही देखने आया था।

  

       बड़ी मुश्किल से एक एक आदमी छंट रहे थे कतार से। उनका नंबर आ चुका था। कब वो अपना काम निपटा कर चले गए मुझे पता नहीं। मुझे जितेन में मेरी परछाई दिख रही थी। क्या अपना परिवार के खातिर जो लड़का एक दिन घर छोड़ कर बाहर निकल जाता उसका वापसी के रास्ते ऐसे और इतने तंग हो जाते! मेरे पीछे खड़े व्यक्ति ने झुंझलाते हुए आवाज लगाया। चलिए भाई साहाब आपकी बारी आ चुकी है। सचमुच अगले महीने मेरा रिटाइआरमेंट जो है। मेरी बारी तो आनी ही थी।

      


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