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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama Inspirational

5  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama Inspirational

कुछ पल कभी कभी

कुछ पल कभी कभी

5 mins
680

मैं, चाँदनी, मौजपुर मेट्रो स्टेशन पर उतरी थी, तब रात्रि के 9 बजे थे। ज्यादा रात नहीं थी, घबराने जैसी भी कोई बात नहीं थी। लेकिन मैं 15 दिन पूर्व ही जॉब करने आगरा से आई थी, दिल्ली शहर की ज्यादा जानकारी मुझे नहीं थी। और ऐसे में, एन आर सी एवं सी ए ए का कारण हुए डिस्टर्बेंस से इस इलाके का आज नेट भी बंद किया गया था।

मुझे कोई एक कि मी ही, पैदल चल के अपनी फ्रेंड के फ्लैट तक पहुँचना था, जहाँ मैं अस्थाई रूप से अपने स्वयं का प्रबंध होने तक रह रही थी।

मैं, मेट्रो स्टेशन के बाहर आई थी। मुझे हर शख्स का अपने तरफ देखना संदेहास्पद लग रहा था। मैंने पर्स से अपना हिजाब निकाल सिर पर डाल लिया था, जिससे ज्यादातर मुँह ढक लिया था। 

फिर मैंने अपने गंतव्य की तरफ कदम बढ़ाये थे। मेरे चलने से ही मेरा घबराया हुआ होना ज़ाहिर हो रहा था। तभी मुझे दो व्यक्ति अपनी तरफ गौर करते दिखे थे। भय आधिक्य में, मैंने कदम तेज किये थे, और जहाँ नहीं जाना था, उनसे पीछा छुड़ाने के चक्कर में मैं उस तरफ मुड़ गई थी।

कुछ देर में, पीछे जब वे दोनों मुझे नहीं दिखे तो मेरी जान में जान आई थी। लेकिन इस सारे सिलसिले में अब मुझे रास्ता समझ नहीं आ रहा था।नेट बंद होने से गूगल मैप की मदद भी नहीं मिल सकती थी।

एकबारगी ख्याल आया कि फ्रेंड को कॉल करूँ, लेकिन उसे परेशान न करने का विचार आया और मैं खुद ही रास्ता समझने का प्रयास करते हुए चलने लगी थी।

तब मुझे लगा, किसी ने मुझसे कुछ कहा है। मैंने पीछे पलट के देखा था। दो लोग मुझसे कुछ फासले पर चल रहे थे। मुझे लगा वे शायद वही दो हैं। जरूरत नहीं थी, तब भी भयवश मैंने ज़ेबरा क्रॉस किया था। और ट्रैफिक के बीच छिपते हुए एक थोड़े कम प्रकाशित स्थल पर खड़े होकर पलट कर देखा था। मुझे फिर लगा था कि वे दो शख्स जैसे मुझे ही तलाश रहे हैं। घबराहट में मैं पास खड़ी कार के साइड में आई थी। डोर चेक किया तो किस्मत से वह लॉक नहीं था। जल्दबाजी में उसे खोलकर मैं कार में आ गई थी। मैंने सभी डोर चेक किये बाकी लॉक थे, इस डोर को भी मैंने लॉक कर लिया था।

यहाँ से मैं बाहर देख सकती थी। लेकिन बाहर वाला कोई मुझे आसानी से नहीं देख सकता था। पीछा करते लग रहे वे दो व्यक्ति आपस में बात करते इधर उधर देखते कार के पास आये थे, मैं पिछली सीट पर दुबक गई थी। मगर वे दोनों कार में झाँके बिना आगे बढ़ गए थे।

मेरी जान में जान आई ही थी कि तभी कार के सामने का डोर खुलने की आवाज सुनाई पड़ी थी। मैंने सिर थोड़ा घुमा के देखा तो, कोई सामने की सीट पर बैठ रहा था। मेरे मन में आया कि पुलिस हेल्प लाइन न. पर कॉल करूँ, लेकिन इस व्यक्ति ने कुछ किया ही नहीं तो शिकायत क्या करूँगी, यह सोच ही रही थी कि कार स्टार्ट हुई थी। कार अब चलने लगी थी। यह व्यक्ति शायद कार मालिक था, जिसे ज्ञात ही नहीं था कि मैं कार में पिछली सीट पर छिपी हुई हूँ।

मैंने साहस बटोरा था फिर कहा था - सर, सुनिए !

