कोहरा
कोहरा
घने कोहरे और धुँध की वजह से करण का विध्यालय ३ दिनों से बंद है। उसे बाहर जाकर ना तो अपने दोस्तों के साथ खेलने की इजाज़त है ना ही छत पर जाकर पतंग उड़ाने की ही। ४ दिन हो गए वह अपने दोस्तों से मिला भी नही है। बस घर में मानो क़ैद सा हो गया है। माँ पापा का दफ़्तर खुला है। वो बड़ी मुश्किल से घर से निकल पा रहे। बिना मास्क लगाए तो घर से एक कदम बाहर रखना मुश्किल है। राजीव के लिए ख़ासकर, साँस की बीमारी जो है उसे।
४ दिन पहले जब उसके शहर में धुँध होना शुरू हुआ था, उसने इसे हल्के में लिया था। बिना नाक को ढके दफ़्तर चला गया था। शाम तक उसकी हालत इतनी बिगड़ गयी थी की तुरंत उसे डॉक्टर के पास जाना पड़ा था। उसी शाम बड़ी मुश्किल से मीरा, राजीव की बीवी दुकान जाकर घर के सभी सदस्य के लिए मास्क ले आई थी। कई दुकान ढूँढने के बाद मास्क मिल पाया था। राजीव अपनी बीवी मीरा, बेटा करण और माँ पापा के साथ रहता था।
राजीव के पिता दीनदयाल जी को दम्मे की बीमारी है। उनकी तो हालत इतनी बुरी है कि उन्हें घर में भी मास्क लगाकर रखना पड़ता है। थोड़ी भी बाहर की हवा उनके लिय जानलेवा है। सबकी हालत बहुत बुरी है। कितने दिन हो गए ,सूरज की रौशनी नहीं पड़ी है धरती पर। धुँध इतना गहरा है , की थोड़ी दूरी की चीजें,घर,गाड़ियाँ दिखाई नही दे रहे।
शाम को दफ़्तर से जब मीरा और राजीव घर पहुँचे तो वे लगातार खाँसते ही जा रहे थे। दीनदयालजी ने दोनो को पानी लाकर दिया। मीरा तो जल्दी ही संभल गई मगर राजीव को दवा खानी पड़ी। थोड़ी देर में वो भी शांत हुआ। राजीव ने बताया, बाहर चलना तो ख़राब था ही,अब तो कार और बस के अंदर भी साँस लेना मुश्किल हो रहा। तभी मीरा ने कहा, हाँ मेरा तो ऐक्सिडेंट होते होते बचा। कुछ दिखता भी नहीं है। जाने कब तक चलेगा ऐसे।
फिर दीनदयालजी ने कहा, तुम दोनो कुछ दिनों के लिए छुट्टी क्यों नही ले लेते। बहुत काम है , पापा दफ़्तर में। मीरा और राजीव ने जवाब दिया।
फिर मीरा, चाय बनाने चली गई।
पूरे समय घर में रहने की वजह से करण काफ़ी परेशान हो गया था। उसने राजीव के पास आकर बाहर खेलने जाने के लिये पूछा। राजीव के मना करने पर वह ज़िद करने लगा। राजीव ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की, मगर वह ज़िद करता ही जा रहा था। तब राजीव ने उसे डाँटकर कहा, एक बार जो कह दिया कह दिया। बाहर नहीं जाना है। घर में ही करो जो करना है। इतना कह, राजीव भी अपने काम में लग गया।
थोड़ी देर करण रोता रहा। मगर जब उसने देखा की सभी अपने अपने काम में व्यस्त है तो चुपचाप अपना साइकल निकाल बाहर चलाने चला गया। उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहा की वह मास्क लगा ले। होता भी कैसे, सिर्फ़ १० साल का ही तो है। तब तक मीरा भी चाय लेकर आ गई। सबने हालत पर चर्चा करते हुए चाय और नाश्ता लिया। फिर राजीव ने कहा, ज़रा समाचार सुनता हूँ, पता तो चले शहर का क्या हाल है। टी वी पर हर जगह वही समाचार और उससे निपटने के उपाय पर चर्चा तो, कही दोषारोपण चल रहा था। सब एक दूसरे को इसका ज़िम्मेदार बता रहे थे। नेता आम जनता पर अंगुली उठा रही थी, कि दीपावली में लोगों