मैं खुश हूँ मरकर भी-2
मैं खुश हूँ मरकर भी-2
मैं भी एक माँ हूँ, आज से नहीं, मुझे तो बहुत वक्त हो चला माँ बने हुए। माँ बनने का एक अलग एहसास, एक अलग ही खुशी होती है। जो सबकी तरह मैंने भी महसूस किया था। वो अलग बात है कि अब मैं बूढ़ी हो चुकी हूं, अब अकेले रहती हूँ, क्योंकि मेरे चार पढ़े लिखे लड़के है, बहुत गर्व होता था मुझे ये कहते हुए की- "मेरे तो चार लड़के है, मुझे बुढ़ापे की क्या टेंशन।"
आज जब भी सोचती हूँ तो खुद पर हंसी आती है, और अकेले कमरे में बैठकर जोर जोर से हंसने लगती हूँ, मेरी हँसी की गूंज तब तक गूंजती है जब तक मेरी नजर खुद के वर्तमान पर नहीं आ जाती, जैसे ही वर्तमान पर नजर पड़ती है अचानक आंसुओं का एक सैलाब आ जाता है। और मैं पागलों की तरह रोने लगती हूँ।
पागलों की तरह क्यों कह रही, आज से थोड़ी हूँ मैं पागल, मैं तो पहले इन बच्चों के जन्म की खुशी में पागल थी, फिर इनके बचपन को देखकर खुश रहकर पागल थी। इन्हें पढ़ाने लिखाने के लिए पागलों की तरह सुबह सुबह उठकर इन सबके लिए खाना पकाकर कोठियों में काम करने भाग जाया करती थी। चार पैसो के पीछे पागलों की तरह मेहनत करके इनको पढ़ाया लिखाया, पागल ही थी मैं….इनको माँ के साथ साथ बाप का भी प्यार दिया, वो बाप जो मेरी किस्मत में था ही नहीं, अज्ञानता की दीप से घर मे चिरागों की कोई कमी नहीं छोड़ी उन्होंने और फिर अंधेरा करके चल बसे, वो आज होते तो कम से कम अभी बात करने के लिए, लड़ने झगड़ने के लिए कोई तो होता।
जाते जाते बोल गए कि- "मैं कही नहीं जा रहा तुम्हें छोड़कर, मैंने तुम्हें बहुत परेशान किया है, हमेशा तंग किया तुम्हें, उसी की सजा भुगत रहा हूँ, फिलहाल तुम मेरे बच्चों का ख्याल रखना बाद में वो तुम्हारा रखेंगे"
जाते जाते भी झूठ ही बोल गए, वरना बच्चों का ख्याल रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी मैंने, और अगर तुम आज भी मेरे आसपास हो तो एक बात तुम्हें भी बताती हूँ, मुझे तुमने नहीं तुम्हारे शराब पीने की आदत ने तंग किया था। बार बार तुम्हारी नौकरी का छूटना मुझे बुरा नहीं लगता था। मुझे बुरा लगता था कि नौकरी छूटने की वजह शराब पीना है, ना बच्चों से कभी प्यार किया आपने ना उन्हें खुश रखा, रोज के झगड़े देखकर वो मुझसे भी ज्यादा टेंशन लेते थे।
मैं आपसे नफरत नहीं करती थी, आपके गलत आदतों से करती थी। और हमेशा यही डर रहता था कही मेरे लड़के भी शराब ना पीने लगे बड़े होकर, , लेकिन अब बच्चे बड़े हो गए है, खुशी भी है कि किसी ने गलत आदतों को नहीं अपनाया। अपनाया भी होगा तो मुझसे इतने दूर है कि मुझे पता नहीं चलता।
पता है सबसे ज्यादा सुकून कब मिला मुझे, , जब मेरे सबसे छोटे लड़के की शादी हुई…….क्योंकि उसकी शादी में मेरे चारों बच्चे मेरे सामने थे, एक नजर से उन्हें देख पा रही थी,
