किस्सा चार बहरों का

किस्सा चार बहरों का

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गाँव से कुछ दूर एक चरवाहा अपनी भेडें चरा रहा था। दोपहर हो चुकी थी, और बेचारे चरवाहे को ज़ोर की भूख लगी थी। ये सही है, कि घर से निकलते हुए उसने अपनी बीबी से कहा ज़रूर था कि खेत में खाना लेकर आए, मगर, बीबी, मानो जानबूझकर नहीं आई।

चरवाहा सोच में पड़ गया: घर जाना तो मुमकिन नहीं है – भेड़ों के झुण्ड को कैसे छोड़े ? जब देखो, तब चुरा ले जाते हैं; यहीं पर जमे रहना – और भी बुरा है: भूख सताये जा रही थी। वो इधर-उधर देखने लगा, देखता क्या है कि - तल्यारी अपनी गाय के लिए घास काट रहा है। चरवाहा उसके पास गया और बोला:

 “प्यारे दोस्त, मेहेरबानी कर: देख, मेरी भेड़ें इधर-उधर ना भाग जाएँ। मैं बस, घर जाकर नाश्ता करके फ़ौरन वापस लौटता हूँ और तेरे काम का अच्छा इनाम दूँगा।”

 शायद चरवाहे ने बड़ी समझदारी का काम किया था; वाक़ई में वो था भी होशियार और सावधान किस्म का इन्सान। उसमें बस एक बात बुरी थी: वो बहरा था, इत्ता ज़्यादा बहरा कि कान के ऊपर हो रही तोप के गोले की आवाज़ भी उसे पलटने पर मजबूर नहीं कर सकती थी; और सबसे बुरी बात तो ये हुई कि वो बात भी बहरे से ही कर रहा था। तल्यारी भी चरवाहे जितना ही बहरा था – न कम न ज़्यादा, इसलिए, ज़ाहिर है कि चरवाहे की बात का एक भी शब्द उसकी समझ में नहीं आया। बल्कि, उसे ऐसा लगा, कि चरवाहा उससे घास छीनना चाहता है, और वो चिल्लाने लगा:

“मेरी घास से तुझे क्या मतलब है ? तूने तो उसे नहीं काटा है, मैंने काटा है। क्या तेरी भेड़ों का पेट भरने के लिए मेरी गाय को भूखा मारना है ? तू चाहे कुछ भी कहे, मैं ये घास तुझे नहीं दूँगा। भाग जा यहाँ से !”

ये कहते हुए तल्यारी ने गुस्से से हाथ झटका,चरवाहा समझा कि वो उसकी भेड़ों का ध्यान रखने का वादा कर रहा है, और, निश्चिंत होकर वह घर की ओर लपका। उसका इरादा बीबी की अच्छी खिंचाई करने का था, जिससे वो आगे कभी उसके लिए खाना लाना ना भूले।चरवाहा अपने घर पहुँचा – देखता क्या है कि उसकी बीबी देहलीज़ पर पड़ी बिसूर रही है, शिकायत कर रही है।

आपको बताना पड़ेगा कि कल रात को उसने कुछ ज़्यादा ही खा लिया था, वो भी कच्चे मटर, और आपको तो मालूम ही है कि कच्चे मटर मुँह में तो शहद से भी ज़्यादा मीठे लगते हैं, मगर पेट में जस्ते से भी ज़्यादा भारी साबित होते है। हमारे भले चरवाहे ने बीबी की यथासंभव मदद की, उसने उसे पलंग पर लिटाया और कड़वी दवा पिलाई, जिससे उसकी तबियत कुछ संभल गई। इस बीच वो खाना खाना भी नहीं भूला। इस झंझट में काफ़ी समय बीत गया। “पता नहीं मेरी भेड़ों के झुण्ड का क्या हो रहा है ? मुसीबत आते देर कितनी लगती है !” चरवाहे ने सोचवह जल्दी-जल्दी वापस लौटा और देखा कि उसका रेवड़ आराम से उसी जगह चर रहा है जहाँ वो उसे छोड़कर गया था। मगर, फिर भी, होशियार आदमी होने की वजह से उसने अपनी भेड़ों को फिर से गिना। वे उतनी ही थीं, जितनी उसके जाने से पहले थीं, और उसने सोचा, ‘ये तल्यारी ईमानदार आदमी है ! इसे इनाम देना चाहिए। चरवाहे की रेवड़ में एक जवान भेड़ थी: हाँ, वह लंगड़ाती ज़रूर थी, मगर अच्छी मोटी-ताज़ी थी। चरवाहे ने उसे कंधे पर उठाया और तल्यारी के पास आकर ब “धन्यवाद, तल्यारी महाशय, कि तुमने मेरी रेवड़ का ध्यान रखा ! ये ले एक पूरी भेड़ इनाम में।तल्यारी, ज़ाहिर है, चरवाहे की किसी भी बात को समझ नहीं पाया, मगर लंगड़ी भेड़ को देखकर पूरी ताक़त से चीखा : “अगर ये लंगड़ाती है, तो मैं क्या करूँ ! मुझे कैसे मालूम कि किसने उसे ऐसा अपाहिज बना दिया ? मैं तो तेरी रेवड़ के पास फटका तक नहीं। मुझे क्या करना है ?" 

