manisha sinha

Inspirational

5.0  

manisha sinha

Inspirational

संकल्प

संकल्प

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मीरा काफ़ी देर से अपने नर्सिंग के प्रमाण पत्र खोज रही थी और मन में सोचती जा रही थी कि राजीव पता नहीं क्यों मेरी चीज़ों को इधर से उधर करते है।कितनी बार कहा है, मेरी फ़ाइल को अपनी जगह से हटाया ना करें। मगर मेरी इस घर में सुनता ही कौन है ! जब वह ढूँढते- ढूँढते थक गईं, तो उसने अपने पति राजीव को फ़ोन किया। बड़ी देर तक रिंग होने के बाद राजीव ने ग़ुस्से में फ़ोन उठाया और उठाते ही कहा - क्या बात है ? मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है शुक्रवार को मैं पूरे वक़्त मीटिंग में होता हूँ। मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं होता। मीरा ने राजीव की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि ये तो रोज़ की बात थी। सिर्फ़ शुक्रवार नहीं, राजीव के पास कभी भी वक्त नहीं होता था। मीरा ने कहा, मुझे सिर्फ़ ये पूछना था कि तुमने मेरे नर्सिंग के सर्टिफ़िकेट कहीं रखे हैं क्या ?

इतना सुनना था, कि राजीव ने कहा, तुम फिर शुरू हो गई। मेरे लाख मना करने के बावजूद तुम्हें अभी तक नौकरी की पड़ी है? तुम्हें जो करना है करो मगर बार बार एक ही बात पूछ कर मेरा दिमाग़ और समय ख़राब ना करो। इतना कह राजीव ने फ़ोन रख दिया।

मीरा भी फिर घर के दूसरे कामों में लग गयी। मगर घर के काम से उसे जब भी समय मिलता वह एक बार अपने सर्टिफ़िकेट भी ढूँढ लेती। आख़िर कर उसे सर्टिफ़िकेट अपने ही पुराने सूटकेस में रखे हुए मिले ।

उन्हें पाकर वह उतनी ही ख़ुश हुई जितनी ख़ुश वह तब हुई थी जब उसने नर्सिंग की पढ़ाई ख़तम की थी और उसे प्रमाण पत्र दिए गए थे। प्रमाण पत्र पर अंकित साल को देखकर वह थोड़ी देर इसी सोच में डूब गई कि तीस साल हो गए, मुझे नर्सिंग ख़तम किए। मगर हर बार कभी बच्चे की जिम्मेदारी की वजह से तो कभी पति की नौकरी की वजह से उसे अपने सपनों को पूरा करने का समय ही नहीं मिला। हालाँकि उसे कभी इस बात का पछतावा नहीं था कि उसे हमेशा घर की जिम्मेदारी की वजह से अपने सपने को बीच में ही रोकना पड़ा।

मगर आज वह ज़रूर दुखी थी, इस वजह से कि अब जब उसकी बारी है कोई उसका साथ नहीं दे रहा था।

तभी घड़ी पर उसकी नज़र पड़ी। शाम के ५ बज रहे थे। वह इन बातों की वजह से ये भूल ही गई थी की आज उसकी बेटी ईशा घर आने वाली थी। ईशा पिछले साल ही फ़ैशन डिज़ाइनिंग की पढ़ाई खत्म कर नौकरी करनी शुरू की थी। घर से दफ़्तर दूर होने की वजह से, उसी के आस पास एक किराए का घर ले लिया था। मीरा और राजीव इसके बिलकुल ख़िलाफ़ थे। फिर ईशा के वादा करने पर कि, वह हर शुक्रवार की शाम घर आएगी और रविवार की शाम तक रहेगी वे दोनो मान गए थे।

आज शुक्रवार था। तुरंत मीरा उठी और फटाफट शाम की पूजा कर वह ईशा के मन मुताबिक़ रात का खाना तैयार करने में जुट गईं। जैसे ही वह प्याज़ के पकौड़े, बेसन के लड्डू बनाकर बिरयानी की तैयारी करने ही जा रही थी कि घर का दरवाज़ा खुला। ईशा और राजीव दोनो एक साथ घर में दाखिल हुए।

ईशा को सामने देख मीरा के ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। मीरा ने जल्दी से ईशा को गले से लगा लिया।

मगर ईशा थोड़े ग़ुस्से में लग रही थी। बिना कुछ कहे, वो रसोई घर में चली गयी और कुछ खाने को खोजने लगी। तभी मीरा भी उसके पीछे पीछे वहाँ आ गईं और ग़ुस्से का कारण पूछा, ईशा ने बात को टालते हुए कहा, क्या बनाया है? बहुत भूख लग रही?

