Sudha Adesh

Tragedy

2.3  

Sudha Adesh

Tragedy

कटु सत्य

कटु सत्य

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नब्बे, सौ की रफ्तार से दौड़ती गाड़ी में बैठी सुषमा की नजर सड़क के किनारे गड़े एक बोर्ड से टकराई अनायास उसके मुँह से निकला, ‘आनंदाश्रम...कहीं यह स्वामी देवानंद का आश्रम तो नहीं है ‘ यस मैडम।’ ड्राईवर ने उसकी उत्सुकता शांत करते हुए कहा।

 "यहाँ से आश्रम कितनी दूर है..."’ सुषमा ने पुनः पूछा।

 "लगभग चौदह किलोमीटर दूर होगा। देखने लायक है। स्वामी देवानंद सिद्ध पुरूष हैं। उनके बहुत से अनुयाई हैं। दस एकड़ में फैले इस आश्रम में स्वामी देवानंद ने स्कूल, अस्पताल तथा निराश्रितों के लिये हॉस्टल भी बनवाया है।" ड्राईवर ने श्रद्धा से कहा। "मैं इसे देखना चाहूंगी।" सुषमा ने अमित की ओर मुखातिब होकर कहा।

"इस समय तो संभव नहीं है। यदि समय से बड़ौदा नहीं पहुँचे तो काम नहीं हो पायेगा। लौटते हुए देख लेना।"अमित ने अपनी फाइलों में सिर छिपाते हुए कहा। वस्तुतः अमित आफिशियल टूर पर हफ्ते भर के लिये बड़ौदा जा रहे हैं। बड़ौदा में सुषमा की बचपन की मित्र शुभांगी रहती है, उससे मिलने की चाह लिये वह भी उनके साथ चली आई।

अमित तो आदतानुसार अपनी फाइलों में खो गये। सुषमा को अपनी पड़ोसन नमिता नंदी का ख्याल आया। वह हर गुरूपूर्णिमा पर पूरे परिवार के साथ इस आश्रम में आती थीं। कभी-कभी तो महीना भर भी रह जातीं। महीने भर बच्चों की पढ़ाई छूट जाने के कारण आने के बाद उनकी परेशानी देखते ही बनती थी। उनको इधर-उधर नोट्स के लिये चक्कर लगाते देखकर सुषमा ने एक बार इस ओर इंगित किया तो नमिता ने बड़े ही सधे स्वर में उत्तर दिया था,"सुषमा, गुरू सेवा से बढ़कर कोई सेवा नहीं होती। पढ़ाई का क्या वह तो बच्चे बाद में भी कर लेंगे" एक बार नमिता अपनी अठारह वर्षीय बेटी सुनीधि को आश्रम छोड़ आई। पूछने पर सहजता बोली, "वह कहती है कि गुरू की सेवा में ही अपना जीवन व्यतीत करूँगी।" कहते हुए उनकी आँखों में एक अजीब सा संतोष उभर आया था।  सुषमा सोचती रह गई कि कैसी माँ हैं यह, किशोरावस्था....युवावस्था की ओर कदम बढ़ाती लड़की को जहाँ प्रत्येक माँ दुनिया की हर बुरी नजर से बचाकर रखना चाहती है वहीं नमिता सुनीधि को आश्रम छोड़ आई !! क्या उन्हें उसका घर नहीं बसाना ? घर नहीं बसाना चाहती तो कम से कम उसे इस लायक तो बना देती कि जरूरत पड़ने पर वह अपना पेट भर सके। दिन के कुछ पल या कुछ घंटे पूजा अर्चना में बिताना एक अलग बात है पर पूरी जिंदगी सेवा के नाम पर अर्पित कर देना शायद मनुष्य जैसे सांसारिक प्राणी के लिये उचित नहीं है। क्या काम, क्रोध, मोह, माया से कोई बच पाया है ? सेवा, आत्मा, परमात्मा उन लोगों के लिये शायद ठीक हो जो अपनी जिंदगी जी चुके हैं पर एक नासमझ बच्चे से ऐसी उम्मीद करना उसकी सोच से परे था।

