मेरे पापा ...
मेरे पापा ...


पापा, देश की आर्मी में थे। बचपन से ही मेरी समझ विकसित होने के साथ ही, मेरे पापा, मेरे सर्वोच्च आदर्श (ऑफ़कोर्से मेरी मम्मा भी) हो गए थे।स्कूल के एनुअल स्पोर्ट्स में, मैं तब 10 साल का था, उन्होंने मुझे फुटबाल खेलते देखा था। उन्हें मेरे में, गॉड गिफ्टेड प्रतिभा प्रतीत हुई थी। अतः उन्होंने तभी से, मेरा फोकस अध्ययन से ज्यादा, खेल पर लगवा दिया था। उन्होंने मुझे सुप्रसिद्ध कोच से, कोचिंग दिलवाना आरंभ किया था।
जूनियर वर्ग में, मेरी उपलब्धियों पर उनकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रहती थी।
ऐसे में, जब 17 वर्ष की आयु में ही, मेरे प्रदर्शन के आधार पर, मेरा विश्व कप फुटबाल के लिए, टीम में चयनित होना तय सा हो गया था, वे अत्यंत खुश हुए थे। और विश्व कप की व्यग्रता से प्रतीक्षा करने लगे थे।तब पश्चिमी एशिया के डिस्टर्बेंस में, हमारे राष्ट्रपति ने, अपना सैन्य बल, जिसमें मेरे पापा भी थे, वहाँ भेजा था।विश्व कप को अभी चार माह शेष थे। तब मनहूस समाचार मिला था कि टेररिस्ट से एनकाउंटर में, मेरे पापा वीरगति को प्राप्त हो गए हैं।
उनका शव यहाँ लाया जाकर, अत्यंत राजकीय सम्मान पूर्वक, दफनाया गया था। उस सम्मान को देखते हुए हमारा मातम, गौरव बोध में बदल गया था। एकबारगी मुझे विचार आया था कि मैं भी आर्मी ज्वाइन करूँ। और राष्ट्र सेवा के लिए पापा जैसे ही, अपना जीवन समर्पित करूँ।मेरी मम्मा को जब मैंने, अपनी अभिलाषा बताई तो उन्होंने, इस विचार के लिए मुझे शाबाशी दी। साथ ही स्मरण कराया कि मेरे पापा का, उनके जीवन का सबमें बड़ा सपना, मुझे विश्व कप में राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हुए, खेलते देखना था।मम्मा ने बताया था, अगर तुम अपने खेल से, यह विश्वकप देश के लिए जीतते हो तो, यह भी बहुत बड़ी राष्ट्र सेवा होगी। इस बात की अनुभूति ने, मुझे अपना सब कुछ अपने खेल पर झोंक देने को प्रेरित किया।
परिणाम मेरे पापा की अभिलाषाओं अनुकूल निकला। मैं विश्व कप खेला था एवं उस के मैचों में मैंने, ना केवल रिकॉर्ड गोल किये, अपितु विश्व कप देश के और प्लेयर ऑफ़ टूर्नामेंट अपने, नाम किया।
कप सरेमोनी में हमारी टीम, जश्न मना रही थी तब मैं, फूट फूट कर रो रहा था। मैं अत्यंत भावुक था, मेरे ह्रदय में उथल पुथल चल रही थी।
विचार यह आ रहा था, काश! आज मेरे पापा, इन उपलब्धियों के साक्षी होते।अगले दिन हम (विजेता टीम), देश वापिस पहुँचे थे। पूरा देश, हमें सिर-हाथों पर उठा रहा था। यह सब देख, मेरी मम्मा की खुशियों का ठिकाना नहीं था। भला! कितनी माँयें होती हैं, जिनके बेटे, राष्ट्र को ऐसे गौरव दिलवाते हैं।
मेरे सौभाग्य के समानांतर ही मगर, मेरा दुर्भाग्य अभी भी साथ चल रहा था। पापा को पहले ही खो चुका मैं, विश्वकप जीतने के दो महीने के भीतर ही, अपनी मम्मा को एक दुर्घटना में खो बैठा।यद्यपि देश मुझे गौरव से हाथों हाथ उठा रहा था मगर मैं, स्वयं को अनाथ अनुभव कर रहा था।
उस रात गहन मातम में, मैं सो नहीं रहा था। रात भर, अपने आगामी जीवन के लिए, अपने लक्ष्य नियत करता रहा था। उस विश्व कप के बाद मैंने, फिर तीन और विश्व कप खेले। टीम की उपलब्धि यध्यपि हर बार विश्व कप जीतने की न बन सकी। मगर हमने हर बार फाइनल खेला और मेरे खेले, चार विश्व कप में से, दो में विजेता हम हुए।