उस वक्त मेरे तीनों बेटे विलायती हो चुके थे, इतने दूर की मिलने भी नहीं जा सकती, सबका अलग अलग संसार बस चुका था, और सबसे छोटे बेटे की शादी कर रहा था।
उसे मैंने मजाक मजाक में कहा कि- "अब तो तुम भी मुझसे अलग, अपना अलग संसार बसाओगे,"
तो वो गुस्सा हो गया और बोलने लगा- " मां तुम ही मेरी संसार हो, और मैं तुम्हें कभी नहीं छोडूंगा, चाहे हालात कुछ भी हो"
मुझे तब भी गर्व हुआ, और मेरे पैरों को जमीन नहीं मिल रही थी रखने को,
लेकिन उसने भी शादी के महज दस महीने में बोल दिया- "माँ तुम इतनी अच्छी होती तो भाभी लोग रहते तुम्हारे साथ, बाकी के भाइयों ने अच्छा ही किया अपने साथ ले गए, वरना तुम उन्हें भी परेशान करती"
अरे ! लेकिन मैंने क्या किया, मेरी क्या गलती थी, मैंने तो सिर्फ यही कहा कि बहु अब घर की सारी जिम्मेदारी तुम संभालोगी, मेरे हाथ पैर जवाब देने लगे है, इतनी सी बात पर वो कहने लगी कि आज तक नहीं दिया इन्होंने जवाब मेरे आने के बाद ही देना था क्या इन्होंने जवाब, क्या आज तक कोई काम नहीं करते थे आप,
उसे यही लगता था कि मैं उसे देखकर काम नहीं करती अब, और बेटे को भी यही लगा कि जो माँ बचपन में चार लड़कों को खिला पिलाकर, उनके कपड़े धोकर, घर का सारा काम करके , काम करने जाती थी और आकर दोबारा काम में जुट जाती थी आज वो बहु के आते ही नखरे करने लग गयी। वो नहीं जानता कि उम्र के हिसाब से ताकत नहीं रहती। लेकिन मैं तब भी कुछ नहीं बोली, सोचा शायद कुछ ज्यादा काम कर लुंगी तो मामला शांत हो जाएगा और मैं उसे कम काम करने को बोलने लगी, बल्कि उसे कोई काम ही नहीं करने को बोलती, जितना हो सकता था खुद ही कर लेती थी।
मैं नहीं कहती मेरे अकेलेपन की वजह मेरी बहु या मेरा बेटा है, कुछ कमियां तो मुझमें भी होंगी, मैं भी हर इंसान कि तरह दूसरों में कमियां जल्दी देख लेती हूँ और खुद की कमियों और गलतियों को नजर अंदाज कर लेती थी। भले ही मुझे छोड़कर उस बेटे ने अपना अलग घर बसा लिया है लेकिन मुझसे मिलने आता रहता है, बहु से छिप छिप कर आता है, बोलता है उसे पता नहीं लगने देना की मैं यहां आया था। इस बार दीपावली में वो मुझसे मिलने नहीं आ सका, बहुत देर हो गयी उसकी राह ताकते ताकते, बहुत लोग आए और चले गए, मुझे पूरा भरोसा था मेरा बेटा आगे पीछे मिलने नहीं आ सकता है, कम से कम दीपावली पर तो आएगा, कम से कम आज के दिन तो उसे मेरी याद आएगी, लेकिन नहीं……बहुत देर हो गयी, इंतजार करते करते हार गई थी मैं, आखिरकार दीपावली की मिठाई लेकर मैं ही उसके घर पहुंची तो मैंने देखा घर में ताला था, और बिना पूछे ही एक पड़ोसी ने मुझे बताया कि वो अपने ससुराल गए है, बोलकर गए है कि कोई आएगा तो उसे बोल देना की कल आना, आज वो घर पर नहीं है।
ये सुनकर मैंने अपने हाथ की मिठाई उसी पड़ोसी को दे दिया ।
