sonu santosh bhatt

Tragedy Classics Inspirational

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sonu santosh bhatt

Tragedy Classics Inspirational

डाकिया (रक्षा बंधन)

डाकिया (रक्षा बंधन)

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रोज की तरह धूप में पसीना पोछते हुए साइकिल की घंटी बजाते हुए गाँव की पगडंडी पर एक साइड बैग टाँककर सरपट दौड़ रहा था। बहुत सारी चिट्ठियां बैग में थी जो आज ही देनी थी क्योंकि कल देने का कोई औचित्य नही था। कल राखी का दिन है, और आज अगर सारी चिठ्ठिया नही दी तो किसी भाई की कलाई सुनी रह जाएगी बावजूद उसके बहन के बहुत ही प्यार से भेजने के।

"अरे ओ चाची ! तुमने नही भेजी कोई चिठ्ठी इस बार, हर राखी पर तो हफ्ते भर पहले से भेज देते थे" मैंने आंगन के दीवार पर बैठी एक औरत से कहा जो अभी अपनी छोटी लड़की के बाल बना रही थी।

"आआ…….माँ, थोड़ा आराम से कर यार" अपने बाल पकड़ते हुए लड़की बोली।

मैंने साइकिल को दीवार के सहारे गिराया और आकर उनके दीवार पर बैठ गया-" पानी पिला दो थोड़ी, चाय पिलाना तो छोड़ दिया यबी चाची ने, बदल गयी हो तुम, पता नही क्यों"

"इतनी गर्मी में चाय….?? रुक तेरे लिए छाछ लाती हूँ। चाय पीकर क्या करेगा, इतनी धूप है।" चाची ने कहा और कंघी लड़की के बालों में ही लटकाकर अंदर जाने लगी।

"अरे नही नही, मजाक कर रहा था। बस मटकी का ठंडा पानी दे दो" मैं बोला लेकिन चाची ने मेरी बात अनसुनी कर दी। ये मेरी कोई सगी चाची नही थी, हर गावमे मैंने ऐसे ही दो दिन चाचियां बनाई थी, कभी कभी मुझे काम करते करते शाम हो जाती थी तो मैं रुक भी जाया करता था और खा पीकर सोता था।

"ये अमरूद का पेड़ अच्छी छाया देता है, अमरूद आते है कि नही" मैंने चुटकी से पूछा।

वो कुछ नही बोली, शर्मीली थी। उठकर अंदर की तरफ चली गयी, शायद डर गई थी।

थोड़ी देर में चाची एक लोटा और एक गिलास में छाछ ले आई और उसमें चीनी घोलने के लिए बार बार लोटे से गिलास और गिलास से लोटे में छाछ लौटा रही थी।

 "क्यों चाची, इस बार नही भेजा, सब ठीक तो है ना?" मैंने ये सवाल इसलिए किया क्योकि पिछले आठ साल से मैं उस चाची का खत हर रक्षा बंधन पर ले जाया करता था और उसके मायके भेजता था।

चाची ने लोटा और गिलास दोनो मेरे पास ऱखकर चुटकी को आवाज दी जो करीब आठ साल की थी।

"अंदर कहाँ मर गई, बाहर आ तेरे बालो में आग लगाती हूँ"

ये बहुत अजीब भाषा थी चाची की, दिल की दयालु तो शब्दों की तीखी मिर्ची….लेकिन इस बार उसके चेहरे में असन्तुष्टि के भाव झलक रहे थे, और थोड़ा बहुत गुस्सा भी था।

"ऐसा क्यो बोल रही हो, बच्ची है वो" मैंने कहा।

"इतनी बच्ची भी नही है, खुद बाल भी ना बना पाए, बातें जितनी मर्जी करालो इससे, बस काम नही करती" चाची ने कहा।

मैं हैरान था। शायद और कोई बात थी जिसका गुस्सा चाची उसपर निकाल रही थी। चुटकी आयी और हँसते हुए अपनी माँ के पैरों के पास बैठ गयी।

"ये बात करती है क्या?, मुझे तो गूंगी लगती है, मैं महीने में एक दो चक्कर लगाता हूँ फिर भी ना जाने मुझसे इतना डरती क्यों है।" मैंने सवाल किया।

"चलो किसी से तो डरती है" चाची ने कहा और दोबारा से बालों को सुलझाने में उलझ गई।

मैं छाछ पीते हुए अब भी यही सोच रहा था कि आखिर इस बार चाची ने खत भेजने से इनकार क्यो किया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैने फिर से सवाल किया- "चंदू मामा ठीक तो है ना ?"

