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अख़लाक़ अहमद ज़ई

Tragedy

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अख़लाक़ अहमद ज़ई

Tragedy

लालटेनगंज

लालटेनगंज

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आसपास कई चेहरे हैं लेकिन किसी पर कोई तनाव नहीं है। सिवाय अनवर और बुग्गन के। एक पर दर्द का असर है तो दूसरे पर दुख का। बुग्गन लगातार रोये जा रही है।

‘‘भइया, हम बिलकुल नाई पहिचान पाएन। तुहार आवजियय मालूम नाई कउन मेर रहा।’’

सब बैठे बुग्गन को देख रहे हैं या उसकी बातों पर रह-रहकर हंस पड़ते हैं। सफ्फू बाहर से अन्दर आया तो उसे बुग्गन की सिर्फ आवाज ही सुनायी दी। अगर आवाज नहीं आती तो उसकी तरफ पीठ किए, सिर पर पल्लू लिए बैठी माँ को फौरीतौर पर पहचानना मुश्किल था उसके लिए। सामने चारपाई पर लेटा टूटा-फूटा आदमी उसके खालू हैं। दरअसल वह उसकी भाभी के मामू हैं पर वह किस रिश्ते से खालू बुलाता है, उसे नहीं मालूम। माँ कहती है- ‘यह तुम्हारे खालू है।’ अब खालू हैं तो हैं। माँ ने बताया तो गलत और सही का सवाल ही नहीं रह जाता फिर दस-बारह साल के छोटे से दिमाग में बड़ी-बड़ी बातें भरकर करेगा भी क्या?

उसने देखा- खालू के सिर पर पट्टी बंधी हुई है। माथे पर एक तरफ गुलम्मा निकला हुआ है। हाथ और पैर सूजे हुए हैं। जगह-जगह नीले निशान झलक आए हैं। नरगिस खाला चारपाई पर पैतियाने बैठी खालू के पैर में तेल मल रही हैं। खालू रूक-रूककर कुत्ते के पिल्ले की तरह पूं-पूं कर उठते हैं। माँ चारपाई से लगभग सटकर नीचे फर्श पर बैठी खालू का एक हाथ पकड़े हुए हैं। आसपास कई औरतें बैठी हैं, कुछ तो घर की ही हैं और कुछ शायद खालू की मिजाज़-पुरशी के लिए आयी हैं।

‘‘सुअरचोदी फंसाये के चली गयी।’’

बुग्गन बोली तो नरगिस मुँह में पल्लू लगा कर हंस पड़ी फिर तो आस-पास बैठी औरतों के भी हंसी का फौव्वारा फूट पड़ा। अनवर भी लेटे-लेटे दर्द भरी आवाज में हँस दिया सफ्फू थोड़ी देर खड़ा रहा फिर बाहर निकल आया। कल रात भी उसके घर में कुछ खुसर-फुसर जैसी गहमा-गहमी थी। बाहर के लोगों में भी कुछ फुसफुसाहट, फिर कभी-कभी हंसी के गुब्बारे फूटते सुना-देखा था। दरअसल उसे छुई-छुआन खेलने की जल्दी थी। अनूप, सुरेश, रफीक, मुन्नू उसका इन्तजार कर रहे थे इसलिए उसे इन बातों पर कान देने का ख्याल ही नहीं आया। अब जबकि खालू को टूटा-फूटा और माँ को रोते देखकर आया है तो मन बेचैन हो रहा है। रोती माँ से कुछ पूछने की हिम्मत हुई नहीं, भाभी से ही चल के पूछा जाय- उसने सोचा। उसने पहले कदम तेज की फिर दौड़ लगा दी। घर की सीढ़ियां भी वह दौड़ते हुए ही चढ़ा।

‘‘भाभी-भाभी, अम्मा काहे रोवत हीं?’’