इन विश्व कप में, मेरे द्वारा किये गोल, इतने हो गए कि यह असंभव दिख रहा था कि यह रिकॉर्ड, आगामी कई विश्व कप में तोड़ा जा सकेगा।
इस बीच, मम्मा के देहांत वाली रात को, मेरे तय संकल्प अनुसार मैं, अपने सामाजिक एवं मानवता दायित्वों को निभाता चल रहा था।अपने आदर्श, मेरे पापा को चाहे, उनकी मौत के बाद ही सही, मैं, वैश्विक स्तर पर 'सर्वश्रेष्ठ पापा' होने का सम्मान सुनिश्चित करने की दिशा में, मैं काम करता रहा।
मैंने, उनके समय के हमारे जीवन स्तर और जीवन शैली ही जारी रखा। जिसमें मेरी आवश्यकताओं पर लगने वाला धन, ज्यादा नहीं होता था।जबकि देश और मेरे प्रशंसक लगातार, मुझ पर बेतहाशा धन वर्षा रहे थे। मैंने स्वयं को, अरबपति नहीं होने दिया था। मैंने एक ट्रस्ट बना दिया। जिसमें मुझे मिल रहे धन को जमा करता जाता था।
अपनी किशोरवय में पिता एवं माँ को खो देने से मैंने स्वयं को अनाथ अनुभव किया था। साकर में, मेरी उपलब्धियाँ भी मेरी अप्रिय इस अनभूति को दूर नहीं कर पातीं थीं।अप्रिय इस अनुभूति से निकलने के लिए मैं, दुनिया में किसी भी सेना में शहीद हुए वीरों की, बेटे-बेटियों को (गोद लेता) अडॉप्ट करता था। उनके लालन पालन का दायित्व, मैं लेता रहा था। ट्रस्ट के जमा धन राशि के उपयोग से ऐसा करना, मेरे लिए सरल था।आज मेरी अपनी दो बेटियों के अतिरिक्त, ऐसे अडॉप्टेड मेरे बेटे-बेटियों की सँख्या 3 हजार से ज्यादा हो गई है।
पितृ दिवस पर, मैं गौरव अनुभव करता हूँ कि दुनिया के सबसे ज्यादा बेटे-बेटी मेरे हैं। उन सब की धमनियों में, भले मेरा नहीं मगर परम वीर, साहसी एवं बलिदानियों का रक्त प्रवाहित होता है। अब फुटबाल से अवकाश लिए, मुझे 10 वर्ष हो रहे हैं। अतः खेल के द्वारा हासिल होती रही दौलत अब उतनी नहीं होती है। मगर मेरे एनजीओ को, दुनिया के महादानियों से प्राप्त हो रही सहयोग राशि उससे कम भी नहीं होती।यहाँ मेरी, शीर्षस्थ फुटबॉलर की ख्याति काम आती है। मैं सोचता हूँ, कोई अगर सेलिब्रिटी हो तो अति विलासिता का उदाहरण बनने के स्थान पर इस तरह का उदाहरण बने तो दुनिया से बुराइयाँ कम होने लगेंगी।
आज, मेरे ट्रस्ट की जमा पूँजी से, मैं, ऐसे और 5 हजार बेटे-बेटियों का लालन-पालन सरलता से कर सकता हूँ।इतना सब उल्लेख करते हुए, मैं अपनी एक असमर्थता का खुलासा भी करना उचित समझता हूँ। आज से एक साल पहले, एक देश के मारे गए सैनिक की बेटी ने, मुझसे सहायता चाही थी।
अप्रिय होते हुए भी मैंने, उसे यह प्रदान करने में असमर्थता जतलाई और उससे क्षमा माँग ली थी। कारण यह था कि जिस देश की सेना में, उसके पापा सैनिक थे, वह देश अपने सेना का उपयोग, आतंकवादी बनाने के लिए करता है।
ऐसे में, यह मुझे गवारा कैसे होता कि जिन आतंकवादियों से, एनकाउंटर में मेरे पापा ने अपना जीवन बलिदान किया, उन जैसे आतंकवादी को बनाने/सहयोग करने वाली सेना के, मारे गए सैनिक के परिवार को मैं सहयोग करूँ।ऐसा किया जाना मेरे पापा के साथ ही नहीं, मानवता के साथ भी अन्याय होता कि जो किसी व्यक्ति के, अकाल मौत के कारण बनते हैं, परोक्ष रूप से ऐसे विचारों को, मैं सशक्त करूँ।यहाँ मैं, उस बेटी से क्षमा प्रार्थना करता हूँ मैं जानता हूँ कि वह, स्वयं दोषी नहीं है। मगर उसे अपने देश की काली करतूतों की सजा, अभाव एवं अनाथ रहते हुए भुगतनी है।
अंत में - "हैप्पी फादर्स डे", मेरे दिवंगत, मगर मेरे आदर्श पापा .....