महीने में एक बार नमिता के घर सत्संग होता था। भजन, कीर्तन के अलावा ध्यान और गुरूजी के प्रवचन भी ऑडियो, वीडियों कैसेट के जरिए सुनाये और दिखाये जाते थे। अमित को साधु संन्यासियों पर कोई विशेष श्रद्धा नहीं थी किन्तु उसने सुषमा को कभी किसी के लिये नहीं रोका। यही कारण था कि सुषमा अक्सर सत्संग में जाती रहती थी। पता नहीं क्या था उस माहौल में कि उसे अत्यंत सुकून मिलता था, कभी-कभी लगता था कि कुछ पल के लिये उसे तमाम चिंताओं, परेशानियों से छुट्टी मिल गई हो। अमित उसकी मनःस्थिति को समझते थे। यही कारण था कि आज भी उसके आश्रम जाने की इच्छा को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

लौटते समय आश्रम गये। मुख्य द्वार पर ही उनकी गाड़ी को रोक लिया गया तथा काफी पूछताछ के पश्चात् ही उन्हें आश्रम के अंदर जाने की अनुमति मिली । उनका मंतव्य जानकर आश्रम के अधिकारियों ने आश्रम दिखाने के लिये एक सेवक उनके साथ कर दिया। आश्रम की भव्यता देखकर वह हैरान थी। साफ-सफाई काबिले तारीफ थी। पहले सेवक उन्हें आश्रम के मुख्यकक्ष केन्द्रीय हाल में ले गया। धूपबत्ती, अगरबत्ती की खुशबू ने तन-मन को सुवासित कर दिया था। कक्ष की दीवारों पर लिखे श्लोकों और सूक्तियों को पढ़कर लगा यदि सचमुच इंसान इनको अपने व्यवहार में उतार ले तो शायद जीवन में कोई दुख ही न रहे। आखिर काम, क्रोध, कामना, मोह, माया ही तो इंसान की सबसे बड़ी कमजोरियाँ और बुराइयाँ हैं।

एक बड़े से हाल में सिंहासननुमा कुर्सी रखी थी। सेवक ने बताया कि इसी सिंहासन पर बैठकर गुरूजी प्रवचन करते हैं। जब वह नहीं होते तो टी.वी. पर भक्तों को उनके प्रवचन सुनाये जाते हैं। गुरूजी के दर्शन की इच्छा जाहिर की तो उसने नम्र स्वर में कहा,"माँजी, गुरूजी के दर्शन नसीब वालों को हीं मिलते हैं। आजकल वह लंदन में अपने दर्शन का एक कैंप चला रहे हैं। उसके पश्चात् वह अमेरिका जायेंगे। वहाँ भी उनका महीने भर का कार्यक्रम है।"

उसके पश्चात् उसने आश्रम का अस्पताल, स्कूल तथा भंडारा दिखाया। सब कुछ सुव्यवस्थित और सुनियोजित था। एक जगह से दूसरी जगह जाते हुए उन्होंने देखा कि आश्रम में हर तरह के फलों के पेड़ लगे हुये है। जगह-जगह क्यारियाँ बनाकर सब्जियाँ उगाई जा रही हैं। उन्हें ध्यान से फलों और सब्जियों के बाग की ओर देखते देखकर सेवक ने उनकी उत्सुकता शांत करते हुए कहा,"माँजी, गुरूजी की कृपा से सब आश्रम में ही हो जाता है, बाहर से खरीदने की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती।" अभी वह गुरूजी के विशाल बंगले को देख ही रहे थे कि घंटी बजी। उसने कहा, "माँजी आरती का समय हो गया है अतः आश्रम के बीच में स्थित मंदिर चलिये ।"

मंदिर में किसी दूसरे की मूर्ति थी। पूछने पर पता चला कि वह उनके प्रथम गुरू सिद्धानंद की मूर्ति है जिन्होंने आज से दस वर्ष पूर्व यहीं समाधि ली थी अतः यहाँ उनका मंदिर बना दिया गया है। आरती प्रारंभ होने वाली थी।

धीरे-धीरे आश्रम के अन्य लोग इकट्ठा होने लगे। आरती के पश्चात् प्रसाद वितरण हुआ। एक आठ दस वर्ष की बच्ची प्रसाद देने आई। उसे देखकर सुषमा चौक गई...यह तो सुनीधि की अनुकृति है। वही बड़ी-बड़ी नीली आँखें होठों के नीचे वैसा ही तिल तथा वैसे ही घुँघराले बाल, लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है?  "माँजी, प्रसाद ।"

 "बेटी, तुम्हारा नाम क्या है "’ सुरीली आवाज़ सुनकर चैतन्य होते हुए सुषमा ने पूछा ।

  "श्रद्धा...।"

   "बहुत प्यारा नाम है। कहाँ से आई हो? तुम्हारे माता-पिता का क्या नाम है ?"

