मैं कोरोना मरीज बोल रहा हूँ.....
मैं कोरोना मरीज बोल रहा हूँ.....
जी, हाँ मैं आज एक कोरोना मरीज हूँ, अब मेरी यही पहचान है। एक अछूत इंसान, जिसे कोई छूना तो दूर देखना भी पसंद नही करे। मै अमेरिका के बहुत आधुनिक उपकरण से भरपूर एक अस्पताल मे अंतिम साँसें गिन रहा हूँ, जो पता नहीं कितनी बाकी है, दीवार का सूनापन और घड़ी की टिक- टिक ही शायद मेरे अंतिम दिनों के दर्द के गवाह बनेंगे,,,,,,,,
आज भी याद है भारत की मिट्टी मे बिताया बचपन। माँ की ममता, दूध- भात का कटोरा और काजल का टीका। पिताजी की साइकल, मिल मे जाते हुए उनका स्टील का खाने का डिब्बा और उनकी घिसी हुई चप्पल। मेरी एक छोटी बहन भी है। हम दोनों साथ साथ बड़े हुए। पर माता- पिता मुझ पर बहुत ज्यादा ध्यान देते थे। कहते थे बेटी तो पराया धन होती है और बेटा बुढापे का सहारा। मेरी बहन को सरकारी हिंदी माध्यम से पढ़ा रहे थे पर मेरी शिक्षा अंग्रेजी माध्यम के उच्च विद्यालय मे हो रही थी। मेरी बहन स्कूल से आकर घर का काम और मेरा भी काम करती थी नही करती तो उससे करवाया जाता। मै भी विजयी होने की नज़र से देखता। जब मेरी परीक्षा होती तो घर का माहौल ही बदल जाता। रिस्तेदारो से दूरी बन जाती की कही मिलने ना आ जाये। एक बार तो मेरे माता पिता ने हद कर दी। गाँव से आये दादा दादी को घर मे न लेकर बाहर से ही चाचा के यहाँ भिजवा दिया। आज मैं दादा दादी का दर्द समझ सकता हूँ, पर अब कोई फायदा नही। मेरी बहन पढाई मे मेहनती व होशियार थी पर उसकी पढाई यह कहकर छुड़वा दी गई की हमारे माता पिता एक ही संतान को पढ़ा सकते है। एक मध्यम वर्गीय परिवार का लड़का देखकर उसकी शादी कर दी गयी। आज भी मेरी बहन का आँसुओं से भीगा चेहरा और उसकी बेबस आँखे याद है। मैं पढ़ता चला गया। मेरे माता पिता को मुझे विदेश भेजना था। और एक दिन मेरी नियुक्ति विदेश की बड़ी कंपनी मे हो गयी।
इसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर देखा ही नही। मेरी शादी भारतीय लड़की से हुई, माँ की पसंद से। पर मुझे तो यहाँ के तौर तरीको की आदत थी। मेरी पत्नी से मेरा आचरण सहा ना जाता था। पर कहते है ना विनाश काले विपरीत बुध्दि।
भारत मे मैंने माता पिता को बड़ा घर और सारी आधुनिक सुख सुविधाएं थी, मेरे सिवाय। पर मैं समझ ना सका उनकी जरूरत तो बस मैं था। हर महीने मोटी रकम भेजता था। हर बार माँ का घर आने का मनुहार, पिता की तरसती निशब्द आँखे बहुत कुछ कहती थी। रिश्ते दारो से उन लोगों ने पहले ही नही संबंध रखे थे। बहन आते जाते रहती थी। आखिर तक वही माँ बाप के बुढ़ापे का सहारा बनी। मै तो अपने ही पद, धन वैभव और भोग विलासिता मे डूबा हुआ। मेरी पत्नी जो मेरे साथ कभी सुखी नही रही, वो हमेशा सच कहती थी अपनी जड़ से कटकर कभी कोई वृक्ष सुखी नही रह सकता। काश, मै अंधा धुंध दौड़ने से रुक कर माँ के आँचल तले थोड़ा विश्राम कर लेता। या विदेश की भोग विलास की जिंदगी और इस जमी को छोड़कर अपने वतन मे जाकर पिता की छाव तले जीवन के स्वर्णिम पल बिताता। पर मैं बदनसीब ना तो पिता की चिता को अग्नि देने पहुँचा ना ही माँ के अंतिम दर्शन कर सका। ओ ह! कैसी जिंदगी की मृग मारिचिक। कैसी मृग तृष्णा?
इसलिए, अब मेरी यही सजा है। वक़्त के पास भी मेरे जख्मो के लिए कोई मरहम नहीं है। क्योंकि मेरे पास वक़्त ही नही है। कितना अच्छा होता मै अपने वतन की मिट्टी पर सपनो के महल मे अपने माता पिता के शुभ आशीष के साथ अपनी नई पीढी को अपने संस्कार देता और अपने जीवन को धन्य मानता। पर ऐसा हो न सका।
क्योंकि अब मैं एक कोरोना मरीज हूँ।
