इच्छित जी आर्य

Inspirational

5.0  

इच्छित जी आर्य

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मौत से जीता खेल

मौत से जीता खेल

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दिन के सारे अखबार एक ही सुर्खी से लपटे पड़े थे-

"जंगल को बचाने की जुगत में चार महिलाओं की मौत!"


शाम होते-होते शहर से दूर उस गाँव में घटना की विस्तृत-कवरेज़ के लिये ढेर सारे अखबार वाले जा पहुँचे।


गाड़ियों पर लदे दर्जनों मीडियाकर्मियों का गाँव के स्वागतम वाले बोर्ड के नीचे ही गाँव के ही लग रहे तीन उम्रदराजों से सामना हो गया। हालातों के हिसाब से बिल्कुल स्वाभाविक सवाल पूछा था उन्होंने-

"वो जंगल किधर है, जहाँ आग लगने वाली थी?"


सवाल खत्म हुआ और कुछ जवाब देने की बजाय उन बुज़ुर्गों ने इन गाड़ियों में लदे लोगों पर यूँ पत्थर चलाने शुरू कर दिये, मानो उन्होंने न जाने कौन सी दुखती रग को छेड़ दिया हो। फ़ौरन ही सारी गाड़ियाँ सूनसान रास्ते पर गाँव के अन्दर की ओर दौड़ पड़ीं।


करीब पन्द्रह मिनट तक सड़कों को रौंदते आगे बढ़ने के बाद उन्हें एक लड़का दिखायी दिया। इस बार सवाल को और एहतियात से पूछा गया-

"कल रात में जो हादसा हुआ, उसके बारे में जानकारी लेनी थी।"


लड़का इतने सारे अजनबियों को देख पहले तो ज़रा हिचकिचाया, पर फिर उसने आगे जाने के लिए उन गाड़ियों को एक रास्ता बता दिया। गाड़ियों के मंज़िल तक पहुँचते-पहुँचते सूरज डूबने से शाम का अँधेरा पूरे आसमान पर छितराने लगा था। फिर जैसे ही गाड़ियाँ रुकीं, सामने दिखने वाला नज़ारा ऐसा था कि शक और डर दोनों का ही हर देखने वाली नज़र में उतरना बिल्कुल लाज़िमी था।


जहाँ गाड़ियाँ रुकी थीं, उसके आगे सड़क छोटी-छोटी गलियों में बंट रही थी। एक तरफ़ की गलियों के इर्द-गिर्द मकान थे और दूसरी तरफ देखने पर बस ऐसा पता चल रहा था, जैसे गालियां थीं, पर कुछ साफ़ दिख नहीं रहा था, क्योंकि मकानों के दूसरी तरफ़ का वो पूरा इलाका घने पेड़ों से घिरा हुआ था।


गाड़ियाँ रूक चुकी थीं, क्योंकि सड़क से बनकर आगे को जाती पतली-पतली गलियों में इन गाड़ियों के आगे बढ़ने लायक जगह नहीं थी। पर जो भी माजरा था, उसे जानने के लिए अब भी आगे बढ़ना था, क्योंकि वहाँ से जो भी नज़र आ रहा था, सब एकदम शान्त था, बिना किसी आवाज़ का, बिना किसी हलचल का, बिल्कुल जैसे कोई सूनसान!


सामने नज़र आता वीराना बिल्कुल मुनासिब था, क्योंकि पिछली ही रात वहाँ चार मौतें हुई थीं! चार इंसानी मौतें... वो भी जंगल के बेजान पेड़ों को बचाने के लिये! सारे मीडियाकर्मियों का लक्ष्य एक ही था, इसलिए सब मिलकर संग आगे चल पड़े।


अनजान सड़कों पर चलते हुए एक-एक करके बीसियों मकान पीछे छूट गये, पर किसी को भी एक बड़े बिखरे सन्नाटे के अलावा कुछ न नज़र आया। 


