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Dr Baman Chandra Dixit

Tragedy Inspirational

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Dr Baman Chandra Dixit

Tragedy Inspirational

नीला डॉक्टर

नीला डॉक्टर

6 mins
360

बहुत पुराना था वो अलमारी। जाड़ों के महीनों के बाद ऊनी कपड़े, कम्बल और मेरे पिताजी की रेशमी धोती, चादर, माताजी की कुछ रेशमी साड़ियां, संबलपुरी बनारसी पाट साड़ी आदि रखा जाता था उसमें। उसकी पल्ले खराब होने के बाद दूसरी लोहे की अलमारी ने उसकी जगह ले ली और मुझे मिल गया वो काम-चलाव अलमारी मेरी स्कूल की किताबें रखने के लिए । उसी अलमारी में पुरानी कॉपी किताब से लेकर अपना नया कपड़ा भी सजा कर रखता था मैं। स्कूल कॉलेज के दिनों में कुछ भजन कविता , काहानियाँ आदि लिखता था । वो सब अव्यवस्थित ढंग से कभी किसी किताब के अंदर कभी अलमारी की किसी कोने में किसी कॉपी के तले दबे हुए पड़े रहते थे। समय के क्रम में उस अलमारी से रुखसत होना पड़ा ,मुझे भारतीय रेल के सहायक स्टेशन मास्टर की नौकरी मिल गयी। गाँव छोड़ दूर परदेश जाना पड़ा। बिहार के धानबाद मंडल में पोस्टिंग हुआ मेरा। जीवन शैली पूरी तरह अलग हो गया। परिवार की मांग और अपना कर्तव्य बोध के कारण सब कुछ स्वीकार लिया था मैं, पर अंदर का कलम-कार मरा नहीं था जब भी मन होता मौका मिलता कुछ यूं ही लिख लेता, और खुद पढ़ के खुद को आंकता था, बड़ी तसल्ली मिलती थी।   

                                        उस दिन जब मैं गाँव में था एक पुरानी कहानी याद आ गयी और मैं पहुँच गया अवहेलित पड़ा हुआ उसी अलमारी के पास, खोजने लगा अव्यवस्थित बिखरे हुए पुराने कॉपी किताबों के बीच। बहुत कुछ अलग अलग लेख , भजन, निबंध, कॉलेज की नोट्स मिले पर मिल ना रहा था वो , जिसे मैं ढूंढ रहा था। इधर उधर ऊपर नीचे देख रहा था मैं। ।  

निर्जीव अलमारी अतिष्ठ हो चुकी थी शायद मेरा उटपटांग हरकत से।

फटे पुराने पल्ले उसकी चीख चीख कर प्रतिवाद करते थे मेरी अत्याचारों पर। कभी बायां पल्ला बंद हो जाता कभी दायां खुलने का नाम नहीं लेता, जबरदस्ती करने पर कभी काईं कुईं आवाज में बायां पल्ला रो लेता ,फिर कभी दायां कर्कश स्वर में विरोध करने लग जाता। हताश हो कर मैं दरवाजा बंद करना चाहा। अचानक नज़र पड़ा एक नीला रंग का ढक्कन पर, हाथ में ले कर देखा, सहलाया उसे, पसीने से तरबतर सेंडो बनियान से पोंछ दिया थोड़ा सा। चमकने लगा उसका स्टील क्लिप, देख रहा था मैं मंत्रमुग्ध उस पुराना डॉक्टर पेन की ढक्कन को, मानस पट्ट में एक परछाई सी उभरने लगी, मैं रुक गया वहीं और फिर खोजने लगा उस ढक्कन की साथी कलम को। थोड़े ही देर में मिल गया मुझे वो नीला रंग का डॉक्टर पेन। उसे देखते ही बड़ी राहत महसूस किया मैं। थोड़ा सा सवार दिया उसे। सफेद स्टील नीब उसकी मुझे तंज कसते थे शायद। अवसरवादी या धोखेबाज़ दोस्त जैसा मुझे घूर रहा था वो नीला डॉक्टर। कहता था बिन कहे संघर्ष के दिनों की कथा, देर रात तक का साथ । बोलता था शायद कैसे अपने पराये हो जाते, और कैसे यादों में समेट कर रह जाती अपनी जिंदगी की कोई हिस्सा। मेरी मन की बातों को बड़ी सलीके से सजा कर कैसे वो कविता बना देता कभी कथा कहानी तैयार कर देता। कभी कभी मेरा नींद खुलने का इंतज़ार में मेरे दोनों उंगलियों के बीच में ऊंघता रहता था वो। दिल के करीब हमेशा बायीं जेब में मौजूदगी दर्ज कर मेरी धड़कनों को महसूस करता था वो। आज भी वो हॉबी हो चुका था मेरी तन्हाईयों को चीरता हुआ खामोशियों के ऊपर। धड़कन तेज़ हो चुके थे, पसीने से तरबतर शरीर । हल्की सी जलन महसूस किया मैं आंखों में। नाक से फिसलता चश्मा को बायां हाथ में थामे बहते पसीने को बनियान में पोंछा, चश्मे के कांच को साफ कर नाक के ऊपर टिका कर देखा मैं,