उसकी भाभी डिब्बे में रखे चावल को कटोरे से माप-माप कर निकाल रही थीं। पहले तो उन्होंने कोई खास तवज्जुह नहीं दी उसके सवाल पर। शायद चावल की कटोरी की गिनती भूल जाने के डर से। चावल निकाल चुकने के बाद डिब्बा बंद करके रखते-रखते बताया- ‘‘कल रतियम दुसरेक धोखेम तुहरे खालू कहियां चइलै-चइला मारिन हैं। यहिस रोवत होईहैं। ’’

सफ्फू सुम गया। उसे मालूम है कि इस घर में अक्सर ऐसी उठा-पटक होती ही रहती है। जो भी यहां नया चेहरा आता है वह हाथ भर के दस्पने से मार खाकर ही जाता है। आज चइला चल गया, यह कुछ हैरान करने वाली बात थी। माँ ही बता रही थीं कि मुंदारा से मिलने आते हैं सब लउने-छउने। ...उसे मालूम है- यह वही मुंदारा है जो इस घर में पहले रहा करती थी। बेचारी वह तो बहुत सीधी थी। उससे बहुत प्यार करती थी।

उसी के चाचा, मामा, खालू, भय्या होंयगे जिन्हें मालूम नहीं होयगा कि वह अब कहीं दूसरी जगह जा चुकी है। उसने कई बार सोचा- माँ को बोले कि मारने से अच्छा है वह मुंदारा का पता बता दें या कह दें कि वह यहां अब नहीं रहती लेकिन फिर सोचकर चुप हो जाता कि परदेदार औरतों के घर में बिना आवाज दिए गैर मर्द का घुसना भी तो गुनाह है।

इसी बात को लेकर उसने मोहल्ले में भी कई बार हंगामा होते देखा है कि कोई आदमी बिना आवाज दिए छत पर चढ़ गया। अक्सर बरसात आने से पहले घरों की छतें मरम्मत करने से पहले या नया छप्पर-खपरैल डालने से पहले या नया घर बनाने वाले मजदूर आधी सीढ़ी चढ़कर आवाज लगाते थे- ‘परदे वाली परदम होई जाओ,कोठप चढै जाइत है।’ और कई-कई बार जोर-जोर से चिल्लाते थे फिर ऊपर चढ़ते थे। इतने एहतियात के बावजूद कभी-कभी कोई भूले-भटके बिना आवाज दिए छत पर चढ़ जाता और हंगामा बरपा हो जाता।

एक दिन एक लम्बा-तडंग्गा आदमी सिर पर गमछा लपेटे, कंधे पर अपने ही साईज की लाठी रखे, लाठी में एक पोटली टांगे ऊपर चढ़ आया। सफ्फू आगे वाले कमरे में चारपाई पर अधलेटा स्कूल का काम पूरा कर रहा था। नजर उठी तो क्या देखता है- एक आदमी सफेद कुर्ता-धोती में खड़ा दूसरे कमरे में झांक रहा है। गठरी और लाठी वह पहले ही रख चुका था।

सफ्फू ने बुग्गन को आवाज दी- ‘‘अम्मा, देखव यह आये हैं।’’

बुग्गन दूसरे कमरे में बैठी थी। देखते ही तेवरियां चढ़ गयीं। अन्दर का शेर फाड़ खाने के लिए उकसाने लगा। पूछा-

‘‘कइसै?’’

‘‘मिलय आए हन।’’ उसने बड़ी मुलायमियत से कहा।

‘‘दहिजरिक पुतऊ। हियां तुहार अम्मा रहत हीं जऊन मिलय आए हौ?’’

बुग्गन दनदनाकर कमरे से बाहर निकली और चूल्हे के पास रखा दस्पना उठाकर दे-दनादन, दे-दनादन शुरू हो गयी। वह आदमी हक्का-बक्का। पहले तो शायद उसकी समझ में ही कुछ नहीं आया फिर उसने गठरी और लाठी झपटकर उठायी और एक-दो-तीन। पता ही नहीं चला, किधर गया।

बुग्गन माथे पर हथेली मार कर बैठ गयी।

‘‘झाडू फिरै अइसन घर पा।’’