“ये सच है कि ये लंगड़ाती है,” तल्यारी की बात न सुनते हुए चरवाहा कहता रहा, “मगर फिर भी ये अच्छी भेड़ है – जवान है, और मोटी-ताज़ी भी। इसे रख ले, पका के अपने दोस्तों के साथ खा लेना।”

 “तू यहाँ से जाता है कि नहीं !” तल्यारी आपे से बाहर होकर चीखा। “मैं तुझे फिर से कहता हूँ कि मैंने तेरी भेड़ का पैर नहीं तोड़ा और ना तो मैं तेरे रेवड़ की तरफ़ गया, ना ही उस पर नज़र डाली।”

मगर चरवाहा, उसकी बात न समझते हुए उसके सामने भेड़ लेकर खड़ा ही रहा और उसकी तारीफ़ करता रहा। तल्यारी और ज़्यादा बर्दाश्त न कर सका और उस पर मुक्का दे मारा।

चरवाहे को भी गुस्सा आ गया, और वो भी आत्म रक्षा की तैयारी करने लगा, और वे आपस में भिड़ ही जाते यदि वहाँ से गुज़रता हुआ एक घुड़सवार उन्हें रोक न लेता।

आपको बता दूँ कि हिन्दुस्तानियों की एक आदत होती है कि जब वे किसी बात के बारे में बहस करने लगते हैं, तो जो आदमी उन्हें नज़र आ जाता है, उससे फ़ैसला करने की प्रार्थना करते हैं।

तो, चरवाहे और तल्यारी ने दोनों ओर से घोड़े की लगाम पकड़ ली जिससे की वे घुड़सवार को रोक लें।

 “मेहेरबानी करके एक मिनट रुक जाइये और फ़ैसला कीजिए: हममें से कौन सच्चा है और कौन क़ुसूरवार है ? मैं इस आदमी को उसकी सेवाओं के लिए धन्यवाद स्वरूप अपनी रेवड़ की एक भेड़ दे रहा हूँ, और इसने मेरी इस भलमनसाहत के बदले मुझे बस मार ही डाला।”

 “मेहेरबानी करके एक मिनट रुक जाईये और फ़ैसला कीजिए: हममें से कौन सच्चा है और कौन क़ुसूरवार है ? ये दुष्ट चरवाहा मुझ पर इल्ज़ाम लगा रहा है कि मैंने उसकी भेड़ को लंगड़ा बना दिया, जबकि मैं इसकी रेवड़ के पास गया तक नहीं।”

मगर अफ़सोस, उन्होंने जिस आदमी को फ़ैसला करने के लिए चुना था, वो इन दोनों से भी ज़्यादा बहरा निकला। उसने हाथ के इशारे से दोनों को चुप रहने को कहा और बोला:

 “मुझे आपके सामने स्वीकार करना होगा कि ये घोड़ा मेरा नहीं है, मुझे तो ये रास्ते में मिला था, और चूँकि मुझे ज़रूरी काम से जल्दी शहर पहुँचना है, मैं इस पर बैठ गया। अगर ये आपका है, तो ले लीजिए, मगर मुझे छोड़ दीजिए : मेरे पास रुकने के लिए समय नहीं है।”

चरवाहे ने और तल्यारी ने कुछ भी नहीं सुना, मगर उनमें से हरेक को ऐसा लगा कि घुड़सवार उसके ख़िलाफ़ फ़ैसला दे रहा है।

इसी समय रास्ते पर एक बूढ़ा ब्राह्मण दिखाई दिया।

तीनों उसके पास लपके और अपनी-अपनी बात उसे सुनाने लगे। मगर ब्राह्मण भी उतना ही बहरा था जितने ये तीनों थे।

