मेरे मार्गदर्शक
मेरे मार्गदर्शक
यूं तो माता पिता होते हैं हमारे पालनहार। भाई बहन होते हैं संगी साथी जो मिल जुलकर रहना सिखाते हैं। शिक्षक हमें शिक्षित करते हैं , ज्ञान देते हैं। मगर इसके बाद भी कोई एक ऐसा विशिष्ट इंसान हर किसी के जीवन में होता है जिसे देखकर हम प्रेरित होते हैं। उनका रहन सहन , बात विचार और व्यवहार देखकर प्रभावित होते हैं और उन्हें अपने जीवन का आदर्श मान लेते हैं फिर इतने आशक्त हो जाते हैं कि उनके क्रियाकलापों को देखते हैं और उनके पदचिन्हों पर चलने लगते हैं। उन्हें देखकर अंतरात्मा में कुछ अबूझ अनुभूति होती है और हम बस दीवानों की तरह उनकी नकल करने लगते हैं और उनके जैसा बनना चाहते हैं। उस एक व्यक्ति में हम वो सब गुण भी महसूस करने लगते हैं जो हमें पसंद होता है। धीरे धीरे वह इंसान हमारे अचेतन मन में स्थापित हो जाता है और हम किसी अज्ञात शक्ति से खिंचे चले जाते हैं। और वह एक व्यक्ति सभी रिश्तों पर भारी पड़ने लगता है और इत्तेफाक से वो इंसान हमारे जीवन में दाखिल हो जाता है फिर तो हमारे सपनों को पंख लग जाते हैं और हमारा मन सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। फिर शुरू होता है जीवन का असली सफ़र जिसमें मार्गदर्शक के रूप में वो इंसान अपनी भूमिका निभाने लगता है। ना सिर्फ पुस्तकों का ज्ञान और स्कूल कॉलेज के इम्तिहानों की तैयारी करवाता है बल्कि जीवन के हर मुश्किल डगर से परिचय करवाता है और जीवन के अग्निपथ पर आने वाली समस्याओं का निराकरण करता है। जैसे जैसे उनके क्षेत्र का विस्तार होता है और हर समस्याओं का समाधान मिलता जाता है हमारा यकीन पक्का होता जाता है। फिर वह एक मार्गदर्शक हमारे सभी रिश्तों की भूमिका में जड़ जाता है और हम उनके प्रभाव में इतने अधिक प्रभावित हो जाते हैं कि उसी एक इंसान में कभी हमें "पापा" दिखाई देते हैं कभी "भाई " कभी "गुरू " कभी "मित्र " और सदियों तक सम्पर्क बना रहा तो उस एक इंसान में अपना "पुत्र" भी दिखाई देने लगता है। इस तरह एक सही मार्गदर्शक से जब मुलाकात हो जाती है तब हमें हमारा लक्ष्य मिल जाता है और जीवन सफल हो जाता है। परिवार , समाज और दुनिया के सामने हमारा जीवन उदाहरण बनकर प्रस्तुत होता है और हमारा आचरण अनुकरणीय बन जाता है।
मैं अपने आपको बहुत सौभाग्यशाली समझती हूं क्योंकि मुझे अपने जीवन में सभी रिश्ते श्रेष्ठ मिलें। माता पिता , भाई बहन , संगी साथी , पति बच्चें और सबसे श्रेष्ठ मेरे मार्गदर्शक के रूप में मेरे "ट्यूशन टीचर " जिन्होंने मुझे शिक्षा , दीक्षा , संस्कार के साथ साथ धार्मिक , नैतिक , सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों को भी बेहतरीन तरीके से समझाया। आज मैं बहुत गर्व से कह सकती हूं कि मैं हर क्षेत्र में सफल रही। अपने परिवार में , अपने व्यवसाय में , अपने समाज में और सबसे ज्यादा सफल हुई हिंदी साहित्य जगत में। और हिंदी साहित्य में जो मुझे मान सम्मान , पुरस्कार , प्रशस्ति पत्र और कुछ श्रेष्ठ उपाधियां मिली हैं इसका श्रेय मैं अपने उसी मार्गदर्शक को देना चाहती हूं क्योंकि बचपन से ही उनकी लेखन कला से प्रभावित थी और मैं लेखक बनना चाहती थी किन्तु मेरा मुख्य विषय राजनीति शास्त्र और मनोविज्ञान था। हिंदी साहित्य में मेरी पकड़ अच्छी नहीं थी। मैं बहुत अशुद्ध लिखती थी जिसे वो हमेशा सुधारते थे और मुझे डांटते भी थे। दूसरी बात जो मुझमें बहुत बड़ी कमी या बुराई कहें की गंभीरता नहीं थी , स्थिरता नहीं थी , धैर्य नहीं था और एक अच्छे लेखक बनने के लिए यह सब गुण होना नितांत आवश्यक है। धैर्य से पहले पढ़ना चाहिए क्योंकि अच्छे लेखक बनने की पहली शर्त है अच्छे पाठक और समीक्षक बनना। मेरी अधीरता पर मेरे मार्गदर्शक को मुझ पर बहुत क्रोध भी आता था मगर फिर भी उन्होंने मुझे हमेशा उचित सलाह और सुझाव दिया और मेरी रचनाओं को संशोधित किया। मेरी आलोचना की और मेरी निंदा भी की इस तरह उन्होंने मेरी रचनात्मक हुनर को निखारा और मुझे सफलता के उच्चतम शिखर तक पहुंचाया। हमारे श्रेष्ठ शुभचिंतक और मार्गदर्शक हमारी प्रशंसा नहीं करते हैं बल्कि हमारी कमियों को इंगित करते हैं और शीघ्र से शीघ्र सुधार चाहते हैं। कभी कभी उन्होंने अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक मंचों पर भी मेरी आलोचना की और मुझे बेहतर से बेहतरीन बनाने का सफल प्रयास किया। चुकी मैंने अंतरात्मा से उन्हें गुरू, पथप्रदर्शक और मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार लिया था इसलिए उनके द्वारा किया गई आलोचना को अपना अपमान नहीं समझा और ना ही कभी आत्मसम्मान पर चोट माना। उनके विरोध को समझने की कोशिश की , उनकी टीका टिप्पणी पर विचार किया और उसे सुधारने का प्रयास किया इसलिए मैं सफल हुई। कुछ पारिवारिक , व्यावसायिक सामाजिक और व्यक्तिगत मामलों में भी उनसे सलाह मशविरा किया और हमेशा ही बेहतर परिणाम मिला।
मेरे गुरू , मेरे पथप्रदर्शक और मेरे मार्गदर्शक मेरी दुनिया में पिता का बाद दूसरे नंबर पर श्रेष्ठ स्थान पर विराजमान हैं। और हमेशा हमेशा रहेंगे। पचपन पार होने के बाद भी मुझे उनके मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है और अपने व्यस्ततम दिनचर्या में भी मेरे लिए चंद पल निकाल लेते हैं। जिस तरह मैं अपने माता पिता का ऋण नहीं चुका सकती उस तरह मैं अपने मार्गदर्शक का भी ऋण कभी नहीं चुका सकती। सदैव आदरणीय और पूजनीय रहेंगे।