मीरा ने कहा -जो भी बनाया है, तुम्हारे ही मन का बनाया है। फिर ईशा और राजीव को जल्दी से हाथ मुँह धोकर आने के लिये कहकर चाय बनाने चली गयी। थोड़ी ही देर में राजीव और ईशा खाने की मेज़ पर आकर बैठ गए और चाय के लिए शोर मचाने लगे। तुरंत ही मीरा चाय के साथ पकौड़े और बेसन के लड्डू ले आइ, और ईशा से कहा ,देखो तुम्हारे आने से कितनी रौनक़ हो गयी है घर में ,वरना कितना सन्नाटा सा रहता है।तुम्हारे पापा भी हर रोज़ तो ११ बजे के पहले घर नहीं आते।

तभी ईशा ने लड्डू खाते हुए कहा, मैंने हुक्म दिया था पापा को कि आप रोज़ ना सही मगर शुक्रवार को तो जल्दी घर आ जाया कीजिए,और पापा ने मेरी बात मान ली। फिर सभी चाय पीते -पीते अपनी -अपनी दिनचर्या एक दूसरे के साथ साझा करने लगे।

चाय ख़त्म होने पर ईशा ने कहा, अभी मुझे अपने दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने जाना है। रात का खाना मैं बाहर ही खाऊँगी।

उसपर मीरा ने कहा- मैं तो तुम्हारे पसंद की बिरयानी बना रही थी। दो दिनों के लिये भी तुम अपने दोस्तों के बिना नहीं रह सकती क्या?

ईशा ने ग़ुस्से में जवाब दिया, हर शुक्रवार आती तो हूँ ना यहाँ। क्या मैं दोस्तों से भी ना मिलूँ। मुझे ही पता है कितने काम अधूरे छोड़कर इतनी ट्रैफ़िक में उतनी दूर से आती हूँ। आपकी भी अजीब ज़िद है कि, मैं हर सप्ताह यहाँ आऊँ। चलो आ भी गयी, अब ये क्या की कहीं जाऊँ भी ना। आप तो घर में रहती हैं,आपको क्या पता की नौकरी पर जाने पर कितनी ज़िम्मेदारी होती है। बाहर निकलने पर कितने लोगों से ताल मेल बनाकर चलना पड़ता है। मगर आपको क्या पता। आपकी दुनिया तो बस ये ४ कमरे है और ये रसोई।

फिर तुरंत राजीव ने भी कहा - हाँ, तुम्हारी माँ का वश चले तो सबके काम छुड़ा कर घर में बिठा ले। खुद का तो कोई ग्रूप है नहीं और बस हमारे दोस्तों और काम से ग़ुस्सा होती रहती है। तंग आ गया हूँ इसके इस स्वभाव से मैं भी। और अब ये नया शुरू किया है, की मुझे नौकरी करनी है, वो भी इस उम्र में। जब लोग सेवनिवृत्ति की सोचते हैं ये नौकरी की सोच रहीं। मीरा चुपचाप सुनती रही, फिर कहा, हाँ सही कहा ईशा तुमने, मेरी दुनिया तो यही है। तुम्हारी ख़ुशी ,तुम्हारे पापा की तरक़्क़ी इसके अलावा चाहा ही क्या है मैंने। और आज तक इस दुनिया ने इतना व्यस्त रखा है कि और किसी दुनिया की खबर लेने की ना तो फ़ुरसत हुईं ना ही कभी मन हुआ। और मैं बहुत खुश हूँ अपनी इस छोटी सी दुनिया में।

और राजीव तुम जो मुझे कह रहे ना कि ना तो मेरा कोई ग्रूप है ना कोई काम, तो अब मैं ये भी समझ गयी हूँ कि एक समय के बाद अगर खुद के लिये समय नहीं निकाला तो अपने भी आपका साथ छोड़ने लगते है। इसलिये कोई चाहे कुछ भी कहे मैं नौकरी कर के रहूँगी।

पापा आप ही निपटो माँ के इन बातों से, मैं चली तैयार होने, मुझे देर हो रही। यह कह ईशा तैयार होने के लिए जाने लगी।

तभी मीरा ने उसे रोकते हुए पूछा- तुम्हें नहीं लगता कि मेरे भी कुछ सपने होंगे। ख़ैर ,कभी ज़िम्मेदारियों का बंधन था और मैं उसे बखूबी निभाना चाहती थी, इसीलिए कभी अपने बारे में कुछ सोचा नहीं, मगर अब ये उम्र का बंधन स्वीकार नहीं है मुझे। मैं खुद निर्णय ले सकती हूँ, क्या सही है, क्या ग़लत। मुझे ना तो तुम्हारे सलाह की ज़रूरत है और ना ही साथ की।