सफ्फू खामोश बैठा, चुपचाप देखता रहा। समझ में ही नहीं आता उसे कि ये लोग क्यों आते हैं। क्यों चुपचाप मार खाते हैं और भाग जाते हैं लेकिन किसी से पूछने की हिम्मत भी नहीं पड़ती।

‘‘दुइ साल घर बंद रख कै केरावा भरे हन तब्भौ ऊ छुतहेर के परछाहीं से अभी तक पीछा नाई छूटा।’’

वैसे तो सत्तर के दशक का यह बलरामपुर एक साफ-सुथरा तहसील है। तुलसीपुर, पचपेड़वा और उसके तमाम गांव-गिरांव वाले कोर्ट-कचेहरी के लिए बलरामपुुर आते तो लगे हाथों रिश्ते-नातेदारों के यहां पहुनही भी करते जाते और खरीदारी भी। फिर सांझ ढलते सब अपने-अपने रास्ते। इसीलिए कोर्ट-कचेहरी के साथ-साथ बाजारों में भी दिन भर धूम-धड़ाका रहता।

रात होते ही दुकानों में बिजली और घरों में चिराग या लालटेन जल उठते। वैसे तो मुनसीपालटी ने सड़क के किनारे-किनारे खम्भे गाड़ रखे हैं और उन पर बल्ब भी टंगवा दिए हैं लेकिन गलियों में अभी भी बडेÞ-बड़े लालटेन ही जलते हैं। रोज अंधेरा होने से पहले एक आदमी छोटी-सी सीढ़ी और मिट्टी के तेल का पीपा लेकर आता है। सीढ़ी पर चढ़कर तेल डालता और लालटेन जलाता चला जाता है। बुझाने की जरूरत नहीं पड़ती। तेल खत्म होते ही सब खुद-ब-खुद बुझ जाते। कुछ ही मकानों में बिजली जलती या फिर जिनकी दुकान मकान के साथ जुडे हैं, उनके वहाँ बिजली जगमगाती।

सफ्फू के घर में चिराग या फिर तेज हवाओं, आंधी-तूफान के वक्त लालटेन जलाया जाता। सीढ़ी के ऊपरी दरवाजे पर एक ठोके गए कील पर चिराग लटका दिया जाता ताकि सीढ़ी पर उजाला हो जाय और उतरने-चढ़ने में परेशानी न हो। यह उस बखत होता था जब कोई मेहमान आता या कोई भारी सामान उतारना-चढ़ाना होता था। वरना अंधेरे से ही काम चल जाता। सभी अंधेरे में सीढ़ी चढ़ने-उतरने के आदी हो गये थे।

उस दिन ऐसा कोई खास मौका नहीं था इसलिए सफ्फू अंधेरे में उतर रहा था। ऊपर बड़े भाई इश्तियाक काम पर से आए ही थे और खाना खा रहे थे। अचानक, एक आदमी सीढ़ी पर चढ़ा फिर छोटी काली आकृति देखकर ठिठक गया।

‘‘खेलै जात हौ?’’

सफ्फू को लगा मंझले भय्या आये हैं खाना खाने। आवाज भी उन्हीं के जैसी थी।

‘‘हां।’’

‘‘अच्छा जाओ।’’

और वह आदमी ऊपर जाकर सीढ़ी के दरवाजे से सटकर खड़ा हो गया। अचानक बड़े भय्या की दहाड़ सुनायी दी।

‘‘तू कऊन है?’’

‘‘हम सुरजू प्रसाद सिंह के हुआं से आए हन।’’

फिर वही हाथ भर का दस्पना चटकने लगा। वह आदमी वहीं का वहीं पत्थर का हो गया। न तो दस्पने की मार से बचने की कोशिश कर रहा था और न ही जगह से हिल रहा था। बड़े भय्या ने उसे धक्के-दे-देकर नीचे उतारा। सफ्फू वहीं सीढ़ी पर खड़ा सब देखता रहा।

