कंधा
कंधा
"अरे बेटा!! कोई चाहे अफसर बन जाए। फिर भी आदमी के बिना औरत की इज्जत नहीं होती। सब उसे गलत निगाह से देखते हैं। हमें भी तो जिम्मेदारी से मुक्त कर| वरना लोग कहेंगे बेटी की कमाई के चक्कर में उसे सारी उम्र कुंवारा रखा।" सरोज जी ने अपनी बेटी संध्या को कहा।
संध्या पेशे से एक इंजिनियर है। संध्या की नौकरी बंगलौर लग गई और मां, बेटी के साथ ही बंगलौर आ गई।
"अकेली लड़की कैसे रहेगी अनजान शहर में?" यही सोचकर केशव जी ने अपनी पत्नी सरोज को बेटी के साथ भेज दिया ।
गांव में केशव जी, उनकी माता जी और बेटा , बहू सब साथ ही रहते थे।
मां को पिताजी रोज फोन करते -" अरे!! तुम घर यूंही पड़ी रहती हो कि बेटी का कुछ ख्याल भी है!! तुम तो शहर में जाकर बैठी हो!! मुझे यहां रोज अम्मा और रिश्तेदारों की सुननी पड़ती है। अब तो शर्म आने लगी है!!"
सरोज जी -" कैसी शर्म!! बेटी इंजिनियर है, कोई चोर या अपराधी नहीं है।"
केशव जी -" अरे !! लोग कहते हैं और कितने साल बेटी की कमाई खाओगे!! अब तो ब्याह दो!! तुम संध्या से ही पूछ लो कोई पसंद हो तो हमें कोई आपत्ति नहीं!!"
सरोज जी रोज दिलासा देती, और संध्या रोज किसी ना किसी रिश्ते के लिए मना कर देती।
सरोज जी -" बेटा!! अब मेरी और तुम्हारे पापा की उम्र हो गई कि जिम्मेदारियों से मुक्त हों और ईश्वर का ध्यान करें। जल्दी से शादी करवाओ तो हम भी गंगा नहा आएं!"
संध्या -" मां!! बेटी कोई पाप है क्या, जिसे ब्याहकर तुम गंगा जी नहाकर आओगी!!"
सरोज जी -"अरे नहीं बेटी!! ये तो बड़े बूढ़े कह गए हैं! तुम्हें कोई पसंद हो तो बता दो।"
संध्या -"मां! मैं शादी नहीं कर रही इसका मतलब ये तो नहीं कि मुझे कोई पसंद होगा! इसका ये मतलब भी तो हो सकता है कि मुझे कोई दिलचस्पी नहीं शादी में।"
सरोज जी -" नहीं बिटिया!! ऐसा ना बोलो!! तुम्हारे पिताजी ने रिश्तेदारों से लड़कर तुम्हें पढ़ाया, नौकरी के लिए दूसरे शहर भेजा। यूं लोगों में उन्हें शर्मिंदा ना करो।"
संध्या -" मां!! कुंवारी बेटी अपराधी तो नहीं होती कि उसके मां बाप को कहीं मुंह छिपाना पड़े।"
सरोज जी -" बेटा!! समझो तुम मेरी बात!! औरत को आदमी की जरूरत होती है हर मोड़ पर। कल को मैं मर गई तो किसके कंधे सिर रखकर रोएगी! किससे अपनी परेशानी कहेगी!! कोई बुरी नजर से देखेगा तो कौन हाथ थामेगा!!"
संध्या -" मां! चलो मान लो मैंने शादी करली! क्या तुम्हारी तकलीफ़ में पापा ने कभी कंधा दिया है तुम्हे; रोने के लिए!! आज तक भी दादी के सामने पिता जी तुम्हें कुछ नहीं समझते! मैं ये सब ना सह पाई , और फिर रिश्ता टूटे इससे अच्छा तो है अभी मैं सोच समझकर फैसला करूं।"
सरोज जी -"बेटा!! आदमी कैसा भी हो! औरत के सिर की छत होता है!! उसकी इज्जत का पहरेदार होता है।"
संध्या -" मां पिछली साल मामा की बेटी को जब उसके पति ने गली में पीटा था, तब वो पहरेदार कहां गया था। जब उसकी मर्जी हो मारपीट कर घर भेज देता है, उसने कौनसी छत अपनी बीवी के नाम कर दी!!"