   "जय गुरूदेव।" कहकर बिना उत्तर दिये वह चली गई।

   जयगुरूदेव का उद्घोष तो वहाँ हर आने जाने वाला कर रहा था। बच्ची से अपने प्रश्न का कोई उत्तर न पाकर अपनी शंका सेवक के सामने रखी तो उसने सहज स्वर में ने कहा,"यह आश्रम की बच्ची है, छुटपन में ही इसके माता-पिता इसे यहाँ छोड़ गये थे।"  "लेकिन क्यों...?"

 "जिनकी कोई इच्छा पूरी हो जाती है वे कभी-कभी ऐसे निर्णय ले लेते हैं। यहाँ आपको ऐसे भी लोग मिल जायेंगे जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गुरूजी की सेवा में अर्पित कर दी।"

श्रद्धा के अतिरिक्त भी सुषमा ने कई जगह ऐसे बच्चों को काम करते देखा था। आने जाने वालों के जूते की देखभाल से लेकर झाड़ू लगाना तथा भंडारे में जूठे बर्तन माँजने का काम इन नाबालिग बच्चों से गुरू सेवा के नाम पर करवाये जा रहे थे। बाल श्रमिक कानून का निरंतर उल्लंधन हो रहा था पर कोई कुछ बोलने वाला नहीं था। उसने इस ओर इंगित किया तो सेवक ने कहा,"माँजी, यह तो गुरूसेवा है, इसमें गलत क्या है ? स्कूल में इनको अक्षर ज्ञान के साथ-साथ गणित और विज्ञान जैसे गूढ़ विषयों की भी शिक्षा दी जाती है। बच्चों को हर तरह की शिक्षा मिलनी चाहिए जिससे इनका सर्वागींढ़ विकास हो सके । वे किसी काम को हेय न समझें।" उस समय वह सेवक के उत्तर को सुनकर चुप रह गई थी पर इस समय इस मासूम बच्ची को देखकर सुषमा समझ नहीं पा रही थी कि कैसे हृदयहीन होते हैं माता-पिता जो अपने छोटे से बच्चों को आश्रम में छोड़़ जाते हैं ? इस समय बच्चों को माता-पिता के प्यार दुलार की आवश्यकता होती है न कि गुरू सेवा के नाम पर कराये जा रहे तरह-तरह के कार्यो तथा उपदेशों के पुलिंदे की। लौटते हुए भी सुषमा के दिलोदिमाग में श्रद्धा ही छाई रही। कभी उसे लगता, कहीं वह सुनीधि की बेटी तो नहीं लेकिन अपने ही विचार उसे गलत लगते क्योंकि सुनीधि के विवाह को मात्र पाँच ही वर्ष हुए थे जबकि वह तो आठ दस वर्ष की होगी। उसको विचारमग्न देखकर अमित ने कारण पूछा। सुनीधि तथा श्रद्धा में समानता की बात सुनकर उन्होंने सहज स्वर में कहा,"पृथ्वी पर कभी-कभी एक सी सूरत के दो लोग भी मिल जाया करते हैं। आखिर तुम्हारा भगवान भी कितनी तरह की अलग-अलग सूरतें बनायेगा।"    

घर आकर काम में ऐसी उलझी कि उसके दिमाग से श्रद्धा वाली बात निकल गई। एक दिन किसी काम से वह नमिता के घर गई। अपने आश्रम जाने तथा घूमने की बात बताई ही थी कि शो केस में लगे सुनीधि के फोटो पर उसकी नजर पड़ी इसके साथ ही उसे श्रद्धा याद आई। सहज स्वर में उसने सुनीधि और श्रद्धा में समानता की बात नमिता को बताई। उसकी बात सुनकर नमिता का चेहरा फीका पड़ गया। परेशान होकर उसने उठकर घर के अंदर झांका। बाहर आकर चैन की सांस ली फिर एकाएक उसे कमरे से बाहर लगभग घसीटते हुए ले आई। बाहर बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठकर अपनी तेज-तेज चलती साँसों पर नियंत्रण पाकर लगभग फुसफुसाते हुए बोली, "तुम मेरी मित्र हो तो वचन दो कि आज के बाद यह बात तुम किसी से नहीं कहोगी।"

"लेकिन बात क्या है? तुम्हारी तबियत तो ठीक है। तुम्हें अचानक हो क्या गया है?' नमिता की हालत देखकर घबराये स्वर में सुषमा ने पूछा। वह उसके व्यवहार में आये अचानक परिवर्तन को समझ नहीं पा रही थी।

"वचन दो कि तुमने जो कुछ आश्रम में देखा वह किसी से नहीं कहोगी।"

 "नहीं कहूँगी, पर बात क्या है ?"