शाम का सूरज पूरी तरह ढलने के बाद गहराये अंधेरे में रोशनी के नाम पर उन गलियों में हर पंद्रह-बीस फ़ीट की दूरी पर खम्भों पर लटकी छोटी-छोटी लालटेन ही रोशनी का एकमात्र उपाय थीं। बाकी तो हर घर में जैसे बस एक घुप्प अंधेरा था। चारों तरफ़ वीराने के हालात ऐसे थे कि हर किसी के जेहन में भीतर एक डर उफनाने लगा था। ठीक उसी वक़्त उन सारे मीडिया वालों में से एक विवान को एकदम से जाने क्या याद आया। फौरन ही जेब से मोबाइल फोन निकालकर वो उसमें जाने क्या तलाशने लगा। और फ़िर अपने ही खयालों में कई तरह के मुँह बनाते हुए एकाएक विवान ने मोबाइल की स्क्रीन पर नज़र आये एक नम्बर को डायल कर दिया।


यहाँ जो कुछ भी हो रहा था, उसे देख ही विवान को तकरीबन दो बरस पुरानी ये बात याद हो आयी थी। उस दिन शहर से बाहर काफ़ी दूर इसी गाँव के करीब से गुज़रते हुए जब विवान की गाड़ी खराब हुई थी, तब अजनबी होते हुए भी स्पर्श ने अपनी जो काबिलियत साबित की थी, तभी से दोनों के बीच ये दोस्ती जैसा सिलसिला शुरू हो गया था।


कहने को ये रिश्ता दोस्ती का था, पर अक्सर ही इस दोस्ती के लिये किसी तरह के दायरे तय कर पाना कभी दोनों के लिये मुनासिब नहीं हुआ था। कारण था, स्पर्श की फौज़ी-नौकरी।


जहाँ तक विवान जान पाया था, वो फौज की नौकरी ही ऐसी थी, जिसके चलते उन्हें कभी एक-दूसरे को नज़दीकी से जानने-समझने, साथ रह पाने का ज्यादा मौका ही नहीं मिल पाया था। ये स्पर्श की फौज़ी नौकरी ही तो थी कि अभी लगभग दो महीने पहले उसके चाचा का स्वर्गवास हुआ था और सीमा पर जाने कौन सी तैनाती थी उसकी कि हफ़्ते भर तक तो ख़बर ही नहीं पहुंची। जब खबर पहुँची, तो छुट्टी मिलने में जो वक़्त लग कि स्पर्श अपने इस दोस्त तक भी केवल खबर ही पहुँचा पाया था।


अपने तथाकथित उसी दोस्त से उसके गाँव में घट रहे इस घटनाक्रम के बारे में जानने के लिए विवान ने ये कॉल की थी और कॉल रिसीव होते ही आवाज़ आयी-

“हाय, विवान! कैसे हो?”

ये वही जानदार आवाज़ थी, छुट्टी पर घर लौटकर आने की पूरी उमंग के साथ।


कॉल करते समय तो विवान सोच रहा था, पहले चाचा जी, फ़िर पिछली रात गाँव में जो घटा, उससे आवाज़ में जो उदासी होगी, उस पर किस तरह वो खुद कोई प्रतिक्रिया देगा! पर ये तो वही हमेशा वाली ही आवाज़ थी, जिसके ऐवज़ में ये रुख लाज़िमी था-

“मैं कैसा हूँ, बाद की बात है। तुम कैसे हो? कब आये? माँ-पिताजी के क्या हाल हैं? और बीवी बच्चों के हाल? सब ठीक? और सबसे बड़ी बात, हो कहाँ?”


विवान के सवाल शायद असर कर गये थे। स्पर्श की आवाज़ में अब फुसफुसाहट थी-

“भाई, जब से चाचा जी गये, बहुत कुछ बदल गया। और कल जो हुआ, उस हादसे के शिकार में से एक मेरी माँ भी थी। मेरे बदले लहज़े से कहीं पिताजी और बाकी घर वालों को घर का ये नया सूनापन महसूस न होने लगे, इसलिए मैं परेशान नहीं हूँ। बीवी-बच्चों के जो सवाल हैं, उनका भी सबसे बेहतर इलाज यही है कि खुद परेशान न दिखकर सबको इन थोड़े दिनों के लिये थोड़ा सा खुश रख लूँ। बाकी, जो उन सबके साथ बाँट नहीं सकता, उसके लिये हो सके, तो तुम आ जाओ।"