माँ को इस तरह भावुक देख ईशा भी थोड़ी पिघल गयी और कहा, माँ सब कुछ तो है तुम्हारे पास। और तुम बीमार भी रहती हो। कहा इस हाल में तुम वृद्धाश्रम में लोगों की देखभाल कर पाओगी। पापा का तो सोचो, उन्हें कितना बुरा लगेगा तुम ये सब करोगी। अगर इतना ही है तो पापा के ही ऑफ़िस चली जाया करो एक दो घंटे के लिए। तुम भी क्या बात करती हो ईशा, तुम्हारी माँ से वो सब संभल पाएगा। किसी से दो लाइन अंग़्रेज़ी में बात करनी हो तो इसकी हालत बिगड़ती है। क्या करेगी ये मेरे ऑफ़िस आकर। जैसा चल रहा है, ठीक तो है। इतने सालों से घर को देखा है अब क्या हुआ इसे पता नहीं, राजीव ने चिढ़ते हुए कहा। फिर राजीव अपने कमरे में चला गया और ईशा तैयार हो अपने दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने चली गई। मीरा भी खाना बनाने चली गयी।मगर वह अपने मन में संकल्प कर चुकी थी कि इस बार वह केवल अपने मन की सुनेगी। दूसरे दिन उसने अपने अन्य परिवार वाले और दोस्तों को अपने मनसा के बारे में बताया, मगर सब ने यही कहा कि अब क्या ज़रूरत इन सब की। अब तो उमर निकल गई। रही सही जैसे तैसे कट जाएगी। अब क्या खुद के नौकरी करने की उम्र है। किसी ने भी मीरा को प्रोत्साहित नहीं किया। रविवार जब ईशा जाने लगी उसने माँ को फिर से विचार करने के लिये कहा। मगर मीरा ने ठान ली थी। सोमवार सुबह वो राजीव के ऑफ़िस जाते ही हिम्मत जुटा वृद्धा आश्रम चली गई। मीरा के उम्र को देख वृद्धाश्रम के मैनेजर ने भी पूछा, क्या आप ये काम कर पाएँगी। उसपर मीरा ने कहा, ये तो वक्त ही बताएगा। वैसे अगर आपको मेरा काम ना अच्छा लगे तो निकाल देना मुझे।


उस वृद्धाश्रम में देखभाल के लिए कोई भी आना नहीं चाहता था, क्योंकि वहाँ जितने भी वृद्ध रहते थे उनके थोड़े स्वभाव से चिड़चिड़े होने की वजह से कोई भी देखभाल करने वाला टिक नहीं पाता था। और इस खबर के फैलने की वजह से कोई भी वहाँ काम करने को राज़ी नहीं हो रहा था। इसीलिए वहाँ के मैनेजर को मीरा के नर्सिंग के कुछ भी अनुभव ना होने के बावजूद और उसपर से मीरा खुद एक अधेड़ उम्र की महिला थी, काम पर रखना पड़ा।

फिर मीरा ने इतने बाधा और सबके ख़िलाफ़ जाकर काम करना शुरू किया। मीरा सबके खाने पीने, दवा, सबका ख़्याल घर जैसा रखती।

शुरू में तो सभी उसे दूसरे नर्स जैसा समझ बुरा बर्ताव किया। कोई मीरा से ढंग से बात तक नहीं करता था।

उनकी भी ग़लती नहीं थी, क्योंकि ना तो उनके परिवार ने कभी उनसे कई सालों से प्यार दिखाया था,और ना ही वह काम कर रहे लोगों ने। इस वजह से वे ऐसे हो गए थे। बहुतों की तो जीने की इच्छा ही बाक़ी नहीं रही थी। जमाने से किसी ने उनसे उनकी हालत जानने की कोशिश भी नहीं की थी।

मगर मीरा के लगातार कोशिश और संवेदनशीलता ने सब में जीने की एक उमंग भर दी थी।

वह वहाँ के सब लोगों से ऐसी घुल मिल गईं कि सबको मीरा की आदत सी हो गई। सुचित्रा जी हो या ४ बार आत्महत्या की कोशिश कर चुकी पाल जी हो सबके चेहरे खिल जाते जैसे ही वह मीरा को देखते। वहाँ काम करते करते मीरा को एक साल हो गए थे। घर में किसी को यह पसंद नहीं आ रहा था। मगर मीरा अपने काम से और उससे भी ज़्यादा वहाँ के लोग मीरा से खुश थे। उन्हें हर रोज़ मीरा का इंतज़ार रहता।

एक बार किसी काम के सिलसिले में मीरा अपने पति के ऑफ़िस आई तो राजीव के ऑफ़िस में किसी ने बड़े व्यंग्य से मीरा से पूछा..कितना कमा लेती है आप वहाँ। राजीव ने बताया की आपने नौकरी शुरू की है। क्या करना होता है आपको वहाँ।

यह सुन राजीव थोड़ा झेंप गया। मगर मीरा ने जो जवाब दिया उसे सुन सभी हक्के बक्के रह गए।

मीरा ने कहा, अब मैं मिसज़ राजीव से मीरा बन गयी हूँ। आपने पैसे बहुत कमाए होंगे मगर मैंने लोगों की ख़ुशी कमाई है। ज़िंदगी फिर से जीना सीखा है मैंने। मगर आप सब ये बात नहीं समझोगे। हर चीज़ की क़ीमत तो लगती नहीं। आत्मविश्वास से भरी थी मीरा।

आश्रम में उसे बेहतरीन कार्यकर्ता के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया। न्यूज़ पेपर में जब उसकी तस्वीर छपी, ये देख राजीव और ईशा फूले नहीं समा रहे थे।उन्हें अपनी ग़लती का एहसास था। मीरा ने ये साबित किया था कि किसी भी चीज़ की शुरुआत करने में उमर कोई बाधा नहीं होती है। मीरा समाज के लिए एक मिसाल थी।


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