फुसफुसाहट में कही नमिता की बातें सुनकर सुषमा को एकाएक लगा जैसे उसके सीने पर कोई हथौड़े मार रहा हो। जिस आश्रम को लोग इतनी श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, जिस आश्रम के बाल, युवा और वृद्धों की जुबां पर सदा जयगुरूदेव तथा औरतों के लिये माँ शब्द का प्रयोग होता है। वहाँ एक कुँवारी कन्या के साथ मंत्र देने के नाम पर बलात्कार, तो क्या इसीलिये सुनीधि को डेढ़ वर्ष तक घर से बाहर रहना पड़ा था, नमिता ने बताया कि सुनीधि पर गुरूजी के प्रवचनों का ऐसा रंग चढ़ा कि उसने गुरूसेवा में अपना जीवन बिताने का निश्चय कर लिया था। एक बार तो वह झिझकी, उसे समझाया भी पर सुनीधि के आग्रह तथा गुरूजी द्वारा उसे अपनी मुख्य सेविका बनाने के आश्वासन के कारण वह मान गई थी पर कुछ ही दिनों बाद जब असलियत सामने आई तब एकाएक उसे विश्वास नहीं हुआ। गुरूजी से बात की तो वह साफ मुकर गये बोले,"यहाँ इतने लोग रहते हैं, मुझे क्या मालूम यह किसका पाप है !! अपनी पुत्री से ही पूछो, आश्रम में तो अब इसे रख नहीं सकते पर क्योंकि तुम इतने वर्षो से मेरी शिष्या रही हो तो इतना अवश्य कर सकता हूँ कि जब तक डिलीवरी नहीं हो जाती आश्रम के बाहर इसके रहने की व्यवस्था कर देता हूँ। जो भी खर्च आयेगा, आश्रम वहन करेगा। हाँ अगर यह उस व्यक्ति का नाम बताती है तो हम उसे अवश्य दंड देंगे।"  सुनीधि से इस संदर्भ में बात की तो वह कुछ नहीं बता पाई। उसने इतना ही बताया कि उस दिन गुरूजी हवन कर रहे थे। उसमें सहायता के लिये उसे बुलाया गया था। हवन के बाद गुरू की मुख्य सेविका बनने हेतु मंत्र देने की बात कही थी। हवन के बाद उसे प्रसाद दिया गया तथा मंत्र देने के लिये उसे विशेष कक्ष में बुलाया गया था। उसके बाद क्या हुआ, उसे पता नहीं है।

सुनीधि पर एबार्शन करवाने के लिये दबाव डाला पर वह तैयार नहीं हुई। उसका कहना था कि वह इतनी निर्दयी कैसे बन सकती है कि अपने ही हाथों अपनी संतान का गला दबा दे ? किसी की ग़लती की सजा यह मासूम क्यों भुगते ? आखिर गुरूजी के निर्देशानुसार उसे आश्रम से बाहर रखा गया। डेढ़ वर्ष बाद जब वह लौटी थी तो उसकी कुम्लाही देह को देखकर लोगों के मन में उठते तमाम प्रश्नों का समाधान नमिता ने यह कहकर कर दिया था कि इसकी तबियत खराब हो गई थी, इसलिये इसे ले आये। वैसे भी गुरूजी कह रहे थे कि अभी इसकी उम्र गुरूसेवा की नहीं वरन् सांसारिक जीवन व्यतीत करने की है।  दुख तो इस बात का था सुषमा जहाँ पहले मैं लोगों को गर्व से बताती थी कि सुनीधि गुरूसेवा में जीवन व्यतीत करना चाहती है, वहीं बाद में उसके इस पाप को छिपाने के लिये मुझे अपनों से झूठ बोलना पड़ा।