स्पर्श की ये आवाज़ एक बार फ़िर से विवान के हृदय को स्पर्श करके गयी थी। “अभी आता हूँ” कहकर उसने फिर इतना ज़रूर पूछा-

"वैसे आना कहाँ है? मैं तो गाँव में ही हूँ, पर कोई नज़र नहीं आ रहा।"


स्पर्श ने आगे जो समझाया, सुनकर विवान ने फ़ोन वापस जेब में रख लिया था। फ़िर सबको साथ लेकर वो उस ओर चल पड़ा था, जिस तरफ़ आगे जाने के लिए स्पर्श ने उसे समझाया था।


लगातार पंद्रह मिनट तक पैदल चलने के बाद सभी के सामने एक बड़े हॉल जैसी बहुत बड़ी इमारत थी। विवान के वहाँ खड़े होकर दोबारा कॉल करने पर स्पर्श उसी हॉल के अंदर से निकल कर बाहर आया। बाहर आते ही मीडिया वालों की लंबी-चौड़ी टोली देख एक बार को स्पर्श थोड़ा सा ठिठका, पर फिर सीधे आकर विवान के गले से चिपक गया।


माहौल में दो मिनट तक फैली रही घुप्प शान्ति के बाद फिर स्पर्श ने सबको बताना शुरू किया-

"जमीन पर पड़े सूखे पत्तों के धधकने से जिन पेड़ों में आग लगने वाली थी, जंगल जैसी दिखने वाली उस जगह का हर एक पेड़ देश की सीमा पर शहीद होने वाले उस गाँव के हर एक बेटे की निशानी था। उस गाँव के हर एक घर से कई-कई बेटे देश की सेना में जाते थे। फिर जब किसी की भी सीमा पर शहादत की खबर आती, उसके नाम से एक पेड़ लगाकर उस बेटे को प्रकृति में अमर कर दिया जाता था। पिछली शाम जब वही अमरता खतरे में नज़र आयी, बेटों की माताओं ने अपना शौर्य दिखाया। आज उन शहीद हुई माताओं को नमन करते हुए वीरता की सलामी देने का उत्सव गाँव के इस सभागार में चल रहा था, इसी वजह से पूरे गाँव का हर घर खाली था।"


स्पर्श को आज मौका मिला था, तो उसने एक-एक करके हर बात आज विवान के सामने रखी थी। उसने सबके सामने खुलकर बताया था कि किस तरह शहादत को इस गाँव में कभी परेशानी का सबब नहीं, बल्कि उत्सव की घड़ी समझा जाता था और किस तरह उन सभी गाँव वालों ने मिलकर पेड़ों के जंगल बसाकर अपने गाँव के हर एक इंसान को हमेशा के लिए ज़िन्दा रखा था!


सब जानने, समझने के बाद स्पर्श को अलविदा बोलकर बाकी मीडियाकर्मियों के साथ चलने को तो विवान चल पड़ा था, पर उस वक़्त उसके कदमों से ज़्यादा उसके दिमाग में बड़े सीधे-सीधे सवाल चल रहे थे-

“जिनकी ज़िन्दगी सरहद के सैलाबों से तिरंगे में लिपट जाती है, उन्हें तो खूब श्रद्धांजलि दी जाती है। ये उनका हक़ भी होता है और हमारी ज़िम्मेदारी भी! पर जो इस तरह साँसों का बलिदान करके शहीद नहीं हो पाते, उनकी हर दिन, हर पल की शाहीदगी का क्या? एक बार जो घर वाली ने कोई सवाल पूछा, जवाब की जरूरतमंदिता हर शादीशुदा बड़े अच्छे से समझता है। पर सरहद की रखवाली पर तैनात सिपाही के पास भला क्या जवाब होता है? वो भला क्या बताये बच्चों को कि अगली होली पर, या अगली दीवाली पर कैसे आयेगा वो उन सबके पास? ठीक आज जैसे मुस्कुराते हुये, या फिर श्रद्धांजलि लेने के लिये तिरंगे में लिपटकर!”


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