पड़ोसी ने मिठाई लेने के बाद कहा- "आप एक मिनट रुकिए आँटी, वो कहकर गए है कोई कुछ लेकर आये तो उसको कुछ वापसी भी देना, वो खरीदकर रख गए है मेरे पास, मैं अभी आपके हिस्से की मिठाई लाता हूँ,"
मैंने कुछ भी लेने से इनकार करते हुए कहा- "नहीं बेटा, मुझे कुछ नहीं चाहिए बस एक काम याद से कर देना कि अगर वो वापस आये तो उसे कहना की उसकी माँ उसका इंतजार कर रही है, एक बार मिल के चले जाना, ये मिठाई, और गिफ्ट तो बहाना है मिलने जुलने का,
बस इतना कहकर मैं चली आयी, लेकिन चार दिन तक बेटा आया नहीं, बीच में एक बार फोन किया मैंने, इतना कहकर काट दिया कि अभी गाड़ी चला रहा है, बाद में बात करेगा, शायद काम के चक्कर मे भूल गया होगा, दोबारा फोन करती मैं, लेकिन एक अजीब सा डर था, जब भी उससे बात करती हूँ लगता ही नहीं है कि अपने बेटे से बात कर रही हूँ,
लेकिन ऐसी बात नहीं है कि वो मिलने नहीं आया, चार दिन बाद अचानक ही मेरे घर के गेट पर जब मुझे नजर आया तो मैं बहुत खुश हो गयी, मैंने तब भी एक ही सवाल किया - "क्या हुआ बेटा, अकेले आया है, बहु नहीं आई?"
उसने बेरुखी से जवाब दिया - "वो नहीं आई" इतना कहकर उसने मेरी तरफ एक मिठाई का डिब्बे बढ़ाते हुए कहा
"ये लीजिये आपकी दीपावली, उस दिन उनसे लिया क्यों नहीं आपने, आपको तो पता है मुझे इतना टाइम नहीं होता"
"अंदर तो आओ बेटा….बाहर से ही चले जाना है क्या" मैंने कहा, एक ही बेटा था नजदीक, बाकी सब तो विदेशी थे, पता नहीं कब लौटेंगे,
"हाँ माँ, ऑफिस जल्दी जाना है, फिर कभी आऊंगा बैठने" कहकर उस दिन बाहर से ही चले गया। कुछ दिन पहले की ही बात है, एक बार उसे फोन करना था की तू थोड़ी देर माँ के साथ बैठने आने वाला था, आया क्यों नहीं। लेकिन कैसे करूँ फोन , मोबाइल तो खराब हो गया, दुकान जाकर सही करवाने की भी ताकत नहीं है, क्योंकि दो दिन से बुखार से तप रही हूँ, बिस्तर से उठने का मन भी नहीं है। खुद के लिए दवाई लाने नहीं जा सकती, मोबाइल क्या ठीक कराऊंगी, कुछ पकाने खाने की ताकत भी नहीं है और मन भी नहीं है। बस मन है तो चारों बेटों को एक बार एक साथ देखने का, जैसे आखिरी इच्छा हो ये मेरी। एक आखिरी तमन्ना हो ये मेरी।
लेकिन अब शायद ही ये सपना पूरा होगा, पूरे कमरे में मेरे साथ कोई नहीं है, एक चारों बच्चों के बचपन की तस्वीर है और एक टिक टिक की आवाज करती हुई घड़ी।
रात के आठ बजे है, ठिठुरती सर्दी का मौसम और बाहर बिजली की कड़कड़ाहट के साथ रिमझिम बारिश हो रही है, मेरा बिस्तर पूरा गर्म और अजीब तरह की बदबू आ रही है, शायद बुखार के साथ बहे हुए पसीने की महक है। तपता हुआ गर्म माथा पसीने की बूंदों का वाष्प बना रहा है और ठिठुरती ठंड मुझे कांपने को मजबूर कर रही है।