अब सुषमा नमिता के अप्रत्याशित व्यवहार को समझ पाई। वस्तुतः सुनीधि आई हुई थी। वह नहीं चाहती थी कि एक बार फिर उसे उन्हीं हालातों का सामना करना पड़े। बच्ची के बारे उससे कह दिया था कि वह पैदा होते ही मर गई। उन्हें डर था कि कहीं वह बच्ची को साथ रखने की ज़िद न कर बैठे। उस स्थिति का सामना करना उनके लिये बेहद कठिन होता।  "इतना सब होने के बावजूद तुम अब भी सत्संग कराती हो तथा आश्रम भी जाती हो।" अचानक सुषमा के मुँह से निकला।

"वह भी मजबूरी है सुषमा, तुम जानती हो कि नंदी साहब इस जोन के कैशियर हैं। चढ़ावे में जितना पैसा आता है वह हर माह आश्रम भेजा जाता है। अब अगर ये इस पद को छोड़ते हैं तो हो सकता है श्रद्धा का लालन पालन ठीक से न हो पाये और अगर वर्षो से अपने घर में चलते सत्संग को अचानक कराना बंद करते हैं तो लोगों के मन में उठती अनेको शंकाओं का क्या जवाब देगें? जहाँ तक हर गुरूपूर्णिमा पर आश्रम जाने का प्रश्न है, सोचती हूँ कि कम से कम वर्ष में एक बार तो उस मासूम को जाकर देख आऊँ जो बिना किसी अपराध के सजा भोग रही है।" आँखों में आये आँसुओं को पोंछते हुये बेबस स्वर में नमिता ने कहा  "तुम भी कैसी हो, जो फूल सी बच्ची को उन नराधमों के पास छोड़ आई !! इससे तो किसी अनाथाश्रम में डाल देतीं। इसकी क्या गारंटी है जो सुनीधि के साथ हुआ वह उस बच्ची के साथ नहीं होगा !!" न चाहते हुए भी सुषमा का स्वर कठोर हो आया। "सोचा तो था पर लगा कि अनाथाश्रम वाले भी कौन से दूध के धुले हैं। वहाँ भी तो तरह-तरह के अनाचार और दुराचार बच्चों के साथ होते रहे हैं। फिर मन में कहीं क्षीण आशा जगी कि कम से कम वह अपनी बच्ची के साथ कोई दुराचार न होने दे।" नमिता के चेहरे पर आई दयनीयता तथा अपराधबोध उससे छिप नहीं पाया।

 थोड़ा रूककर नमिता पुनः बोली, "मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया पर प्लीज यह बात किसी से न कहना। बेचारी ने बहुत दुख झेले हैं। बड़ी मुश्किल से उस हादसे को भुलाकर वह विवाह के लिये राजी हुई थी। अब जब वह अपने घर संसार में सुखी है, प्लीज ऐसा कोई कदम न उठाना जिससे कि उसकी हरी-भरी बगिया में आग लग जाये।" बड़ी-बड़ी आँखों में भर आये आँसुओं ने सुषमा को द्रवित कर दिया कटु सच्चाई को सुनकर सुषमा हतप्रभ थी। एकाएक उसे ऐसा महसूस हुआ कि गेरूए वस्त्रों में सजे, अपने शब्दों के मोहक जाल में मासूम लोगों को फाँसते ये ढोंगी, पातकी किसी नराधम से कम तो नहीं। सचमुच ये इंसान के रूप में हैवान हैं। इनसे अच्छे तो वे लोग हैं जो डान और माफिया के नाम से जाने जाते हैं। वह बुरे हैं, अच्छे होने का स्वांग तो नहीं रचते, अपनी धूर्तता से कभी किसी का विश्वास तो नहीं हरते।