व्यक्ति एक दम चौंक गया था। कार भी कुछ असंतुलित हुई थी। तब तक उसे कुछ समझ आया था। उसने कार साइड कर रोकी थी। मुझ पर प्रश्नात्मक निगाह की थी। मैंने कहा - क्षमा कीजिये, फिर सारी बात कह डाली थी।

वह 35 के लगभग उम्र का व्यक्ति था। उस पर विश्वास करना मेरी लाचारी थी। उसने विचारपूर्वक मुद्रा में ज्यादा प्रश्न किये बिना मुझसे, मेरी फ्रेंड का एड्रेस पूछा था। रास्ते में वह शाँत ही रहा था, और मेरी फ्रेंड की सोसाइटी के गेट पर कार रोक मुझे उतारा था। मैं उसकी इस तरह की रुखाई से, बमुश्किल शुक्रिया कह सकी थी। उसने इस पर अपना सिर हिलाया था, 'कोई बात नहीं', कह कर कार आगे बढ़ा ली थी।

मैंने, फ्रैंड, राजी को फिर सब आप बीती सुनाई थी। उसने हँस कर कहा था, तुझे उन दो व्यक्तियों से ज्यादा खतरा नहीं था। तुझे इस कार वाले आदमी से ज्यादा खतरा था। जिसके समक्ष तू तश्तरी में खुद ब खुद पेश हुई थी। कार में उसके बिना प्रयास, उसके साथ अकेली थी। उसे तुझ पर किसी भी प्रकार की जबरदस्ती करने के हालात हासिल थे। मगर लगता है वह बिरले शरीफ व्यक्तियों में था, जिसका दिल, 24 वर्ष की सुंदर नवयौवना को अकेले में देख भी बदमाश नहीं हुआ था।

रहस्य की बात है, कोई इतना उदासीन कैसे हो सकता था, जो परोपकार करते हुए, तुझ जैसी खूबसूरत लड़की का नाम, मोबाइल न. तक नहीं पूछ गया था।

इस रहस्य पर से पर्दा कैसे उठे? इसका कुछ उपाय नहीं। तब मैंने याद किया, उसकी कार का न. राजी को बताया था।

राजी ने तथा मैंने, अपने फ्रेंड्स एवं ऑफिस कॉलीग्स में पूरा किस्सा बताया था। सबने उसका आभार जताने के लिए कार के न. के जरिये पुलिस की मदद से जानकारी हासिल की थी। उससे संपर्क कर वीक एन्ड पर ऑफिस रिक्रिएशन हॉल में छोटा आयोजन रखा था। वहाँ वो आया था उसका नाम साकेत था। वह सबसे पूरी मिलनसारिता से मिला था।

मैंने उद्बोधन में,  उस रात की सारी बात उपस्थित, अपने एवं राजी के कॉलीग्स एवं फ्रेंड्स के बीच बताई थी। फिर साकेत जी के प्रति आदर प्रदर्शित करते हुए उनका शुक्रिया अदा किया था। बाद में साकेत ने हम सबको ऐसे संबोध"उस रात्रि के वे पल चाँदनी के लिए खतरे के अंदेशे के थे। वही पल मेरे लिए ऐसे थे जिसे अपॉर्च्यूनयूटी कहना ठीक होगा। जीवन में कभी ही ऐसे मौके मिलते हैं, जिसमें हम खुद के सामने खुद को साबित कर सकते हैं। मुझे ख़ुशी है, मैंने इसमें कोई चूक नहीं की थी।

दरअसल अचानक अपनी कार में चाँदनी को देख और उसके भय का ब्यौरा सुन कर मेरी कल्पना में मुझे ऐसा दृश्य मेरी पत्नी सविता के साथ दिखाई पड़ा था।

फिर मेरी पत्नी को किसी मददगार के किस तरह विश्वास और सहयोग की जरूरत होती, यह मेरे विचार में आया था। मैंने चाँदनी के साथ उसी बात को निभाया था।

हम जीवन बहुत बड़ा जीते है, मगर कुछ कुछ पल ही कभी कभी ऐसे मिलते हैं, जिसमें हम अपना मनुष्य होना सार्थक करते हैं। उस दिन वे कुछ पल ऐसे ही थे। और मैं कमजोर नहीं पड़ा था, मुझे प्रसन्नता है। आप सभी ने जो आदर दिया मैं इसके लिए आभार प्रगट करता हूँ।

सामने बैठी सविता इसे मंत्र मुग्ध हो सुन रही थी, उसे अपने पति के इस दर्जे के इंसान होने को लेकर गर्व अनुभव हो रहा था। हॉल में तभी तालियों की आवाज गूँज रही थी।


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