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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama

4  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama

कलंकित कोई माँ !

कलंकित कोई माँ !

7 mins
180


माँ ही स्वयं को, कलंकित तो अनुभव करती होगीं !  

बारह वर्ष की थी मैं, तब घर में नये नये आये टीवी पर दूरदर्शन पर साप्ताहिक दिखाई जाने वाली फिल्मों में आराधना फिल्म दिखाई गई थी। टीवी का क्रेज़ रहने से, हमारे सयुंक्त परिवार का हर सदस्य, और रविवार की तरह उस दिन भी, टीवी वाले कमरे में चटाई और सोफे पर बैठा था।यूँ तो अगर मैं, पापा से टॉकीज में ऐसी रोमांटिक मूवी देखने जाने की अनुमति माँगती तो, फिल्म बच्चों के देखने लायक नहीं है कह कर उनसे ना सुनने मिलता, मगर घर पर ही सबके द्वारा देखी जा रही होने से, हमें भी अनायास ही, इस फिल्म को देखने का अवसर मिल गया था।

मूवी के गाने सभी एक से बढ़कर एक थे। मन लुभावने दृश्यों का फिल्माँकन भी शानदार था। उम्र के संधि काल पर देखी उस फिल्म ने ही, मेरे मन में, मेरे सपनों के राजकुमार की कल्पना भर दी थी।हम ब्राह्मण थे। विवाह योग्य होने पर, मेरे योग्य खोजे जा रहे वर के लिए, अच्छे परिवारों से ज्यादा दहेज की माँग की जाती थी। इससे तय नहीं हो पाने से, मेरी उम्र अठ्ठाइस की हो गई थी। जो उस समय हो रही शादियों की दृष्टि से, लड़कियों की बड़ी उम्र हो जाना कहलाती थी।

ऐसे समय में तब मेरे लिए, एक रिश्ता लड़के वालों की ओर से आया था। जिसमें दहेज की माँग तो नहीं थी, किंतु मम्मी-पापा, इसे स्वीकृति नहीं दे पा रहे थे। लड़का आर्मी में था। हमारे परिवार एवं रिश्तेदारों में आर्मी वालों से रिश्ते का कोई इतिहास नहीं थासेना में जाना, हमारे यहाँ क्षत्रियों का पेशा माना जाता था। सेना में असमय, प्राण जाने का भय भी, अधिक विद्यमान होता है। साथ ही सेना में ड्रिंक्स आदि के चलन भी होते हैं। इन कारणों से, योग्य सा वर दिखाई देने पर भी, मम्मी-पापा, मेरे मामा एवं फूफा जी आदि सभी असमंजस में थे। 

यद्यपि मेरी बढ़ती उम्र भी, सभी में चिंता का कारण हो रही थी। तब एक संध्या मेरे पापा-मम्मी ने, मुझसे इस प्रस्तावित रिश्ते का, सारा ब्यौरा मुझे बताया और मुझसे कुछ दिनों में सोच कर उत्तर देने के लिए कहा था।उस रात 15-16 वर्ष पूर्व देखी, आराधना फिल्म का स्मरण, मुझे हो आया था। मेरे सपनों में किसी राजकुमार का आना, उसी मूवी के देखने के बाद आरंभ हुआ था। जिसका नायक भी सैन्य अधिकारी था। अतः अपने लिए एक सैन्य अधिकारी का रिश्ता मेरे कल्पना अनुरूप था। मगर साथ ही उस फिल्म के नायक का असमय मारा जाना, मुझे भयभीत भी कर रहा था।

ऐसे पशोपेश में, दो रातों को, मेरी नींद प्रभावित हुई थी।

तीसरी रात, मेरा दिमाग मुझसे तर्क कर रहा था। धिक्कार रहा था कि

"कब तक, तू निर्णय नहीं ले सकेगी ? 

इसको मनाही करेगी, तो क्या तुझे कोई और रिश्ता मिल ही जाएगा ? कुवाँरी रह कर, परिवार पर बोझ रहने से भला तो, यह होगा कि कुछ वर्षों की सुहागन हो जाना! 

और फिर, यह भी तो नहीं कि, सेना में जाने वाला हर अधिकारी तिरंगे में लिपट ही लौटता हो!"