सरोज जी -"बेटा!! सबकी किस्मत अलग होती है। वो तो कुछ कमाती नहीं है, इसलिए उसकी मजबूरी है पिटकर भी उसके साथ रहना!"
संध्या -"तो मां इसका मतलब ये हुआ ना कि अगर नौकरी करे, और मार पिटाई हो तो उसे छोड़ दे। इज्जत से जिए। तब भी तो अकेली रहेगी ना!! तब कौनसा कंधा या छत मिलेगी उसे!!"
सरोज जी -" तू मुझसे बहस ना कर!! तुझे शादी करनी पड़ेगी !! मैंने कह दिया बस!! हमारे कंधों से ये जिम्मेदारी उतारने दे!""
संध्या -" तो ये कहो ना मां, कि बेटी बस जिम्मेदारी है जिसे दूसरे के कंधों पर डाल दो और भूल जाओ। फिर कह दो की औरत को कंधों की जरूरत होती है।"
सरोज जी -" तो तू बता, कंधों की जरूरत नहीं होती क्या!!"
संध्या -" मां! कंधों की जरूरत सिर्फ मुर्दा लोगों को होती है क्योंकि वो अपने पैरों से चलकर शमशान घाट तक नहीं जा सकते!! औरत मुर्दा नहीं है, जिंदा इंसान है!!"
सरोज जी -" ये किताबी बातें है बेटा!! एक उम्र ऐसी आयेगी की दूसरों के बच्चों, परिवार को देखकर लगेगा काश मेरा भी कोई होता!!"
संध्या -" औरत का कौन होता है मां!! तुम खुद ही तो कहती हो ! इतने सास जिए, पति सास का! बहू आते ही बेटा बहू का!! बेटी को तो बचपन से सिखाओ कि पराई है। फिर औरत का कौन हुआ??"
सरोज जी के पास संध्या की बातों का कोई जवाब नहीं था, बस संध्या को फटकार लगाती हुईं रसोई घर में चली गई।
संध्या भी मां के पीछे पीछे रसोई में गई, " मां! फैसला तो सुनाओ!! औरत को कंधों की जरूरत है कि नहीं!!"
सरोज जी -" हां भई!! जिंदा औरतों को कंधे की कोई जरूरत नहीं। जिन्होंने अपने सपने,अरमान,क्षमता को मार लिया और खुद मुर्दा बन गईं उन्हें है जरूरत है कंधों की फिर चाहे वो औरत हो या आदमी!"
मां बेटी दोनों खूब ठहाके लगाकर हंसी।
संध्या -" चलो मां इस नए साल का , सोच के नए बदलाव से स्वागत करना और पिताजी को भी समझाना।"
सरोज जी -" तू भी तो बदलाव कर बिटिया!! माना जिंदा औरतों को कंधे की जरूरत नहीं। पर कोई ऐसा मिल जाए जो आपके कंधे से कंधा मिलाकर चले तब तो शादी के बारें में सोचा जा सकता है ना!"
संध्या -" वाह मां!! ये तो सही है। पर आजकल तुम्हे कौन ऐसा मिलेगा जो औरत के उठे कंधों को अपने कंधों समान समझेगा। अगर कोई मिल गया तो गौर करूंगी शादी के बारे में!"
सरोज जी -" देखा आखिर मां किसकी हूं!! बदलाव ला ही दिया तुम्हारी सोच में।"
संध्या -" हां मां!! अब तक तुम पिताजी की कही बात पर ही अडिग थी, अब जब तुमने खुद अपनी सोच बताई तो मुझे भी बदलाव तो लाना ही था!"
चलो ! चाय पीते हैं!!
#दोस्तों!! बदल दो उन पुरानी बातों को जिनका बोझ सदियों से ढो रहे हो।
सच यही है कंधों की जरूरत सिर्फ कमजोर या मुर्दा लोगों को होती है जो अपनी राहें खुद बनाना जान जाएं उन्हें नहीं।
