जुली दीदी
जुली दीदी
हमेशा हम दिनों के बीच झगड़ा होता ही रहता था। कभी इस बात पर कभी उस बात पर जब चाहे जिस बात पर झगड़ा होना आम बात था। कभी वो मुझे च्यूंटी काट जाती कभी मैं उसकी बालों को पकड़ खींचता। पर हमेसा पलड़ा उसकी ही भारी पड़ जाता। वो जो मेरी बड़ी बहन थी, चचेरी बहन । ज्यादा नहीं यही कोई डेढ़ दो साल बड़ी होगी। ताकत भी उसकी मुझसे बहुत ज्यादा। मेरा कद काठी उसके मुकाबले कमजोर तो था ही उपरसे वो गुस्सैल भी थी ज्यादा। एक बार लुका छिपी खेलते खेलते एक दरवाजा के पीछे मैं छुपा था, और वो आ गयी उसी पल्ले के पीछे छिपने के लिए । मैं तो पहले से वहां था, कायदे से उसे वहां आना नहीं था या फिर जगह नहीं देख उसे छिपने के लिए दूसरा जगह देखना था, पर जबरदस्ती दादी गिरी मुझे भगाने को ठान चुकी थी वो। मैं तैयार नहीं हुआ तो मेरे मुंह में दोनों तरफ उंगली डाल कर फाड़ने की कोशिश करने लगी। बड़ी तकलीफ हो रहा था पर आवाज करने से पकड़ा जाऊंगा इस लिए बर्दास्त करते करते खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। पर वो है कि छोड़ने का नाम नहीं ले रही थी। और संभाल ना सका, रोने लगा मैं जोर जोर से और मुझे बाहर के तरफ धकेल कर वो छिप गयी। मैं पकड़ा गया और बन गया चोर। ना...ना , उसकी कारनामे और मत पूछो , मेरा खून जलता है उसकी नाम से । वो थी मेरी सबसे बड़ी दुश्मन जुली दीदी। हमेशा जितने का जिद्द , खेल कूद में तो वो जीतती थी ही, कभी कभार अगर मैं जीत गया उसे पचता नहीं था। कोई ना कोई बहाना बना कर मेरी जीत को निरस्त करना उसकी मकसद हुआ करता था। कभी कभी अंताक्षरी या कोई दिमाग का खेल होता तो उसकी हार तय, पर उसमें भी उसकी दादी गिरी हमें बहुत अखरता था, क्या करें छोटा और कमज़ोर होना मेरी कमजोरी और हारना मेरी मजबूरी बन गयी थी उन दिनों।
और एक बार की बात। गर्मी के दिन, बारह तो बाज चुके थे, मैं भगवान राजराजेस्वर की मंदिर में पूजा में मग्न था। यहां कुल चौबीस शालीग्राम की मूर्तियां होती थी, एक बड़ा सा पत्थर का थाला होता था उसमें सारे मूर्तियों को रख कर स्नान कराया जाता। फिर चंदन तुलसी से सजा कर मंडप में सजा कर स्थापित करने के बाद षोडशोपचार में पूजा होती थी। यह प्राक्रिया कुछ एक डेढ़ घंटे से ज्यादा का होता था। मैं मंदिर के अंदर तल्लीन हो कर भगवान की सेवा कर रहा था। ऊंची आवाज में मंत्र उच्चारण के साथ घंटा वादन भी कर रहा था। मंदिर में जो दरवाजा था उसे खुला रखने के लिए एक पत्थर को टिका कर रखना पड़ता था , बायां पल्ले में। दायां पाला खुद ही खुल्ला रह पाता मगर बायां को पत्थर से टिका जाता था। मैं उस दिन भूल गया था वो पत्थर को टिकाना। अतः बयां पल्ला बंद हो गया था। मैं मगन था पूजा में । गंध , पुष्प , धूप , द्वीप , नैवेद्य , आरती की रीत के बाद भगवान को दंडबत प्रणाम किया और बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोलना चाहा, मगर देखा दोनों पल्ले बंद, और किसी ने बाहर से शांकल चढ़ा रक्खा था। मैं समझ गया था यह उसी चुड़ैल की काम होगा। मेरा पूजा में मग्न होने का फायदा उठा कर उसने दरवाजा बाहर से बंद कर भाग गई। कोई उपाय नहीं दिख रहा था, मैं जोर जोर से घंटा वादन करने लगा, दरवाजा को पीटने लगा, आवाज देने लगा, पर कोई फायदा नहीं, कोई नहीं था उस वक्त वहां मेरी आवाज सुनने के लिए। मंदिर के अंदर की गर्मी से हालात खराब, ऊपर से भूख भी जम के लग रहा था, पर कुछ कर नहीं पा रहा था। हताश हो कर मंदिर के चट्टान में बैठ गया मैं। कुछ देर में सांकल खुलने की हल्की सी आवाज़ आयी। मैं फटाक से उठा और दरवाजा खोला तो खुल गया, चैन की सांस ली मैंने। बाहर निकल कर मंदिर के दरवाजा बंद किया और झांका चारों तरफ। उस वक्त वो मेरी जुली दीदी सामने वाले बरामदे में बैठी हुई थी। मैं जानता तो था ही , यह सब उसी की किया धारा था, मगर मेरा मूड नहीं था उससे झगड़ने के लिए उस वक्त। मन तो हो रहा था बाल पकड़ कर उसे बरामदे से नीचे फेंक देता, मगर फिर वही कमज़ोर और छोटा होना आड़े आ रहा था। कभी तो मज़ा चखाऊंगा ही उसे, ठान लिया मैंने। केवल गुस्सैल नज़र फेंक कर उसे तागिद कर दिया तैयार रहने के लिये और अपने घर के अंदर चला गया।
