कंजुसकी पार्टी

कंजुसकी पार्टी

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जब स्मीतेश दफ्तर पहुँचा तो उसे हार्दिक से खुशखबरी मिली। उसने तो जानेकी तैयारी पहले ही कर ली थी बस् रिलिविंग आर्डरके इंतजार में था। जैसे ही मिल गया उसने दिल्ली का टिकट कटाया। बंबई के दिन खत्म हो रहे थे। आखरी हफ्ते में उसके दोस्तोंने उसे ट्रांसफरकी खुशीमें पार्टी की फरमाईश की। उसने बडी खुशी से पार्टी दी। पर उसने किसीसे पार्टीकीउमीद नहीं की थी।पर उसके कलीग बृजेश की जिद थी कि पार्टी देगा। स्मीतेशने मना किया पर वो नही माना तब इंकार करे भी तो कैसे ? वो न तो हां बोल पा रहा था और न ही उससे ना बोलते बन पा रहा था। बृजेश कुछ दिन उसके साथ था बाद में उसका दूसरे सेक्शनमें ट्रांसफर हो गया। स्मीतेश उसे इतनी अच्छी तरह जानता नहीं था। सबको अच्छा समझता था। एक दिन बृजेश कॅन्टीन में स्मीतेशको लंच के लिए इन्वाईट करता है। स्मीतेशका मन नहीं था, उसने ही दस बार फोन करके कहता है, "तुम ठीक दो बजे कॅन्टीनमें आना हम वहीं खाना खाते हैं।" जब कि लंच का समय एक से दो बजे तक ही था। स्मीतेश बेचारा भूखका मारा करे तो क्या करे ? वो एक घंटा सपना ही देखता रहा।   

फिर पौने दो बजे कॅन्टीन के बाहर थोडा टाईमपास करके ठीक दो बजे जब अंदर आया तो देखकर हैरान रह गया कि जिस बृजेश ने उसे खानेपर बुलाया वो तो अपने दूसरे दोस्तोंके साथ बैठकर आराम से खाना खा रहा था। स्मीतेश हैरान रह गया कि ये मैं क्या देख रहा  

वो बृजेश के सामनेवाली कुर्सी पर बैठते हुए कहता भी है कि "कहीं मैं गलत समय पर तो नहीं आया।" बृजेश बेर्शमोंकी तरह हंसते हुए कहता है "नहीं तू बिल्कुल सही समय पर आया है। "   

स्मीतेश यह सुनकर और भी चौंक जाता है कि "तुझे थोडा और इंतजार करना पडेगा ,तेरा आर्डर लेकर डलिवर बॉय आ रहा है। " सुन कर बडा अजीब सा लगा उसे और देख कर तो वो हैरान ही रह गया था उसने पूछा कि पूछा " पार्टी खत्म हो गई ?" उसने कहा "नहीं " "स्मीतेशने कहा " पर तुम्हारा खाना तो शायद हो चुका ?" उसने फिर भी उसी बेर्शम लहजे में कहा "मैंने तो घरसे खाना लाया था।" मगर स्मीतेश नहीं जान पाया कि उसको पार्टी देनेका क्या मतलब हुआ जब उसके साथ खाना ही नहीं खाना था ? उसके मन में आया कि वो बृजेशसे पूछे कि उसने ऐसा क्युँ किया पर नहीं पूछ पाया क्योंकि उसका बडा अफसर भाई जगदीश भी उसके साथ खाना रहा था। आखरी समयमें वो किसीसे पंगा नहीं लेना चाहता था। उसने सोचा खाना तो ढंग का होगा। पर जब पार्सल खोला तो उसके आश्चर्य का ठीकाना नहीं था।   

बस् एक सलाद था जिसमें न कोई स्वाद था न साथ में कोई चटनी ही थी। ऐसा बेस्वाद खाना किसी भूखे को मिले तो क्या हो ? स्मीतेश ने भारी मन से थोडा खाया पर बाद में उस से खाया भी नहीं जा रहा था। वो कुछ और भी ऑडर नहीं कर सकता था क्योंकि तबतक कॅन्टीनका खानाभी मिलना बंद हो चुका था खाये तो क्या ? उसने देखा कि उसके सेक्शन का एक चपरासी जो खाना खा रहा था, उसे बचा हुआ दे दिया। इसे देखकर बृजेश ने पूछा "क्या हुआ उसे क्युँ दे दिया ?" वो क्या जवाब देता , मजबूरन उसने कहा "बहुत ज्यादा हो गया था"

अगर उसे न देता तो खाने के साथसाथ पैसा भी बर्बाद हो जाता जो मैं नहीं चाहता। स्मीतेश का ऐसा जवाब सुनकर उस बृजेशपर कुछ असर नहीं पडा। स्मीतेश के सब्र का बांध टुटने लगा। पर बेचारा शराफत का मारा करे तो क्या करे ? इस इंतजार में था कि कब बृजेश अपने सेक्शन में जाए तो उसकी जान छुटे। उपरवाले ने जैसे उसकी सुन ली।    

बृजेशके फोनकी घंटी बजी और वो खुद "माफ करना यार "कहकर चला गया। उसके जाते ही स्मीतेश ऐसे वहां से भागा जैसे कोई पंछी पिंजरे से उड जाए।

 दूसरे दिन लंचमें हार्दिक उसे मिला। जब पता चला वो भी हैरान हो गया कि बृजेश पर हंसे या खुब खरी खोटी सुनाए। हार्दिकसे सब कुछ कहकर अपने दिल की भडास निकाली। हार्दिक उसका मूड बनाने के लिए उससे कहता है ," चल वॉक करते हैं।" स्मीतेश बिना कुछ कहे चल पडा। चलते – चलते दोनों "सन्मान रेस्तरां " के सामने आ गए। हार्दिक ने कहा -" चल यार बाहर क्या खडा है अंदर चलते है। " पार्टी तो बनती है।"


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