लकीरें
लकीरें


"जाने क्या लिखा कर लाई है इन लकीरों में, मनहूस कहीं की ..."मामी की तेज़ आवाज़ें ,दरवाज़ों को भी चीर,आख़िर उस तक पहुँच ही रही थी। बचपन से यही सब तो सुनती आई है वो। फिर भी ...चोट हर बार और गहरी होती जाती थी। ध्यान हटाने को वह खिड़की खोल बाहर देखने लगी। पर बाहर का पसरा सन्नाटा उसे अपने अकेलेपन का और अधिक एहसास कराने लगा। आँखें डबडबा आई, दम घुटने लगा तो उसने, अपने आप को अपनी ही बाँहों मे समेट लिया।" आख़िर सही ही तो कहती है मामी, मैं हूँ ही मनहूस। पैदा होते ही माँ बाप चल बसे। उनकी तस्वीर के सहारे ही अपने होने का कुछ अस्तित्व महसूस किया है। अकेली बच्ची को मामा तरस खा अपने साथ ले आए। तब से यही हूँ,अपने दुर्भाग्य के साथ। ना प्रेम, ना नौकरी, ना कोई आत्म निर्भरता, ना कोई शादी ना ब्याह, बस यह दुर्भाग्य ही तो खुल के मिला है उसे। जिस को भी छू ले गोया पत्थर का हो जाए।अपने मन के अंधेरों को स्याही बना, उडेल देती थी वह सारा ग़ुबार काग़ज़ पर......
भरी आँखों से उसने अपनी हथेली की लकीरें देखी, आख़िर क्यों है यह ऐसी...जी मे आया की नाखूनों से नोच इन्हें मिटा दे पर.....लकीरें कभी नही मिटती ।बस मेहनत और विश्वास से कभी कभी बदल जाती है। उसका यह समझना बाक़ी था अभी ...
एक दिन "किसी " की नज़र उस पर पड़ी।" तुम इतनी
उदास व निराश क्यों रहती हो।" तो जवाब लहराया "लकीरों मे लिखा के यही लाई हूँ।" वह फिर बोला,"निराशा तो हमारे मन मे होती है, लकीरों मे नही।" सोचो, सब कुछ लेकर भी कुछ तो दिया होगा इन लकीरों ने तुम्हें। और वह सोचने लग गई.....अपनी क़लम की धार को ज़रा और पैनी कर, परोस दी अपने मन की व्यथाएँ पाठक वर्ग के आगे। लोग वाह वाह कर उठे। फिर,पहली बार सफलता ने प्यार से छुआ उसे। वह आत्म विभोर हो उठी और एक एक कर सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
और फिर एक दिन उसके कानों मे पड़े पुरूष अंहकार के शब्द "आज यह जो कुछ भी है, वह मेरी वजह से ही तो है।" यह कहते हुए उसने विवाह का हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया। वह ज़ोरदार हँसी के साथ बोली "तुम सदियों से मुझे अबला ही तो समझते आए हो "हाँ ... मानती हूँ की मुझ मे चेतना तुम ने ही भरी और तुम से मिल मैं और शक्तिशाली हो जाऊँगी पर मैं अबला नही हूँ,सबला हूँ। तुम्हारी शक्ति भी तो मैं ही हूँ। वह तिलमिला गया। अपनी लकीरें दिखा वह बोला" मेरी लकीरों से मिलकर ही तुम्हारी लकीरें कुछ मज़बूत होगी।" ऐसा है क्या ! वह चौक कर बोली। "तो यह लो और उसने अपनी एक हथेली पर दूसरी हथेली रख दी। मिल गई लकीरों से लकीरें। मेरी लकीरें अब मुझ से ही मिल कर मज़बूत होगी। वह अवाक् रह गया और वह मुस्कुरा दी। उसके साथ मुस्कुरा दी उसकी लकीरें जिनमें अब आत्मविश्वास की एक नई लकीर जो आ गई थी।