को लाख मना करने के बावजूद उनके द्वारा पटाखे फोड़ने का नतीजा है ये धुँध। तो कोई सज्जन अपने साक्षात्कार में बिल्डर और कन्स्ट्रक्शन के लोगों को दोषी करार दे रहे थे। उनका मानना था कि इन्ही लोगों ने बड़ी बड़ी इमारतें बनाने की वजह से पेड़ों को काँटे है। एक तो भरी संख्या में पेड़ काटे गए और उसपर से इमारत बनने के क्रम में जो धूल उड़ती है, उन सब को मिलाकर ही ये हालात पैदा हुए हैं। तो कुछ लोग किसानों द्वारा भारी मात्रा में अपने खेत के कचरे को जलाने को दोषी मान रहे थे, तो कोई गाड़ी से निकले धुएँ को।
ऐसे लगातार दोषारोपण सुन दीनदयालजी भाव विभोर हो गए, और फिर ग़ुस्से में कहा, जब सब एक दूसरे पर इल्ज़ाम ही लगाते रहेंगे तो फिर ज़िम्मेदारी कौन लेगा? सब ऐसे चल रहे मास्क लगाकर जैसे हम धरती पर नहीं किसी और ग्रह पर हों। राजीव ने फिर टी वी बंद कर दिया। अभी भी दीनदयालजी का ग़ुस्सा शांत नही हुआ था। उन्होंने कहा, कोई भी कारण हो किसी एक चेहरे ने नहीं, हम सब के लिये ये समस्या पैदा की है। हम सब ने मिलकर ये हालात पैदा किय है। हम सबने बढ़ती समस्या को अनदेखा किया है। अब जब समस्या बुलाई ही है तो उसका निजात भी हमें मिलकर निकालना होगा। ऐसे बातों के जाल बनाकर पल्ला नही झाड़ सकते। फिर उन्होंने बड़े गम्भीर स्वर में,आज अपने परिवार के तरफ़ से मैं लेता हूँ ज़िम्मेदारी। चाहे पेड़ कटे हो, या गाड़ी की वजह से ये हालत हुई हो ,या फिर बिल्डरस की वजह से हो या किसान की वजह से, सब में तो मैं ही हूँ भागीदार।
बिल्डरस खुद के लिए तो घर नहीं बनाते, रहते तो हम ही हैं। किसान खुद तो सारा अनाज नही खाते, खाते तो हम सब है। गाड़ी हम सभी इस्तेमाल करते है। राजीव ने उन्हें शांत करते हुए कहा, ठीक कहा पापा आपने। अगर सुख सुविधा, चाहिए तो उसकी क़ीमत तो देनी ही पड़ेगी। और या तो हमारे द्वारा बुलाए समस्या को हमारे साथ ये धरती भी झेल रही। हम सब लेते है इसकी ज़िम्मेदारी,सिर्फ़ आप क्यों?
तभी दरवाज़े का कॉल बेल बजा। मीरा ने दरवाज़ा खोला, और खोलते ही आश्चर्य से भर गई। करण को बगल के गुप्ता जी गोद में लिय खड़े थे।
उन्होंने जल्दी से करण को वही पास के सोफ़े पर लिटा दिया, और कहा ये बाहर अपनी साइकल के पास बैठा बुरी तरह से ख़ास रहा था। इसके आँखों से बुरी तरह पानी गिर रही थी और लाल थी। मैं अभी दफ़्तर से आया तो देखा, अकेले बेहाल हालत में बैठा था। ध्यान रखिए बच्चे का, ऐसे हाल में अकेले क्यों जाने दिया बाहर। कहीं बेहोश हो जाता तो।
सबने उन्हें धन्यवाद दिया, फिर वो अपने घर चले गए। मीरा और राजीव की हालत बुरी थी। वो अपने बच्चे को इस हाल में देख बिलकुल डर से गए थे। मीरा ने जल्दी ही करण को पानी दिया। धीरे धीरे करण सामान्य हुआ। करण ने अपने किये की माफ़ी माँगी। मगर साथ में एक सवाल भी किया, जिसने सबको सोचने पर मजबूर कर दिया। करण ने कहा, "क्या ये हवाएँ अब कभी साफ़ नही होंगी। अब हम कभी सूरज नहीं देख पाएँगे। क्या मैं कभी बाहर जाकर अपने दोस्तों के साथ नही खेल पाऊँगा।"
किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कैसे कहते वो, की उनकी ही करमों का फल आज करण भुगत रहा था।