अब चाची के सब्र का बांध टूट गया और वो आंखों से आंसू गिराते हुए सिसकियां लेने लगी। मुझे लगा कि शायद इस बार वो नही रहे, उनका स्वर्गवास हो गया होगा, क्योकि चाची ने राखी का धागा नही भेजा था और उनके बारे में पूछने पर रोने लगी। मैं चाची बैठते हुए बोला- "क्या हुआ कोई बुरी खबर है क्या?"

चाची की आवाज में अब एक गर्गराहट थी, उखड़ी सी आवाज में अपने आंसू पोछते हुए बोली- "आठ साल से खत भेज रही हूँ उसे , पहली बार जब चुटकी हुई थी तब भेजा था, तब भी उसने जवाब में ये लिखा कि उसकी स्कूल में अध्यापक की नौकरी लगी है, सरकारी स्कूल में सरकारी नौकरी है मैं नही आ सकता, और उसने खत में ग्यारह रुपये शगुन के तौर पर भेजे थे, उसके बाद मैं हर साल राखी पर उसे खत भेजने लगी, क्योकि पहले मुझे आता नही था, तूने ही बताया कि ऐसे भेजते है, मैं किसी से लिखवाकर हर साल खत भेजती रही लेकिन वो कभी खत का जवाब देता तो कभी देता ही नही, चलो मैं तो अनपढ़ हूँ खत भेजने से पहले लिखवाने के लिए भी लोगो से मिन्नत करनी पड़ती है। लेकिन वो तो जवाब दे सकता है ना। मेरे आठ साल के राखी पर भेजे पत्रों का जवाब उसने सिर्फ तीन साल दिया। क्या इतना कठिन है जवाब देना, अगर राखी पर या दीवाली में वो आ नही सकता तो चिठ्ठी तो भेज सकता है ना।" चाची बोली।

"अच्छा तो वो चिठ्ठी का जवाब नही देते इसलिए नाराज हो आप उनसे" मैं बोला।

"नही, इतनी सी बात नही है, पिछले महीने मेरी बहन दीपा गयी थी घर, तो उसने वापस ससुराल आने के बाद एक चिठ्ठी भेजी थी, रुक…. मैं पढ़ाती हूँ" इतना कहकर चाची अंदर गयी और थोड़ी देर में एक चिट्ठी ले आई जिसे मैं पढ़ने लगा।

