जन्माष्टमी
जन्माष्टमी
रमाबाई घर-घर बर्तन मांँजने का काम करती थी..।लेकिन उसकी ईश्वर में सच्ची आस्था थी। वह हर घटित घटना को अपने पूर्व जन्म के किए गए कर्मों का फल मानती थी और जीवन में सुखद पल आने पर वह अपने कड़ी मेहनत और अच्छे कर्मों का शुभ फल मानती थी..।उसका ऐसा मानना था कि हम अपने कर्मों के फल के खुद ही जिम्मेदार हैं.....। वह अपने हर कार्य को पूरी निष्ठा से करती थी.. मजाल है कोई व्रत छूट जाए..। कई बार तो वह निर्जल व्रत रहकर भी सभी के घरों के कामों को निपटाती थी..। वह भले ही नीची जाति की थी। लेकिन अपने व्रत वाले दिन किसी भी घर में पानी नहीं पीती थी।वह लौटकर अपने घर में ही व्रत खोल कर अपने हाथों से फलाहार बनाकर खाती थी।
वही हाल आज भी था।आज जन्माष्टमी के दिन उसने बड़े ही श्रद्धा भाव से व्रत रखा था.. और वह घर घर जाकर कृष्ण का ही बखान करती और फिर अपने काम में जुट जाती..। लेकिन वह उन बड़े बड़े घरों में कृष्ण की झांँकियों को देखकर हैरान रहती और उन झांँकियों की अद्भुत सजावट में खो जाती। अपने मन ही मन सोचती..
काश !! मेरे पास भी इतना पैसा होता तो मैं अपने कलूटे का दरबार सजाती..। वह बचपन से ही कृष्ण को कलूटा ही कहती आई थी और ना जाने क्यों वह कृष्ण उसके इस शब्द से बहुत ही प्रसन्न रहते थे। उसकी हर मांँगी मुराद मानो कृष्ण जी बैठे रहते पूरा करने को.. क्योंकि उसके इस शब्द में बेहद मिठास बेहद श्रद्धा भाव झलकता था..।
वह सबसे आखिरी में सेठ जी के घर बर्तन मांँजने जाती थी और उसके मन में आज बड़ी ही उत्सुकता थी कि आज उनके घर में बहुत ही सुंदर कृष्ण की झांँकी सजी हुई होगी और वह अपने कृष्ण को आंँख भर देख सकेगी इसके पश्चात ही घर उनके घर के बर्तन माँजेगी..।
उसने जैसे ही सेठ जी के घर में कदम रखा देखा सामने आज सेठानी ने बहुत सुंदर दरबार कृष्ण का सजाया है। ऊँचे सिंहासन पर कृष्ण जी बैठे हैं और कई इलेक्ट्रिक लाइटों से दरबार जगमगा रहा है। उसे देखते ही रमाबाई के मुंँह से निकल पड़ा..।"अरे!!मेरे कलूटे आज तो बड़े ऊंँचे सिंहासन पर बैठे हो..!!"
यह सुनते ही सेठानी रमाबाई से बोली.." क्या बात है!! रमा बाई किससे बड़बड़ा रही हो..??"
यह सुनते ही रमाबाई मुस्कुरा कर बोली..
" कुछ नहीं बीवी जी.. मैं तो इस कान्हा की बात कर रही हूंँ और आपको पता है.. बीबी जी आज के दिन बारिश जरूर होती है!! यह सुनकर सेठानी है बोली अब तो रात के नौ बज गए हैं। अभी तक तो हुई नहीं। यह सुनकर रमाबाई बोली.. ऐसा हो नहीं सकता। मेरे कलूटे ने अगर पानी ना बरसाया.. अगर इसने पानी की एक बूंँद न धरती पर बरसाई..। तो आज मैं कुछ नहीं खाऊंँगी..।"
यह सुनकर सेठानी बोली..
"ऐसा क्यों बोलती है रमाबाई ..पानी ना बरसा तो तू कुछ खाएगी ही नहीं!! सारा दिन सबके घरों में बर्तन मांँजती है ..तू तो भूखी मर जाएगी एक दिन।"
यह सुनकर रमाबाई बोली.." यह तो बीवी जी मेरे ही कर्मों के फल है। जो मुझे इस नीची जाति में जन्म मिला। लेकिन उस पर भी मेरे कलूटे कान्हा की कृपा तो देखिए!!!आप जैसे अच्छे-अच्छे मालिक मिल गए और मेरा गुजारा चल रहा है..।"
यह कहती हुई रमाबाई सेठानी के घर का काम खत्म करके अपने घर की ओर चल पड़ी..।आते ही उसने अपने बक्से से कृष्ण की लकड़ी की मूर्ति निकाली। जिस पर कृष्ण के आंँख नाक लगभग सारे निशान मिट चुके थे। केवल देखने में ही लगता था कि यह कोई लकड़ी की मूर्ति है ।उसने बड़े ही श्रद्धा भाव से अपने आंँचल से घर के कोने की ज़मीन को साफ किया और उस पर लाल कपड़ा बिछाकर अपने कृष्ण कलूटे को बिठा दिया..।और अपनी अवधी भाषा में कृष्ण से बातें करना शुरू कर दिया..। कटोरी में दूध चीनी का प्रसाद लेकर कृष्ण को झूला कर खिलाने लगी और यह कहने लगी..।
"पानी नहीं बरसायव यक बूंँद..कलुटऊ .. सगरव दिन भूखन मा डारेव..।"
रमाबाई के मुंँह से यह शब्द निकलते ही.... अचानक बिजली की कड़क के साथ झमाझम बारिश शुरू हो गई.. और रमाबाई की आंँगन की मिट्टी की सोंधी महक से पूरा घर महकने लगा....। यह देखकर रमाबाई की आंँखों से आंँसू आ गए और उसने अपने कृष्ण की मूर्ति को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया.....। .. और बार-बार वह अपने कृष्ण को मनाने लगी.....। कलूटा तू तौ केवल हमार है मैं अब तौसे कौनो शिकायत ना करूंँगी....।
सच ही तो है......
आज भी ईश्वर जर्रे जर्रे में विराजमान है । सच्ची श्रद्धा और अखंड भाव जहांँ होता है। ईश्वर अपने होने वहीं पर का सबूत दे देता है..। यह एक सच्ची घटना है।जिसको मैंने अपनी लेखनी द्वारा समेटने की कोशिश की है..।