मैं पूछ रही हूँ खुद से की कहाँ है तेरे चारों लाडले……कहां है वो जिन्हें जीने का मकसद बनाकर तू आज तक ज़िन्दा है। कहाँ है तेरे कलेजे के टुकड़े जिनके लिए तूने दिन रात एक कर दिया था। जिनकी परवरिश के लिए तूने खा ना खाकर पैसे जमा किये थे। कहाँ है वो आंखें….हां तू ही तो कहती थी कि लोगों के दो आंखें होती है मेरी तो चार आंखें है, आज तेरे चारों आंखों में से किसी एक आंख को भी तू नजर नहीं आ रही है।
सच कहूं तो मैं खुद के इन फिजूल सवालों का जवाब नहीं देना चाहती हूं, बस भगवान से दुआ करती हूँ कि अगले जन्म में मुझे अगर संतान सुख देगा, माँ बनने का एहसास दिलाएगा तो बस एक प्यारी सी बेटी को जन्म देना,
खिड़की के पर्दे की फ़र्फ़राहट मुझे और भी डरा रही थी, ऐसा लग रहा है जैसे मौत मेरे पास आ रही हो, ऐसा नही की मैं मौत से डरती हूँ, लेकिन मौत के आने से मैं अपने लाडलों को कैसे देख पाऊंगी। मैं आज भी बहुत प्यार करती हूँ उनसे, मैं अभी जीना चाहती हूं, सिर्फ अपने बच्चों के लिए, उन्हें बताना चाहती हूं कुछ, उन्हें कहना चाहती हूं कुछ, कुछ बाते उनसे करना चाहती हूँ,
इस सोच में डूबते हुए मेरी आँखें नींद की आगोश में डूबने लगी और मुंह से जाने अनजाने में एक रुदन सी आवाज आ रही थी, नरनराहट की आवाज के साथ साथ मेरे मुंह में कहरो लड़कों के नाम बारी बारी आने लगे, मैं भगवान को याद करना चाह रही थी लेकिन एक पल भगवान को सोचती लेकिन अगले पल अपने बच्चों की याद आ जाती।
इसी छोटे से कमरे में जब एक लड़के को आँचल से दूध पिलाती थी तो पास खड़े दो बड़े भाई एक रोटी के लिए झगड़ पड़ते थे, और सबसे बड़ा लड़का उस रोटी के तीन बराबर हिस्से करके आपस में बांट लेता था और थोड़ा रोने धोने के बाद मामला निपट जाता था, बहुत समझदार लगता था, मेरे दर्द को समझने वाला लगता था, लेकिन हिस्सा करने की आदत अब तक नहीं छूटी थी उनकी, हर चीज़ का हिस्सा करने लगे थे, जब बात मेरे हिस्से की आने लगी तो मैंने यह कह दिया कि मैं बचपन से तुम चारों को पालती आयी थी, अब तुममें से किसी एक के पास इतनी हिम्मत नहीं की एक माँ को पाल सको, मैं किसी एक के साथ ही रहूँगी, मेरे बस का नहीं है कभी यहाँ कभी वहाँ भटकना।
बाकी तीनों शादी शुदा थे, उनके पास खाने पकाने वाली थी, अब माँ का क्या काम था, माँ की परिभाषा उनके जीवन में ऐसी बन चुकी थी - "वो महिला जो बिना थके काम करे, खाने पीने का इंतजाम करे, सुबह बिस्तर में चाय लाये, और हमारे कपड़े धोए, सब काम किया करा मिल गया तो ठीक था, कुछ काम अधूरा रह जाता तो कोई ये नहीं पूछता था कि माँ आज तबीयत तो ठीक थी ना, क्या बात है ठीक तो हो, , जबकि हर कोई बोल देता की मां आज कही बाहर गए थे क्या, मैंने एक काम बोला था किया क्यों नहीं।
शायद बाकी तीन लड़कों को मां की जगह बीवी मिल गयी थी, इसलिए उन्होंने मुझे सबसे छोटे के हिस्से में भेज दिया। यह कहते हुए की इसके लिए ख़ाना कौन पकाएंगे, इसका टीफिन कौन पैक करेगा, लेकिन अब उसकी भी जरूरत पूरी हो चुकी थी। उसे भी माँ की कमी नही खलती थी। आज उन बच्चों का बचपन चिल्ला चिल्ला के माँ माँ पुकार रहा था, और बारिश की गड़गड़ाहट में चारों बच्चों का शोर भी गूंज रहा था, तभी एक बार फिर बिजली की एक तेज चमक ने खिड़की के अंदर को दोपहर की धूप जितनी रोशनी फेंकी और फिर अंधेरा हो गया। और बहुत तेज आवाज के साथ बादल के फटने की सी आवाज आई।
