समय का आहार

समय का आहार

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रोहण ४ साल का होकर भी इशारों में बात करता था। माँ, बाप राजीव और मीरा की समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था कि आख़िर बात क्या है? वहीं उसके दोस्त ऋषि की बेटी ३ साल की ही तो हुई थी, और अपनी सारी बात अपनी तोतली ज़ुबान में समझा देती थी।

पहले तो वो इसे रोहण का बचपना समझकर टालते रहे। मगर घर के बड़ों ने एतराज़ जताया तो राजीव और मीरा उसे डाक्टर के पास ले गए। डाक्टर ने हर तरीक़े से जाँच कर कहा, कि आपका बच्चा बिल्कुल ठीक है। बस आप दोनों इसे समय दिया करो। समय! यही तो नहीं था, उनके पास।

शहर की भागती दौड़ती ज़िंदगी रोटी, कपड़ा,मकान तो दिला देती है, मगर बदले में इसकी भारी क़ीमत वसूल करती है। एक दूसरे के बीच का प्यार, एहसास, होंठों की खिलखिलाहट, बातों की नोक झोंक सब तो ले लेती है बदले में।


यही तो हो रहा था रोहण के साथ। रोहण के जन्म लेने के छह महीने के अंदर ही मीरा ने दफ़्तर जाना शुरू कर दिया था। उसकी भी तो मजबूरी थी। वरना ऐसे अपने इतने छोटे बच्चे को कौन अलग करता है, खुद से। मीरा के लिए भी कहाँ आसान था ये। मगर घर के खर्चे, बच्चे का खर्च, घर की, दो - दो गाड़ियों की हर महीने की किश्तें ये सब अकेले राजीव से नहीं संभलने की वजह से मीरा को नौकरी फिर से शुरू करनी पड़ रही थी।

रोहण अभी बहुत छोटा था, और बीमार भी रहता था, इसीलिए वह उसे डे केयर में नहीं डालना चाहती थी। तो उसने रोहण के लिए घर पर ही एक आया का इंतज़ाम कर दिया था। अब जब मीरा ने नौकरी शुरू की उसे घर के लिए बिल्कुल ही समय नहीं होता था। लेकिन पैसे की समस्या अब कम होने लगी थी, और समय के साथ स्थिति बेहतर होती जा रही थी।

मगर जैसे जैसे रोहण बड़ा हो रहा था, मीरा और राजीव उतने ही व्यस्त होते जा रहे थे। दिन भर रोहण आया के साथ रहता, और जब मीरा घर आती तो थोड़ी देर उसे प्यार कर टी वी के सामने बिठा, रात के खाना और दूसरे दिन की तैयारी में लग जाती।

राजीव के पास तो दो मिनट की भी फ़ुरसत नहीं थी। वह तो महीनों में १० दिन काम से बाहर ही रहता। जब वह कई कई दिनों बाद घर लौटता तो, रोहण उसे देखकर पहचान ही नहीं पाता। अब रोहण और मीरा ने बड़ा मकान ले लिया था। सारी सुख सुविधा की चीजें भी तो जुटी ली थी उन्होंने। फिर भी जाने किस दौड़ में शामिल थे कि दो मिनट ठहरना भी अब मंज़ूर नहीं था। इसी तरह समय बीतता गया , और अब रोहण ४ साल का हो गया।


साल में एक बार रोहण के और मीरा के माता पिता कुछ दिनों के लिए उनके पास आकर रहते थे। उन्हें रोहण के साथ खेलना अच्छा लगता था। उनके ही द्वारा रोहण के अब तक ना बोलने की समस्या को उठाने की वजह से मीरा और राजीव उसे डाक्टर के पास ले गए थे। अब तो मीरा और राजीव भी घबराने लगे थे। ५ साल का जो होने वाला था रोहण। फिर वे दोनों रोहण को लेकर बाल मनोचिकित्सक के पास गए। मनोचिकित्सक ने बड़ी बारीकी से उनकी समस्या सुनी। समस्या सुनने के बाद उसने उनसे उनकी दिनचर्या पूछी। फिर कहा, आप ही तो हो इसकी समस्या।

उसपर राजीव ने ग़ुस्से में कहा, इसके ही लिए को कर रहे हम से सब। इसके अच्छे खाना, रहन सहन के लिए। फिर हम कैसे है, ज़िम्मेदार ।डाक्टर ने शांत करते हुए कहा, आपने कभी बातों का आहार दिया है इसे। वैसे अबोध बालक को हर चीजें माँ बाप देते हैं, वैसे ही भाषा की जानकारी ,उसका आहार भी आपको देनी है। समय देना है। बच्चे वही जानेंगे ना जो उनके साथ हो रहा। आप दोनों तो कभी इससे बैठ कर बात नहीं करते, इसे देखकर कुछ बोलते नहीं, तो ये क्या जाने कि बात करना, बोलना भी कुछ होता है। मीरा राजीव को अपनी गलती का एहसास था। मगर गुजरा समय तो आता नहीं, लेकिन आगे से उन्होंने रोहण के साथ समय बिताने और बात करने के महत्व को समझा और इसके लिए प्रयास करने का वचन लिया।



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