माँ के हाथ की रोटी

माँ के हाथ की रोटी

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रात के अंधेरे में मोहन दौड़ता हुआ स्टेशन पहुँचा तो सामने प्लेटफार्म पर ट्रेन रेंगने लगी थी। सामने जो भी डिब्बा मिला, उसमें वह भाग कर चढ़ गया। वह ट्रेन के डिब्बे में एक कोने में जाकर बैठ गया। उसकी आँखों में आँसू तैर रहे थे। मोहन बारह तेरह वर्षीय बालक था और सुल्तानपुर के एक छोटे से क़स्बे में अपने माता पिता और तीन छोटे भाई बहनों के साथ रहता था। उसका पिता हरीलाल शहर में फल का ठेला लगाता था। घर में हमेशा पैसों की तंगी रहती थी। हरीलाल को शराब की लत थी। वह रोज़ रात में नशे में धुत्त होकर घर लौटता था। जब उसकी पत्नी सरला उसे शराब पीने को मना करती थी और घर ख़र्च के लिये पैसे माँगती थी तो हरीलाल गाली-गलौज और मारपीट पर उतर आता था। मोहन अब बड़ा हो रहा था, जब भी उसके माता पिता के बीच झगड़ा होता तो वह अपने छोटे भाई बहनों को लेकर भीतर की कोठरी में चला जाता। उसके छोटे भाई बहन अपने पिता का रौद्र रूप देख कर सहम जाते। मोहन को इसके पिता का माँ के ऊपर हाथ उठाना बिलकुल भी पसन्द नहीं था। वह अक्सर अपनी माँ सरला को कहता कि वह क्यों रोज़ रोज़ उसके पिता से मार खाती है ? वह अपने पति हरीलाल को छोड़ कर अलग क्यों नहीं रहती, पर सरला मुस्कुरा कर चुप रह जाती। 

आज रात तो जैसे क़यामत ही आ गई थी। जब हरीलाल ठेला लेकर नशे में धुत्त लौटा तो सरला ने उससे कहा,

“ थोड़े पैसे दे दो, आटा ख़त्म हो गया है, बाज़ार से ले आऊँ तो रोटी बनाऊँ....बच्चे भूखे हैं।“

पैसे माँगते ही हरीलाल भड़क गया और ग़ुस्से में चिल्लाया “ एक दिन नहीं खायेंगे तो तेरे बच्चे मर नहीं जायेंगे...मेरे पास तुझे देने के लिये पैसा नहीं है।“

सरला तो माँ थी, वह यह कैसे बर्दाश्त करती कि उसके बच्चे भूखे सोयें। वह आगे बढ़ी और हरीलाल के कुर्ते की जेब से पैसे निकालने लगी। यह देखते ही हरीलाल के सिर पर तो ख़ून सवार हो गया। उसने सरला को धक्का देकर ज़मीन पर गिरा दिया और अपने हाथों पैरों से उसे बुरी तरह मारने लगा। 

मोहन से अब न देखा गया, वह अपने माँ को पिता के क़हर से बचाने का प्रयास करने लगा। यह देख कर हरीलाल का ग़ुस्सा और भड़क गया और उसने दो चार झापड़ मोहन को भी रसीद कर दिये और धक्का देकर घर से निकालते हुए बोला...

“ जाकर कहीं डूब मर....तू कौन होता है मेरे और मेरी घरवाली के बीच आने वाला ?”

मोहन रोते हुए घर से स्टेशन की ओर चल पड़ा। वह सोच रहा था....

“ सुना है मुम्बई बहुत बड़ा शहर है और वहाँ हर कोई अपना पेट पाल सकता है....मैं भी मुम्बई जाऊँगा....खूब मेहनत करूँगा....चार पैसे कमाऊँगा और फिर माँ को इक नर्क जैसे जीवन से बाहर निकालूँगा।“

ट्रेन में बैठे अब उसके आँसू सूख चुके थे और मुम्बई जाकर पैसे कमाने का जोश हिलोरें मार रहा था। किसी तरह टिकट कलेक्टर की नज़रों से बचते बचाते वह मुम्बई पहुँच गया था।

मुम्बई में उसे सामान से भरी गाड़ी खींचने का काम मिल गया था। वह दिन भर जी तोड़ मेहनत करता और रात में वडापाव खाकर फुटपाथ पर सो जाता। 

उसे अपनी माँ के हाथों की रोटियाँ बहुत याद आतीं, माँ कितने प्यार से उसे और उसके भाई बहनों को खिला कर ही स्वयं अपने मुँह में निवाला रखती थी।

ऐसे ही दो वर्ष बीत चले थे। अब मोहन चौदह पंद्रह वर्ष का हो चला था, उसकी मेहनत से उसके सेठ, जिनके माल की वह ढुलाई करता था, बेहद प्रसन्न थे। उन्होंने अपनी कोठी के बाहरी हिस्से में बनी कोठरी मोहन को रहने के लिये दे दी थी। मोहन कोठी के बाग़ बग़ीचे की भी देखभाल करता था।

पिछले दो सालों में कोई दिन ऐसा नहीं बीता था जब मोहन ने अपनी माँ को याद न किया हो। अब तो उसके पास रहने के लिये कोठरी भी थी। वह जल्द से जल्द सुल्तानपुर जाकर अपनी माँ और भाई बहनों को मुम्बई लाना चाहता था। वह सेठ जी से एक सप्ताह की छुट्टी लेकर सुल्तानपुर जा पहुँचा।

जब वह घर पहुँचा तो अपनी माँ को पहचान ही नहीं पाया। सरला सूख कर आधी हो चुकी थी। हरीलाल अब दिन में भी नशा करने लगा था और उसका सरला को मारना पीटना बदस्तूर ज़ारी था। उसकी सबसे छोटी बहन की बीमारी से इसलिये मृत्यु हो चुकी थी क्योंकि उसके इलाज के लिये पैसे नहीँ थे।

मोहन अपनी माँ से बोला...

“ अपना और बच्चों का सामान बाँध लो माँ....तुम सब मेरे साथ मुम्बई चल रहे हो।“

“ पर यहाँ तेरे बाबूजी को छोड़ कर हम मुम्बई कैसे चलें ?” सरला दुखी स्वर में बोली।

“ बाबूजी ने सिवाय तुम्हेँ मारने के किया ही क्या है....अब तुम्हारा बेटा कमाने लगा है माँ....और मैं तुम्हें और बच्चों को यहाँ मरने के लिये नहीं छोड़ सकता “ मोहन दृढ़ता से बोला । 

सरला को भी मोहन की बात ठीक लगी, वह पैसों के अभाव में अपनी सबसे छोटी बेटी को खो चुकी थी। उसने सामान बाँधा और अपने बच्चों के साथ मुम्बई के लिये निकल पड़ीं। हालाँकि हरीलाल ने उसे रोकने का भरसक प्रयत्न किया लेकिन सरला ने अपना निर्णय नहीं बदला। 

मोहन अपनी माँ के साथ आने से बहुत प्रसन्न था, अब उसे माँ के हाथ की रोटियाँ मिलेंगी और वह अब माँ को वे सारे सुख देने का प्रयास करेगा जिससे वह अब तक वंचित थी।सरला के जीवन में भी सुख का सूरज चमकने लगा था। 


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