आवाज इतनी तीव्र थी जैसे मानो जमीन कांप गयी हो। और इसी आवाज के साथ एक झटका सा लगा, और उन सभी बच्चों की आवाज खामोशी में बदल गयी। अब सब खामोश था, हलचल जारी थी लेकिन खामोशी के साथ।
बादल गरज रहे थे, बिजली चमक रही थी फिर भी गहन सन्नाटा था। पर्दे भी हिल रहे थे, रिमझिम बारिश भी हो रही थी। सारी हरकतों को मैं बिना पलक झपकाए देख पा रही थी मगर सुन नहीं पा रही थी, यहाँ तक कि घड़ी की टिक टिक की आवाज जो अभी तक बहुत तेज थी अब वो सुई भी सुनसान घूम रही थी। और मेरे सबसे करीब मेरे सीने की धड़कन……ऊफ़ अब समझ आया कि सब कुछ शांत क्यों हो गया। मेरी धड़कन भी तो खामोश थी। सन्नाटा इस कदर पसरा हुआ था जैसे मैं अनंत की ओर अग्रसर थी, एक अजीब सा माहौल था, धीरे धीरे पर्दे और बारिश की बूंदें और साथ में दीवार में हल्का साया भी धुंधलाने लगा था।
शायद गहन खामोशी और सन्नाटे के साथ अब एक अंधकार भी फैलने वाला है। और जैसे ही अंधकार और ख़ामोशी दोनों का मिलन होगा एक नया जीवन शुरू होगा, और पुराने जीवन का समापन होगा।
एक नई कहानी की शुरुआत होगी मेरी कहानी यही खत्म हो जाएगी। लेकिन मैं खुश हूं, अब एक बार फिर चारों भाई मिलेंगे, चारों एक साथ होंगे, एक दूसरे के साथ होंगे, शायद इस बार बहुएं भी आएंगी, भले मैं किसी को देख पाऊँ या नहीं, लेकिन उनकी मिलन की बेला अब आएगी जरूर,
इस बार वो मेरी गलतियों को नहीं मेरी अच्छाइयों को याद करेंगे, इस बार वो अपने बचपन के दिनों को याद करेंगे। याद करेंगे अपने खेलकूद का वो दौर और मां की डांट, माँ की डांट के बहाने वो मुझे याद करेंगे, मैं खुश हूं की आज तक जिन्होंने मुझे पूछा नहीं, मेरे हालचाल नहीं पूछे, अब वो मेरी पूजा करेंगे, पहले मैं अलग रहती थी, मुझे अपने साथ कोई नहीं रखना चाहता था, लेकिन अब सब अपने अपने घर में रखेंगे मुझे, जीते जी जो खुशी मुझे नहीं मिली अगर मरने के बाद मिलती है तो इसमें बुरा क्या है, मैं तो खुश रहूँगी अपने चारों बच्चों के साथ।
सोचते सोचते ही सोचना छोड़ दिया
ये जिंदगी और मौत के मिलन ने कैसा मोड़ दिया
एक माँ थी, चार थे उसके लाल
एक भी नहीं था आखिर में उसके साथ,
बस यही रहा मलाल
फिर भी माँ खुश है,
देखो कितनी सुंदर मौत मिली है उसे
ना तड़पी, ना किसी का लिया कर्ज़
मरते मरते भी खुश रहने की दुआ दे गई
आखिरी सांस तक निभाया माँ होने का फर्ज
माँ बाबा की उम्मीदें बच्चों की दौलत नहीं होती दोस्तों
ना वो बहु- बेटे को दुखी करना चाहते है
आप उनकी नजर से देखो
वो तुमसे प्यार के सिवा कुछ नहीं चाहते है।