नमस्कार दिदी

कैसी है तू। मैं बिल्कुल ठीक हूँ और मेरे बच्चे भी ठीक है। तेरे बच्चे भी ठीक होंगे, मेरा बेटा अब छः में पढ़ता है और उसी से ये लिखवा रही हूँ। उसने बताया कि स्कूल में उसे चिठ्ठी लिखना सीखा रहे है तो मैंने कहा कि एक चिट्ठी अपनी ताईजी को भी लिख ले। भगवान भी कैसे दिन दिखाता है ना, मेरे पंकज से बड़ा तेरा लड़का होता लेकिन भगवान ने तुझसे वो भी छीन लिया, लेकिन शुक्र है चुटकी तो हुई, तू भी अकेले कैसे रहती, जिजाजी को तो शहर में ही रहना होता है, पैसे भेजते है कि नही, कभी आएंगे तो मेरा नमस्कार कहना उन्हें भी, और मेरी तरफ से याद कर देना। और एक बात और बताती हूँ, मैं मायके गयी थी दो चार दिन ही हुए लौटे हुए । सबकुछ बदल गया है वहां। अपना घर जैसा लग ही नही रहा है, चंदू ने भी गुड्डू की शादी कर दी और हम लोगो को खबर भी नही की। छह महीने हो गए भाई के लड़के गुड्डू की शादी हुए। और मैं वहां गयी तो पता लगा कि अब हमारी वो पुरानी अहमियत भी नही रही जो पहले थी। जब गुड्डू हुआ था तब कितना नाचे थे हम, दो लड़कियों के बाद भाई का लड़का हुआ था, और कितना सोचते थे हम की उसकी शादी में भी खूब नाचेंगे लेकिन शादी में बुलाना तो दूर जब मैं घर गयी तो मुझे भाभी बोलने लगी कि आने से पहले खबर तो भेज देते। बता ऐसा कहने की क्या जरूरत थी उन्हें, हम अपने मायके जाएंगे तो चिठ्ठी में बताकर जाएंगे क्या? चिठ्ठी तीन दिन में पहुंचेगी तब तक हमारे को भेजने वाले लोगो का फैसला बदल जायेगा। ये सब बात छोड़ो मुझे मेरी चिठ्ठी का जवाब देना, और बताना की मेरे पास कब आ रही है मुझसे मिलने। जल्दी आना, तेरे को नही देखे चौदह साल हो गए है, शादी के बाद गुड्डू के नामकरण में देखा था बस।

आपकी बहन- दीपा

ये सब पढ़कर मेरे आंखों में भी सिर्फ इसलिए आँसू आ गए क्योकि जो बहन अपने भाई को हर छोटे छोटे अवसर पर चिठ्ठी लिखती थी, घर आने को कहती थी वो भाई अपने बेटे की शादी में तक अपनी बहन को नही बुलाया, बुलाना छोड़ो, ये खबर भी नही भेजी की उसने अपने बेटे की शादी करके घर मे बहु ले आया है।

मैंने चिठ्ठी चाची को पकड़ाई और चुटकी की तरफ देखा और कहा- "इसे स्कूल नही भेजते क्या?"

"भेजती हूँ, आंगनबाड़ी में….स्कूल में तो पैसे लगते है" चाची ने कहा।

"तो हमेशा आंगनबाड़ी में थोड़ी रहेगी, वहाँ तो छोटे बच्चे जाते है" मैं बोलते हुए खड़ा हो गया और जाने की तैयारी करते हुए अंगड़ाई लेने लगा। छाछ से पेट भर गया था। और थोड़ा बहुत आलस भी आ रहा था।

"देखते है क्या होता है? इसके बाबूजी भी कोई खैर खबर नही भेज रहे, पिछली बार लिखा था कि कमरा बदल रहे है, कहीं और जाना है, जब मैं पत्र भेजूँगा तो ही भेजना , क्योकि नए पते से भेजूँगा, लेकिन अब तक कोई चिठ्ठी नही आई।" चाची ने कहते हुए एक डोर से चुटकी के बाल बांध दिए।

मैं मन ही मन सोच रहा था कि किसी जिंदगी है उसकी, ना भाई ही अपना था ना पति, हर तरफ से अकेली जूझ रही थी जिंदगी की लड़ाई, लेकिन फिर भी बंधन में बंधे रहने की चाह थी, किसी से रिश्ता तोड़ा नही था, निभा रही थी किसी तरह खुद से लड़कर, नाराजगी भी जायज था उसका और इस बार चिठ्ठी न भेजना भी सही था, क्योकि शायद उसकी चिट्ठियां मायके पहुंचकर अंगीठी में जल रहे कोयले को सुलगाने के काम आती होगी या फिर बत्ती से आग ले जाकर चूल्हे की लड़कियों तक आग को संचारित करने का जरिया बन जाती होगी, या किसी डायरी में कैद होती होगी या बच्चे जहाज या नाव बनाकर खेलते होंगे। क्योकि कोई पढ़ता तो उनके मोहब्बत से बुने हुए शब्दो का तिरस्कार नही करता।