और एक बार तो हद कर दी उसने। उन दिनों
दांत साफ करने के लिए गांव घर में कोई टूथ पेस्ट या चूर्ण नहीं होता था, दातुन था ब्रश और कंडे की राख था टूथ पाउडर। जाड़े का महीना था। सुबह सुबह धूप सकते सकते मैं दातुन करता था। बायां हथेली में मला हुआ राख़ पकड़े बैठा दातुन कर रहा था। दौड़ती हुई आई तूफान की तरह और मेरी बायां हथेली को नीचे से मार कर भाग गई। सारा को सारा राख मेरी आँखों में। मैं परेशान तड़पता था और वो आस पास कहीं नजर भी आ नहीं रही थी। कितने देर तक परेशान रहा मैं, आंखों में जलन हो रहा था, कई बार धोने के बाद भी आंख के अंदर कुछ गढ़ता सा महसूस हो रहा था। कड़ाके की ठंड में चादर संभालूं या फिर ठंडे पानी का छींटा आंखों में मारूँ कुछ समझ नहीं पा रहा था मैं। अंदर ही अंदर जल रहा था मैं , साथ में जो और बच्चे थे उनकी मदद से आंख तो साफ कर लिया मगर आंख लाल हो चुका था। गुस्सा भी चरम पर था मेरा। भागा उसे सबक सिखाने, मगर फिर वही दादागिरी माफ करें दादिगिरी का शिकार हो कर वापस आना पड़ा।
मैट्रीकुलेसन एक्ज़ाम की डेट तय हो चुका था थोड़े ही दिन बचे थे । अप्रेल महीना ग्यारह तारीख थी उस दिन। मेरे पापा जी उन दिनों बीमार रहते थे, डॉक्टर को दिखाने का prograamme बार बार टलता था, कभी इस वजह कभी उस वजह से और कभी बिना वजह से। बहाना बनता है जब , वजह भी हाज़िर मिलता। हर कमज़ोर तर्क के पास बहाना ज़ोरदार होता। असल में मेरे बड़े भैया की स्नातक में दाखिला का खर्च सामने था। दाखिला का खर्चा ऊपर से कॉलेज आने जाने के लिए जो साइकिल था उसका मरम्मत का ज़रूरत भी था, जिस के कारण कोई ना कोई बहाना बेवजह वजह बन जाते थे और तबीयत बिगड़ती जाती थी। उस दिन सुबह सुबह सहर जाने के लिए पापा और बड़े भैया निकले। रिक्शे वाले को पहले ही बोला गया था। वह नौ बजे नदी के उस पार से पौं...पौं...बजाने लगा। अपनी साइकिल से मेरे बड़े भैया और रिक्शे में पिताजी निकल गए नजदीक की सहर, भद्रक।
डॉक्टर को दिखा के पिताजी रिक्शे में घर लौटने लगे। भैया का साइकिल तैयार हो रहा था इस लिए वो साथ में आ नहीं सके। नियति की नीयत में शक करना आदत है इंसानों का, कभी कभी जायज भी लगता। जाते वक्त दोनों साथ , और आते वक्त अलग । जेठ का दोपहरिया सूरज आग उगल रहा था , टूटी फूटी सड़क को घिसते घिसते रेंग रहा था एक रिक्शा जिसमें सवार मेरे पिताजी की तबीयत बिगड़ते जा रहा था। ऊफ...क्या रही होगी स्थिति उस समय कल्पना करते ही सिहर उठता सारा शरीर आज। डॉक्टर का दवाई की पहली खुराक उपर से प्रचंड गर्मी की कहर; धीरे धीरे निस्तेज होता जा रहा था असहाय काया। रिक्शे वाले ने भी जी जान लगा कर जल्दी पहुंचने की कोशिश कर रहा था, पर "उसकी" चाल के आगे चलता किसका!! रिक्शा पंक्चर हो गया और उड़ गया प्राण पखेरू, रोती बिलखती हुजूम के साथ घर के सामने पहुंचा मेरे पिताजी की निर्जीव शरीर। वक्त ठहर सा गया था मेरे लिये। मेरे आंखों से आंसूं सूख चुके थे , अंदर तक सूख चुका था मैं शायद, भीड़ से हट कर खड़े खड़े डूबता सूरज को निहार रहा था मैं , सारा शरीर मेरा असहनीय कोई पीड़ा से जकड़ा जा रहा था। अचानक महसूस किया किसी हाथ का स्पर्श मेरे बायें कंधे पर । सोचा होंगे कोई अपना नाते रिश्ते में। घूम के देखने की हिम्मत ना था, बहुत देर से सूख चुके आंसू बहने लगे, मुड़ के देखा, सामने थी मेरी जुली दीदी। कुछ बोलने या समझाने की कोशिश भी नहीं करती थी वो। मेरे बहते आंसुओं के तरफ भी देख ना पा रही थी वो, सिर्फ खड़ी थी पास में। चुप चाप लम्हे गुजर रहे थे, कोलाहल के बीच इतनी खामोशी मैं कभी भी महसूस न कि थी। मुझ से और रहा नहीं गया। सूरज भी मुरझा गया था, अंधेरा निगलने की तैयारी कर रहा था। में चुप चाप निकलने लगा और जुली दीदी खड़ी निहार रही थी मेरे तरफ। उसकी निगाहें सहला रही थी मेरी अंतर्मन को और मैं महसूस कर रहा था वजूद और एक रिश्ते की। ।
