Vinita Rahurikar

Classics

4.9  

Vinita Rahurikar

Classics

मेरा घर, मेरा शहर भोपाल

मेरा घर, मेरा शहर भोपाल

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119/41 शिवाजी नगर के उस दो मंजिले सरकारी क्वार्टर की निचली मंजिल पर हमारा घर था जहाँ मेरा जन्म हुआ। घर के सामने लगे नीलगिरी और गुलमोहर के पेड़ों, और आँगन में लगे कनेर, जंगली मेहंदी, बोगनवेलिया की बेल और तारों की बागड़ के पास लगी बेशरम की झाड़ियों की छाँव में बचपन पलने लगा। जब बड़ी होती गयी तो आसपास लगे अमलतास और कचनारों से भी पहचान हुई, दोस्ती हुई।


ये वो वक्त था जब रात में खुली खिड़कियों से जुगनू घर में आ जाया करते थे और बचपन बड़े कौतूहल से कमरे में उड़ते उन नन्हे-नन्हे टिमटिमाते दीयों को देखते हुए न जाने कब सपनों की दुनिया में पहुँच जाता था। जब भी पिताजी रात में कंधे पर बिठाकर घूमने ले जाते छः नम्बर के पास बहते नाले पर उड़ते असंख्य जुगनुओं को दीपदीपाते देख आँखे अचंभित रह जाती। तब आसमान में ढेर सारे तारे होते और धरती पर उतनी ही संख्या में जुगनू। भाई और चाचा अपनी शर्ट की जेब में जुगनू भर लाते जो रात के अंधेरे में उनकी जेबों में चमकते और दादाजी की डांट खाते हुए आजाद किये जाते।


बारिश में हम पीछे के मैदान में बीरबहुटियाँ ढूँढते। हरीभरी घास में लाल-लाल मखमली बीरबहुटियाँ पकड़कर माचिस की डिब्बियों में इकठ्ठा करते।

गर्मियों की शाम में कच्चे आँगन में पानी छींटते और देर तक खटिया या लोहे के जालीदार पलंग पर बैठ माटी की वो सौंधी सुगंध आत्मा में भरते रहते। 


बुआ के घर की छत पर खड़े होकर देर शाम तक पंछियों के झुंडों को अपने नीड़ों की ओर लौटते देखना शाम का सबसे प्रिय खेल हुआ करता था। तोते, चील, बगुले, कबूतर कितने तो पँछी थे तब जो रोज शाम को सर पर से सर्र से उड़ते जाते और मैं अपने भाई-बहनों के साथ उन्हें हाथ हिलाकर यूँ विदा करती जैसे कि वे मुझे पहचानते हो और प्रत्युत्तर में पँख फड़फड़ाकर मुझे भी "टाटा" करते।


नीलगिरी पर बना हुआ कौवे का घोसला जो कई बरसों तक नीलगिरी की शाखाओं ने अपने सीने में सहेज रखा था। गुलमोहर के वो फूल और उसकी फलियाँ जिन्हें हम तलवार बनाकर खेलते थे।

संध्या समय गर्दन तानकर एकटक डूबते सूरज की लालिमा को पल-पल रंग बदलते देखकर प्रकृति के चितेरे की कूची के जादू से अचंभित रह जाना। किस तेजी से एक के बाद एक रंग फेरकर वह सुनहरे सूरज को पहले नारंगी फिर लाल, फिर नील बैंगनी और अंत में गहरे बैंगनी रंग में ढालकर रात के आँचल में लपेट देता था। 


मगर ये तब की बात थी। न जाने क्यों अब आसमान के केनवास पर प्रकृति का चितेरा अपनी कूची का जादू नहीं बिखेरता। भोपाल की शामें अब प्रदूषित धुएँ की धूसर चादर ओढ़े कब रात के काले अंधेरे में खो जाती है गुमसुम सी पता नहीं चलता।


सामने लगे अमलतास और केशिया के पेड़ों की टहनियों पर झूलता चाँद जब हौले से खिड़की पर आकर दस्तक देता था। 