साफ साफ दिखता था उन दिनों की तस्वीर जब इस नीला डॉक्टर ने दाख़िला लिया था मेरी जिंदगी में।


      दसवीं की फाइनल परीक्षा आने वाला था। पिता जी के साथ गाँव के हाट(हफ़्ते के कोई निर्दिष्ट दिन में गाँव में लगने वाला बाज़ार)में गया हुआ था। उस समय लकड़ी की स्केल पट्टी मिलती थी। एक स्केल पट्टी, पेन्सिल, रबड़ ,दो दस्ता कागज़(२४ फ़र्द कागज़ एक दस्ता हुआ करता था) खरीदने के बाद किताब की दुकान से वापस आते आते मेरी नज़र अटक सा गया पैकेट में रखा हुआ रंग बिरंगी कलम के ऊपर। लाल नीला पिला रंग के कलम दुकान के सामने ही लटके हुए थे। मेरा रुक जाने के पीछे छिपा लालसा को समझ गए थे पिता जी। बोले कलम चाहिए क्या? तेरे पास तो दो दो कलम है, और क्या करेगा तीसरे का। कुछ बोला नहीं मैं, वापस आने लगा दुकान से। तब पिताजी बोले, अच्छा मन है तो ले ले एक , परीक्षा आने वाला है। बहुत खुश हो गया मैं, मुड़ कर मैं दुबारा कलम की पैकेटों के तरफ देखा। दुकानदार रिश्ते में मेरा भाई लगता था, मेरे पिताजी को बोला- बाज़ार में अभी अभी नया पेन आया है "डॉक्टर" पेन, फाउंटेन पेन में सबसे अच्छा ,स्याही लीक करता नहीं चलता भी बढ़िया, और टिकाऊ भी है। दो तीन साल तो चल ही जाएगा। उपर से कुर्ता की ज़ेब खराब करेगा नहीं।

कीमत मात्र एक रुपये बीस पैसे। मैंने सोचा एक रुपये बीस पैसे बहुत ज्यादा बाबा, पचास पैसे में तो अलग कंपनी की कलम आ जाते फिर १.२० पैसे क्यों ख़र्चे ?अपनी आधी बाहें वाली कुर्ता की लंबी थैली नुमा ज़ेब में हाथ डाल कर चिह्लर टटोलने के बाद पिताजी बोले, ठीक है दे दो एक तुम्हारा वो डॉक्टर पेन, देखते हैं कितना सच बोलते हो तुम। मेरी खुशी आसमान छूने लगे । कभी मैं कलम को कभी पिताजी को और कभी उस दुकानदार को देखता था।


   कुछ ही दिन में दसवीं की वार्षिक परीक्षा के दिन आ गए। हमेशा की तरह परीक्षा अच्छा गया, मैं सोचता था क्लास में प्रथम आऊंगा, मगर गणित । के कुछ कम अंक में कारण मधु (पड़ोस के गाँव के कार्तिक साहू के बेटा) फर्स्ट हो गया, कैसे बोलूंगा पिताजी को सोचता था, मगर हमारे प्रधान शिक्षक सामंत सार पापा जी को पहले बता दिए थे। मुझे सकुचाते देख पिता जी बोले ,रेजल्ट तो आछा किया इतना घबराता क्यों। अगले साल ग्यारहवीं की इम्तिहान है दिल लगा कर पढ़ाई करो। फर्स्ट क्लास ला सकते हो । उस समय यही नीला डॉक्टर पेन मेरा हाथ में था। पिता जी कलम को ले कर मेरे कमीज की जेब में खोंस दिये, और हाथ फेर दिए मेरे सर पे।


            आज भी मेज़ के ऊपर पड़े पड़े वह नीला डॉक्टर देख रहा था मेरी तरफ ,झांक रहा था मेरी दिलों की अंदर तक, लेकिन नहीं था उस हाथ का सहारा। मेरी ग्यारहवीं की एक्जाम के ठीक ग्यारह दिन पहले ही मेरे सर से हट गया था वो साया, मैं अनाथ हो गया था। जब भी वो पेन को हाथ में थाम लेता था, मेरे दिल के अंदर उनकी मौजूदगी का एहसास होने लगता था। आज वही डॉक्टर पेन मेरे सामने पड़े पड़े मुझे घूर रहा था, झंकझोर कर मेरी अंतर्मन को, शायद खोज रहा था उन हाथों को जो उस दिन उसे मेरी कमीज की ज़ेब में खोंस दिए थे। ।



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