मां
मां
गाँवों में स्वच्छता के अभियान को लेकर कैंप लगना था। बस से उतर कर हमलोग गाँव की ओर बढ़ रहे थे कि खेत में धान रोपती महिलाओं के समूह पर हमारी नज़र पड़ी। हम लोग उनकी ओर बढ़ ही रहे थे कि लगभग दो-तीन वर्षीय अर्धनग्न हालत में एक बालक उन औरतों की ओर "माँ" कह कर बढ़ता दिखा।बालक को गोद में उठा कर एक औरत ने अपनी खोजी नज़रें चारों ओर दौड़ाई और सतर्क निगाहों ने जल्दी ही एक पतंग उड़ाते बालक को
झपट्टा मार कर पकड़ लिया। तीन-चार झापड़ उसको रसीद करते हुए कहा, "का रे रमेस! बहुत सौक है पतंग उडाये का?" ई का का तोहार बाप आ के संभाली?
इस अप्रत्याशित आक्रमण से हतप्रभ रमेश ने चीखना और उसकी चीख सुन कर गोद में टंगे बालक ने उच्च स्वर में रोना शुरू कर दिया। माँ ने अब बिना सोचे समझे उस छोटे बालक को भी पुआल के ढेर पर पटकते हुए स्वयं भी चीखना शुरू किया "तुहूँ मर जाके। सारे दिन रें-रें तनिको चैन नाही"।
तभी पीछे से एक और बालिका के चीखने की आवाज़ कानों में पड़ी। मुड़ कर देखा तो एक और औरत अपनी बेटी के बाल खींचती हुई उसे प्रताड़ित कर रही थी। "का रे मुहझोंसी तोका घरे पर रह कर रोटी बनाये का कह कर आये रहे ना?" बालिका की आयु मुश्किल से 6-7 वर्ष की होगी।
मैं और मेरे साथी ,दिन रात माँ का गुणगान सुनने वाले, हैरानी से माँ का यह रूप देख रहे थे।शायद सुखी रहने और सुख बांटने और दुखी रहने और दुखी रखने में गहरा संबंध है।