शहर भर की घनी हरियाली जब इतनी ठंडक देती थी जितनी आज घर में लगे पाँच-पाँच एयरकंडीशनर भी नहीं दे पाते। मेन रोड और लिंक रोड के दोनों तरफ लगे घने पेड़ जब बारहों महीने झूमते रहते थे अपने नैसर्गिक सौंदर्य में। तब सौंदर्यीकरण के नाम पर कांट-छाँट नहीं थी। प्रकृति अपने मूल रूप में, अपने नैसर्गिक सौंदर्य के साथ फलती-फूलती थी। उसकी बेतरतीबी में ही कितनी अनघड़ सुंदरता थी। जैसे अपने प्राकृतिक मार्ग पर बहती वेगवती नदी की धारा में अपना एक स्वाभाविक सौंदर्य होता है। 


रात आँगन में खुले आसमान तले दादाजी सप्तऋषियों से पहचान कराते। ये वो वक्त था जब मेरे शहर की ठंडी हवाओं में निश्चिंतता की थपक थी। कुल्फी वाले कि घण्टियों की मधुर धुन गलियों में गूँजती। जब तारों वाली टूटी बागड़ से घिरे आँगन भी सुरक्षित थे और रात भर गहरी नींद सुलाते थे। अब रात में घर का हर दरवाजा देखना पड़ता है कि कुंडी, ताला ठीक से लगा है कि नहीं।


मेरे शहर में तब मुहल्ले थे जो बागड़ के तार उठाकर एक दूसरे के आँगन में आते-जाते रहते थे। गलियाँ लड़कों के क्रिकेट के शोर से आबाद रहती थी तो आँगन बेटियों के पायल की रुनझुन से। तब रिश्ते घर की चारदीवारी में कैद नहीं थे। खो गया है मेरा वो पुलियाई रिश्तों वाला शहर इन अंग्रेज कॉलोनियों के सॉफिस्टिकेटेड आचरण में। वैसे ही जैसे कॉन्वेंट स्कूल की टाई बंधी, इस्त्री की हुई लकदक यूनिफॉर्म में किसी बच्चे की सारी मासूमियत घुटकर रह जाती है।


कुचल गयी कंक्रीट के ब्लॉक के नीचे वो हरीभरी बेतरतीब घास और उनमें स्वच्छंद रेंगती बीरबहुटियाँ तो अब किताबों से भी बिसरा दी गयी है।

उड़कर अब न जाने किस देश को चले गए वो पंछी की अब लौटकर कभी छतों पर आते ही नहीं। अब न आँगन में कनेर रहे न बेशरम की झाड़ियाँ न उन पर जगमगाते जुगनू ही किसी बच्चे की शर्ट की जेब में दिखाई देते है। 

स्मार्ट सिटी की कृत्रिम जगमगाहट में बहुत कुछ अंधेरे में खो गया। सॉफिस्टिकेटेड सभ्यता ने बर्रुकट भोपालियों के लहजे को गूंगा कर दिया। सुरमा भोपाली का वो "अमा मियां" और "क्यों खां" जो कभी मेरे शहर की पहचान हुआ करता था और लड़के तब ये बोलने में फक्र महसूस करते थे आज शायद ही किसी लड़के को पता होगा।


विदेश में कई साल गुजारने के बाद भी साल भर मैं दिन गिनती थी कि कब पिताजी के कॉलेज की छुट्टियाँ हो और कब मैं भोपाल आऊं। 

जन्म से लेकर अब तक की अनगिनत स्मृतियाँ है इस शहर की हवाओं में। यह मेरी जन्मभूमि भी है और मेरी कर्मभूमि भी। जन्म से लेकर अब तक कितना कुछ बदलते देखा है। कितना कुछ हर पल बदल रहा है। मन के भीतर कहीं टीसता है, कहीं कुछ रिसता है। 

न जाने किसके कहने का इतना दखल रहा है

न चाहते हुए भी मेरा शहर कितना बदल रहा है।।

धूल में लिपटे खेलते, चहकते बचपन को जैसे कोई 

नहला-धुला, यूनिफॉर्म पहनाकर जबरन कॉन्वेंट भेज रहा है।।


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