मैं इन सब बातों से अपने भीगे हुए अंतर्मन को भावनाओ के बहाव से बाहर लाते हुए एक गलती और कर बैठा- "तो चुटकी, तू किसे बांधेगी राखी कल?" दुखते नब्ज़ पर हाथ रखते हुए एक और सवाल जो चाची के चेहरे पर उदासी ले आई, और इस बार मुस्करा रही चुटकी का चेहरा भी लटक सा गया।

"मेरे पास कोई भाई ही नही है।" बड़ी मासूमियत से चुटकी बोली।

मैं फिर से सहम गया और अपने ही किये सवाल को मन ही मन गलत सवाल बताते हुए थोड़ी जोर से बोला- "क्यों नही है, मैं हूँ ना। मैं तेरा बड़ा भाई ही तो हूँ, अभी मैंने बहुत सारे भाइयों को उनके बहन का पैगाम देना है, लेकिन कल मैं आऊँगा राखी बंधवाने, बांधेगी ना मुझे ?"

लड़की के चेहरे में तो खुशी के भाव नजर आए जिसमे उसने बिना कहे हाँ बोल दिया था, लेकिन चाची अभी खुश नही थी, क्योकि वो जानती थी कि मैं बस चुटकी को खुश करने के लिए बोल रहा हूँ। वो जानती थी अब मैं महीने बाद ही नजर आऊंगा। चाची ने लोटा और गिलास उठाया और दीवार के दूसरे कोने पर जाकर उसे राख और मिट्टी से पोतते हुए मांजने लगी।

"ठीक है चाची, अभी मैं चलता हूँ।" इतना कहकर मैंने नीचे दीवार के पास रखी साइकिल उठाई और चल पड़ा फिर किसी बहन के आंगन की तरफ। पूरे दिन में आठ दस चिट्ठियां बांटी और शाम को दो तीन चिट्ठियों का पता पूछते हुए मैं निकल पड़ा एक दूसरे गांव की तरफ। मैं दूर जा रहा था इस गाँव से लेकिन मेरे कान में बार बार एक ही शब्द गूंज रहे थे कभी चाची का कहना की उसके भाई को हर मौके पर पत्र भेजे, उसने दो तीन का जवाब दिया, कभी उस चिठ्ठी में लिखी बात याद आ रही थी कि चाची का एक लड़का था जो गुजर गया था फिर बड़ी मुश्किल से चुटकी हुई। और फिर चुटकी की आवाज गूंज उठती की उसका कोई भाई नही है। अब मन मे एक लहर सी उठने लगी थी, क्योकि बैग में अभी तीन चिठ्ठिया थी जो दूसरे गांव ले जानी थी और अगर वहाँ चला गया तो कल सुबह वहां के पोस्टऑफिस से दोबारा मिल जाएंगे बहुत सारे खत, और आज अपनी बहन से किया वादा मैं पूरा नही कर पाऊँगा।

 मैं गाँव के एक छोर पर जाकर साइकिल को स्टैंड टूटा होने की वजह से जमीन पर धीरे से गिराकर खुद भी बैठ गया और याद करने लगा अपना बचपन…. हम्म मेरा अपना जब मैं भी बहनों के साथ मस्तियाँ करता रहता था, लड़ता झगड़ता लेकिन उनसे बात क़ये बिना रह नही पाता था, धीरे धीरे सबकी शादियां हुई और मैं भी घर से दूर आ गया नौकरी के लिए। डाकिया होकर भी कभी उन्हें चिठ्ठी नही भेज पाया। ना ही कभी उनका पता ढूंढने की कोशिश की, बस मुग्ध रहा दुसरो की जिंदगी में खुशियां बांटने में, एक दूसरे से दूर रह रहे लोगो को आपस मे बात करवाने में…… इस बार तो मुमकिन नही लेकिन अगली बार से जरूर मैं घर से खत भेजूँगा, हर एक बहन के नाम से….हां इस बार खुद जाऊंगा अपनी नई बहन के घर, उसके लिए कुछ किताबें और एक बस्ता लेकर…. पहले देख तो लूँ कितने पैसे है मेरे पास।


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