 “समझ रहा हूँ ! सब समझ रहा हूँ !” उसने जवाब दिया, “उसने तुम तीनों को मुझे मनाने के लिए भेजा है, जिससे मैं घर वापस लौट जाऊँ (ब्राह्मण अपनी पत्नी के बारे में कह रहा था)। मगर तुम लोग क़ामयाब नहीं होगे। क्या तुम्हें मालूम है कि पूरी दुनिया में इस औरत से बुरी और कोई औरत नहीं हो सकती। जब से मेरी उससे शादी हुई है, उसने मुझसे इतने पाप करवाए हैं कि गंगा के पानी से भी वे धुल नहीं सकते। बेहतर है कि मैं परदेस में जाकर भीख माँगने लगूँ। मैंने पक्का फ़ैसला कर लिया है और तुम्हारी सारी मिन्नतें भी मुझे अपना इरादा बदलकर उस औरत के साथ रहने पर मजबूर नहीं कर सकतीं।”

अब तो पहले से भी ज़्यादा शोर होने लगा; सभी गला फ़ाड़-फ़ाड़कर चिल्ला रहे थे, कोई भी एक दूसरे की बात नहीं समझ रहा था। इस बीच घोड़ा-चोर ने कई आदमियों को उनकी ओर भागकर आते देखा, उसने समझा कि ये घोड़े के मालिक हैं। वह फ़ौरन घोड़े से कूदकर भाग गया।

चरवाहे ने देखा कि देर होती जा रही है, और उसकी भेड़ें इधर-उधर भाग गई हैं, इसलिए उसने जल्दी-जल्दी अपनी भेड़ों को इकट्ठा किया और गाँव की ओर चल पड़ा। वह भुनभुना रहा था कि दुनिया में इन्साफ़ नामकी चीज़ ही नहीं है, और सारा दोष उस साँप पर लगा रहा था, जिसने आज घर से निकलते ही उसका रास्ता काटा था – हिन्दुस्तानियों में ये एक बुरा शगुन समझा जाता है। 

तल्यारी अपने काटे हुए घास के ढेर के पास आया, और वहाँ निरपराध, मोटी-ताज़ी भेड़ को देखा जो इस झगड़े का कारण थी। उसने उसे कंधे पर डाला और अपने घर ले आया। उसकी नज़र में चरवाहे की यही सज़ा थी।

ब्राह्मण पास ही के गाँव में रात गुज़ारने के लिए रुक गया। भूख और थकान ने उसके क्रोध को काफ़ी हद तक शांत कर दिया था। और दूसरे दिन उसके रिश्तेदारों और मित्रों ने आकर उसे घर वापस लौटने के मना लिया। उन्होंने ये वादा किया कि उसकी झगडालू बीबी को अच्छी सलाह देकर ठीक कर देंगे।

दोस्तों, इस कहानी को पढ़कर तुम्हारे दिमाग़ में कौन सा ख़याल आता है ? शायद, कुछ इस तरह का: दुनिया में सब तरह के लोग होते हैं, बड़े भी और छोटे भी, जो हालाँकि बहरे नहीं होते, मगर बहरों से बेहतर भी नहीं होते: उनसे अगर कुछ कहो, तो वो सुनते नहीं हैं; किसी भी बात का यक़ीन दिलाओ – समझते नहीं हैं; अगर एक दूसरे से मिलते हैं तो बहस करने लगते हैं, वे ख़ुद भी नहीं जानते कि किस बात पर बहस कर रहे हैं। बगैर किसी कारण के झगड़ने लगते हैं, बिना अपमान के बुरा मान जाते हैं, मगर ख़ुद लोगों की शिकायत करते रहते हैं, क़िस्मत को दोष देते हैं या फिर अपने दुख का कारण किसी शगुन-वगुन को मान बैठते हैं, जैसे कि नमक का बिखरना, काँच का टूटना। मिसाल के तौर पर मेरा एक दोस्त कभी भी क्लास में टीचर की बात नहीं सुनता था, और अपनी बेंच पर बहरे जैसा बैठा रहता था। हुआ क्या ? वो बेवकूफ़ ही रहा: कोई भी काम उससे हो नहीं पाता था। होशियार लोगों को उस पर दया आती है, चालाक लोग उसे धोखा देते हैं, और वो, क़िस्मत को ही दोष देता है।

दोस्तो, मेहेरबानी करके बहरे मत बनो ! हमें ईश्वर ने कान इसलिए दिए हैं कि हम सुन सकें। एक बुद्धिमान आदमी ने ये कहा था कि हमारे पास दो कान और

एक ज़ुबान होती है और इसलिए, हमें ज़्यादा बोलने के बजाय ज़्यादा सुनना चाहिए।


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