एक और तर्क मेरे मन में यह भी आया कि

ऐसे यदि, हर परिवार और हर दुल्हन, यूँ घबराती रहीं तो, देश रक्षा के लिए सेना में शामिल कौन होगा ? 

मानसिक रूप से मैंने, अपने को सारी स्थितियों के लिए तैयार कर, चौथी सुबह माँ से, इस रिश्ते के लिए हामी भर दी थी।

उसके अगले महीने ही, हमारा ब्याह हो गया था। हालांकि ससुराल आर्थिक रूप से संपन्न था मगर, मेरे पापा की स्थिति को देखते हुए उन्होंने कम बारातियों के साथ, एक तरह से सादगी से विवाह रस्म संपन्न करवाईं थीं। 

दहेज की माँग न करना, योग्य होते हुए भी स्वयं से लड़की वालों से रिश्ते की पहल करना, इन बातों के होने से मुझे जैसी आशा थी वैसे ही, हर्षवर्धन (मेरे पति) और ससुराल सभी बहुत अच्छे थे। विवाह को पँद्रह दिन ही हुए थे कि कारगिल में युध्द के हालात बन गए थे। उन्हें, ड्यूटी पर रिपोर्ट करने कहा गया था।

आनन-फानन ही दो घंटे में वे जाने लगे थे। इतनी जल्दी ही, ऐसी स्थिति आ जायेगी, कल्पना नहीं थी। मोर्चे पर जाने के लिए विदा करते हुए, मैं अपनी रुलाई नहीं रोक पाई थी।

मुझे मालूम था कि, अपनी प्यारी पत्नी (मुझे), जिसके हाथों से ब्याह के समय की मेहँदी भी नहीं छूटी थी, से दूर होते हुए वे स्वयं अत्यंत भावुक थे। मगर पुरुष में वह कला ज्यादा होती है जिससे वह अपने मनोभाव, सफाई से छुपा लेते हैं।

उन्होंने सधी आवाज में आश्वस्त किया था कि युद्ध महीने-दो महीने से ज्यादा नहीं चलेगा, जिसके पश्चात, वे छुट्टी लेकर जल्द घर आएंगे।  

हर्षवर्धन ने विपरीत मौसम में पूरे साहस से दुश्मन से आमने सामने लड़ाई लड़ी थी। दुश्मनों के दाँत खट्टे किये थे। देश जीता था। और तब मुझे, मेरा ईश्वर दयालु अनुभव हुआ था जब, अढ़ाई महीने बाद, वे सकुशल घर आये थनगर वासियों ने जिस स्नेह से उनका स्वागत किया था, उससे हमें अभूतपूर्व गौरव अनुभव हुआ था।

तब, मैं स्वयं के भाग्य पर इतराई थी। उनके प्यार में, साथ और जब वे ड्यूटी पर होते तो उनकी विरह में हर समय उनकी याद करते हुए, फिर समय को पर लग गए थे।

हमारे दो बेटे हो गए थे। जिनके होने से, अब उनके घर पर ना होने का समय भी, बेटों के लालन पालन में, कम उदासी में कट जाया करता था।

यूँ तो आशंका सदैव बनी रहती है, फिर भी हर फौजी के परिवार को, ऐसा दिन नहीं देखना होता है, जैसा मुझे देखने मिला।

2017 में तब मेरा बड़ा बेटा 13 एवं छोटा 10 का था। इसे अपना दुर्भाग्य या सौभाग्य लिखूँ, मुझे समझ नहीं आ रहा है। एक दोपहरी में, पहले, मेरे पति की शहादत की सूचना देने सैन्य अधिकारी आये, फिर अगले दिन तिरंगे से लिपटा उनका शव आया था।मैं भूली नहीं, उस दिन का पल पल। मेरे हृदय में, दो भावनायें निरंतर चल रहीं थीं। एक उनके हमेशा की जुदाई का गहन वेदनादाई विचार था, उसके विपरीत एक गौरव बोध भी था। जो उनकी अंत्येष्टि पर, उपस्थित जन सैलाब एवं सेना के अनेकों जवानों को देखकर होता था।