उस आदमी के जाने के बाद सभी ने उसकी बतकही पर ध्यान दिया- ‘सुरजू प्रसाद सिंह के हुआं से...।’ सुरजू प्रसाद सिंह के नाम से ही सभी की सिटी-पिटी गुम हो गयी। इतने बड़े ठाकुर परिवार के आदमी को मारना कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है। आज जो कुछ भी हुआ वह अच्छा नहीं हुआ। कई लोगों ने शंका जतायी- कुछ भी हो सकता है। कत्ल भी हो सकता है। उसे समझाया भी जा सकता था कि भय्या, यहां अब शरीफ लोग रहते हैं। बड़ी माथा-पच्ची के बाद तय किया गया कि जैसे सरकारी महकमे के अफसरों के दरवाजे पर लिखा रहता है- ‘बिना आज्ञा के अन्दर आना मना है।’ या अंग्रेजी में...। लेकिन अंग्रेजी से अच्छा है कि अपनी भाषा में लिखा जाय ताकि भकुओं की समझ में भी आसानी से आ जाय।

सुबह होते ही इश्तियाक ने सफ्फू के हाथ में खड़िया मट्टी पकड़ायी और सीढ़ी के बाहरी दरवाजे पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखाया- ‘यहां परदेदार औरतें रहती हैं।’ फिर भी दिल को सुकून नहीं। कई दिन-ओ-रात दहशत में गुजरे। अब रात के अंधेरे में कौन दरवाजे पर लिखी इबारत पढ़ने की जहमत उठाता। फिर हर आने वाला मेहमान सफ्फू के जितना पढ़ा-लिखा हो, यह तो जरूरी नहीं। गरज़ कि आने वाले मेहमानों का पिट-पिटाकर जाने का सिलसिला बदस्तूर चलता रहा। उधर गैर मर्द को देखते ही बुग्गन का गुस्सा सीधा फुंफकार मार जाता जैसे उसकी या उसकी बहू की आबरू पर हमला हो गया हो।

सफ्फू को लगा कि खालू ने भी दरवाजे पर लिखी इबारत पढ़ी नहीं होगी इसीलिए उनकी भी कुटम्मस हो गयी। वह फिर भागा खालू के घर की तरफ। उसे खालू का पिटना नहीं, माँ का रोना साल रहा था।

बुग्गन अब अनवर की चारपाई छोड़, थोड़ा खिसक कर बैठी हैं। बाकी औरतें बुग्गन की तरफ मुंह करके बैठी हैं। सफ्फू अपनी मां के पैर का घुटना पकड़ सटकर बैठ गया।

‘‘भइयक आवाज पहिचानै नाई पाएन। अंधेरे में कुछ सुझाइन नाई देत रहा।’’ बुग्गन कह रही थी-‘‘हम पूछेन- के होय? तब भइया निचवैस बोले-‘मनई। हम पूछेन- का काम है? कहै लागे- मिलय आए हन।’ हम समझेन, वही कुकरमुत्तवे होइहैं अऊर...।’’

सब औरतें हंस पड़ी बुग्गन भी हंसने लगी।

‘‘हरामजादी, अच्छे-खासे घर कहियां लालटेनगंज बनाए गयी।’’

सफ्फू के दिमाग पर ‘ठकाक’ से लगा। ‘लालटेनगंज।।’ उसे याद आया-कुछ ही दिन पहले वह अब्बा के साथ तुलसीपुर देवीपाटन का मेला देखने गया था। मेला देखने के लिए उसमें जबरदस्त उत्साह था। बस में सफर करते लग रहा था- मानो एरोपिलेन में उड़ रहा है। बस से उतरते ही लगा-मानो किसी दूसरी दुनियां में आ गया है। हर तरफ दुकानें, मिठाईयां, खाने-पीने के सामान,आदमी-औरतों-बच्चों की रेलमपेल। नौटंकी, सर्कस, सिनेमा का फोटू ही देख-देख कर उसका मन फुदक-फुदक जाता था। सिकरीन वाली नहीं, दूध वाली कुल्फी, जिलेबी, रसगुल्ला, पूरी-तरकारी अऊर न जाने क्या-क्या अब्बा ने खिलाया था उसे।

