Sri Sri Mishra

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क्या खोया क्या पाया

क्या खोया क्या पाया

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चाक पर जब धर घुमाई...

कुम्हार की हाथों की नाचती कलाई..

जादूगरी उँगलियों की तरकीब ने मुझको गढ़ दिया

नाम मुझको है मिला.. मैं हूँ माटी का दीया ..

रूप मेरे अनगिनत असंख्य हजार..

नवेली दुल्हन के हाथों की शोभा..

मैं शगुन माटी का दीया ..

हर घर के प्रांगण के मंदिर में अपार पावन श्रद्धा का

प्रज्वलित मैं माटी का दीया ..

सबके आशियानों के मुंडेरों पर बैठा...

उम्मीदों, आशाओं और ज्ञान का

मैं टिमटिमाता माटी का दीया .....

हर अंधेरों को रोशनी से भर दूं.....

तेल पीकर रूई की बाती से बना..

मैं जगमगाता मुस्कुराता माटी का दीया ..


है सफर मेरा झोपड़ी से महलों तक.....

गली से नुक्कड़ व चौबारों तक.......

बिगड़ते कामों को बनने में जलकर संभव किया.....

क्या बराबरी मेरी उन जलते बुझते.......

मुंह चिढ़ाते विदेशी बल्बों से......

मैं तो सुख-दुख जन्म से श्मशान तक......

हर कोने जहाँ को रोशन किया....

मेरा वजूद इस भारत की माटी से..


श्री राम के वनवास के वापसी से..

असंख्य कतारों में जलकर अयोध्या नगरी को..

खुशियों से जगमगा कर युगों युगों से जग, जहाँ को रोशन किया..

मैं हूँ जलता हुआ ..भारत की माटी का दीया ..

अस्तित्व मेरा है मिट्टी में मिल जाना..

जलने के बाद फिर से.. बनकर हूँ तैयार जलने के लिए..

                    "मैं माटी का दीया "



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