कभी मैं, बच्चों सहित रोती और कभी उपस्थित लोगों के द्वारा पति के शव को दिए जाते आदर से, मेरा मुख गर्व से दमक जाता था।

राष्ट्रगीत के बैंड के साथ, उनकी चिता को मेरे बेटों द्वारा दी जाती अग्नि के समय, यह विचार मेरे हृदय में कौंधा था कि

सभी लोग मरते हैं एक दिन मगर, कितने ऐसे होते हैं, जिनको ऐसी गौरवमयी विदाई मिलती है। 

यह अलग बात थी कि इतने प्यार करने वाले हर्षवर्धन का साथ, अब कभी आजीवन साकार नहीं हो सकेगा। लेकिन सरकार द्वारा प्रदत्त सहायता, हर्षवर्धन के लिए परमवीर चक्र और हमारे परिवार को हर जगह विशेष सुविधाओं ने, हमें कभी भी अनाथ अनुभव नहीं करने दिया था। 

यद्यपि अक्सर मुझे, वह बात बेहद आहत करती रही थी कि किस विचित्र तरह से वे वीरगति को जिस प्राप्त हुए थे। दरअसल कश्मीर के शोपियां में, एक घर में छिपे आतंकियों से, जब हर्षवर्धन अपने अन्य साथियों के साथ मोर्चा ले रहे थे, तब पीछे से वहाँ के नागरिकों ने उन पर पत्थर बरसा दिए थे।

पीछे के इस खतरे से, बेखबर हर्षवर्धन के सिर पर गंभीर चोट आ गई थी। तब भी, एक टेररिस्ट को मार गिराने के बाद, वे अर्ध बेहोशी में, अन्य टेररिस्ट की फायरिंग में प्राण गँवा बैठे थे।

मुझे यह धिक्कारे जाने योग्य लगता था कि

कैसे देशवासियों की रक्षा हमारे सैनिकों को करना पड़ता है जो उनका नहीं दुश्मनों का साथ देते हैं। अपनी इन सब भावनाओं को अभिव्यक्त करने को प्रेरित, मुझे कल के, उस समाचार ने किया है। जिसमें कल, हंदवाड़ा एनकाउंटर में शहीद हुए, एक शहीद की पत्नी (मेरी तरह ही) अपने वक्तव्य मैं कह रहीं हैं कि

"पति की शहादत पर आंसू नहीं बहाऊंगी। उनकी कुर्बानी मेरे लिए और देश के लिए गर्व की बात है। मेरे आंसू उन्हें ठेस पहुंचाएंगे।"

मैं स्वयं इस स्थिति से गुजरी हूँ। अतः समझ सकती हूँ कि,

क्या और कैसा कुछ पल्लवी के अंतर्मन में चल रहा होगा।

फिर एक पत्नी की, अपनी निजी दुनिया बची नहीं रह गई है।

फिर एक मासूम बेटी, अपने प्यारे पापा के, प्यार से हमेशा के लिए वंचित हुई है।

मैं जानती हूँ, इस बेटी के पापा के, ऐसे जाने से उसने पापा का लाड़ दुलार तो खोया है, मगर हमारे देश के अधिसंख्य नागरिकों का, उसके प्रति अनुराग कुछ हद तक उसकी प्रतिपूर्ति करेगा।इतने बड़े वर्ग की ऐसी सहानुभूति भला, कितनी संतान के भाग्य में होती है ?

उनके जीवन में, बहुत से अवसर ऐसे आएंगे, जब उस प्यारी बेटी के, ऐसे पापा और पल्लवी जी के ऐसे पति के होने पर गौरव अनुभूति करायेंगे। 

तब भी, मेरा एक प्रश्न, मानवता को लेकर उत्पन्न होता रहेगा कि

कोई इंसान कैसे, ऐसा होता है जो, जब सारी दुनिया, कोरोना दुश्मन से, लड़ रही है, ऐसे में किसी देश की आर्मी को चुनौती देने का निकृष्ट कार्य कर सकता है ? निश्चित ही इन वहशियों को यह मानवीय विवेक ही नहीं, जो वक़्त की नजाकत को समझ सके! 

शायद इन्हें पैदा करने पर, इनकी माँ ही स्वयं को, कलंकित तो अनुभव करती होगी !  


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