रात होते ही देवी पाटन जगमगा उठा था। हर तरफ धूम-धड़ाका। उसके अब्बा सर्कस दिखाकर निकले फिर सिनेमा दिखाने ले जा रहे थे कि एक आदमी मिल गया जो शायद अब्बा का दोस्त था। दुआ-सलाम के बाद अब्बा हंसकर बोले-

‘‘कऊन नउटंकी वाली कै मुरीद हौ? ’’

‘‘नउटंकी देखना छोड़ दिहेन।’’

‘‘काहे?’’ अब्बा चौंके थे। वह हंस पड़ा था।

‘‘रोज-रोज पइसा खरचना पड़त रहा तब दुई-चार मिला मिल के सोचेन कि खलिहानेक तरफ से टिनियक बाड़ के नीचे गड़हा खोद के अन्दर घुस के नइना छउकेंगे। दुइ-चार दिन तौ खूब मजा लिहेन। एक दिन का भवा की एक जइसै गड़ाहवम मुड़िया घुसाइस,ओहकै खोपड़िया कीचड़ मां घुस गवा। तुरन्तै ऊ उल्टी चालू कर दिहिस। अंधेरम कुछ सुझइबै नाई करत रहा। गंधान तब पता चला- बहिनचोद मुनीजरवा गड़ाहवम गू भरवाय दिहिस है।’’

अब्बा जोर से हंसे थे। वह भी हंसा था।

‘‘वही दिन से नउटंकिक तिलाख दई दिहेन।’’

‘‘अब केहका बरबाद करैम लागा हौ?’’

‘‘छम्मक छल्लो मार्किट।’’

‘‘ई कहां है?’’ अब्बा ने पूछा।

‘‘घचोंधर कै घचोधरै रहि गएव। मेहरारुक लेंहगम घुसैक अलावा अऊर कुछ नाहीं जान पाएव अब तक।’’ उसके उलाहना से अब्बा खिसिया गये थे।

‘‘चलौ आज तुहुंक दरसन कराए देई। एक से एक करारा माल है लालटेनगंज मां। एकदम टिकोरा।’’अजनबी ने अब्बा का हाथ पकड़ते हुए कहा और दोनों उसके हाथ के ख्ािंचाव की तरफ बढ़ चले। मेले को पीछे छोड़, रेलवे लाईन की तरफ सभी बढ़े। उसने देखा- रेलवे लाईन के उस तरफ पूरी एक भीड़ रात के अंधेरे में गुम होती चली जा रही थी। उधर छोटे-छोटे तमाम तम्बू लगे थे और उनमें धुंधले-धुंधले से चिराग टिमटिमा रहे थे। कहीं-कहीं, दूर-दूर बांस की लग्गी में बल्ब टंगे जल रहे थे।

अब्बा के दोस्त ने टोका था।

‘‘एहका कहां लिहे जात हौ?’’

अब्बा ने उसकी तरफ देखा था फिर वापस आकर मेले में एक दुकान पर उसे बिठाकर चले गये थे।

सफ्फू उचककर बतिया रही अपनी मां के सामने आ बैठा और दोनों हाथों से अपनी मां का चेहरा अपनी तरफ घुमाने की कोशिश करता हुआ पूछा-

‘‘अम्मा-अम्मा, वही लालटेनगंज जहां...?’’

सवाल पूरा होने से पहले ही बुग्गन ने दोनों हाथों से उसके डखौरे पर जोर से थपकी दी। वह पीछे की तरफ लुढ़क गया।

‘‘नासपीटे, तुहरेन कारन ई सब भवा है। का जरूरत रही जलऊनी लकड़ी सीढ़ी के पास रखैक?...तुहरे अब्बा नामव ना जानत होइहैं अऊर तू आए हौ लालटेनगंज कै पता पूछै।’’

कमरे में फिर हंसी गूंज गयी। पर सफ्फू उतान, पीछे टिहुने के बल अधलेटा सिर्फ टुकुर-टुकुर देखता रहा।

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