आश्चर्य तो तब होता है जब नमिता जैसे लोग इनकी कारगुजारियों से वाक़िफ़ होते हुए भी इनके विरूद्ध आवाज़ नहीं उठा पाते और न ही इनके चंगुल से निकल पाते हैं। एकाएक उसे नमिता से वितृष्णा हो आई। जिसकी अंधभक्ति की न केवल उसकी अपनी पुत्री को कीमत चुकानी पड़ी वरन् उसकी बच्ची, मासूम श्रद्धा को भी ताउम्र उस तपते, दहकते जंगल में तिल-तिल जलना पड़ेगा। नमिता की तरह और भी न जाने कितने लोग इन ढोंगी और बहरूपियों के तिलस्मी चक्रव्यूह में फँसकर अपना सब कुछ गंवा चुके होंगे किंतु लोक लाज के डर से न तो इनके विरूद्ध कुछ कह पाते हैं और न ही कुछ कर पाते हैं। शायद लोगों की यही प्रवृत्ति इन्हें फलने-फूलने का अवसर प्रदान करती है पर वह चुप नहीं रहेगी वह अवश्य किसी पत्र के संपादक से मिलकर इस आश्रम का भंडाफोड़ करेगी। "आप कब आई आंटी ? आकंक्षा को सुलाने के चक्कर में मेरी भी आँख लग गई थी। दीप्ति कैसी है ? मैं तो आकांक्षा की वजह से कहीं निकल ही नहीं पाती हूँ।" सुनीधि के स्वर ने उसके मन में चलते झंझावात को रोक दिया। वह प्रश्न पर प्रश्न पूछे जा रही थी...चेहरे पर पहले जैसी ही चंचलता झलक रही थी।

"बेटी, दीप्ति भी ठीक है। वह भी तुम्हें याद करती रहती है। इस समय वह नानी के घर गई हुई है। वरना तुमसे मिलने अवश्य आती।" संयत स्वर में सुषमा ने कहा।

सुषमा घर लौट आई। मन में द्वंद चल रहा था। सोच रही थी कि आश्रम में हो रही इस अनैतिकता के विरुद्ध आवाज़ उठाये। कम से कम जो सुनीधि के साथ हुआ वह अन्य किसी के साथ तो न हो पर तभी नमिता की आँखों की याचना तथा सुनीधि का मासूम चेहरा उसकी आँखों में घूमने लगा। वैसे भी इतने पहुँचे हुए गुरूजी के बारे में उसकी कही बात पर कोई विश्वास करे या न करे किन्तु सुनीधि का रचा बसा परिवार अवश्य टूट जायेगा। इसके साथ ही किसी के विश्वास को छलने की जवाबदेही भी उसके ऊपर आयेगी। नहीं-नहीं वह ऐसा नहीं कर पायेगी। कभी-कभी एक झूठ या एक चुप यदि किसी के जीवन को संवार दे तो झूठ बोलने या चुप रहने में कोई बुराई नहीं है। वैसे भी बिना किसी ठोस प्रमाण या गवाही के वह अपनी बात सिद्ध भी कैसे कर पायेगी ?

जहाँ कुछ देर पहले उसे नमिता पर क्रोध आ रहा था, अचानक दया आने लगी।आखिर वह करती भी तो क्या करती ? क्या आश्रम की भव्यता या आबोहवा देखकर कोई उसकी बात पर विश्वास करता ? क्या वह स्वयं आश्रम की भव्यता देखकर अभिभूत नहीं हो गई थी ? फिर अपने आरोप का नमिता के पास कोई ठोस प्रमाण भी तो नहीं था। बेटी के सुखद भविष्य के लिये उसके पास होठ सिल लेने के अतिरिक्त शायद अन्य कोई उपाय भी तो नहीं था। वैसे भी सुनीधि बहुत कुछ भोग चुकी थी। क्या सच बोल कर वह उसकी जिंदगी नरक बना देती ? बातें तो सब बना लेते हैं लेकिन पीड़ा तो भुक्तभोगी ही झेलता है। सच इंसान परिस्थितियों के आगे कभी इतना बेबस हो जाता है कि सारे आदर्श और नैतिकता धरी की धरी रह जाती हैं। वह भी नमिता की तरह सुनीधि के जीवन के काले अध्याय...कटु सत्य को एक बुरा स्वप्न समझ कर भुलाने का प्रयत्न करेगी। सच कभी गेरूआ रंग पवित्रता तथा वीरता का पर्याय हुआ करता था, वही अब ऐसे लोगो के कारण ढोंग और ढकोसलों का पर्याय बन चुका है। ‘मुँह में राम तथा बगल में छुरी’ कहावत शायद ऐसे ही लोगों के लिये ईजाद हुई है। नमिता भले ही स्वयं को उनके चुंगल से न छुड़ा पाई हो पर सुषमा ने निश्चय कर लिया था कि आगे से वह ऐसे किसी भी आयोजन में कभी सम्मिलित नहीं होगी...।


    



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