ख़ुराक़
ख़ुराक़
आज टिफिन न ले जाने के कारण दोपहर में सोचा नीचे कैंटीन में खाना खा लेता हूँ। कैंटीन के खाने की थाली लगभग घर जैसी ही होती हैं, गेंहू की रोटी, दाल, सब्ज़ी, अचार, दही, पापड़, सलाद इत्यादि। दोपहर को इस कैंटीन में काफ़ी भीड़ रहती हैं इसलिए मैं थोड़ा देरी से गया। टेबल पर एक वृद्ध उम्र यही कोई सत्तर पार बैठे भोजन कर रहे थे, वही टेबल खाली होने के कारण मैं भी वहीं बैठ गया। बैरा वृद्ध के आदेश का पालन कर रहा था मानो उसके हर आदेश पर उनके ज़रूरत की चीज़ पहले से ही हाज़िर कर रहा था, जैसा कि उसे पता हो कि अब उन्हें क्या देना हैं, कभी कभी तुनक भी जाते थे चचा।
मेरी थाली आ गई थी और मैं खाने में व्यस्त तो हुआ लेकिन बार बार मेरी नज़र उनके ऊपर ठहर जाती थी, मेरा ऐसा देखना उन्हें अच्छा नहीं लगा और मुझे समझाते हुए ऊंची आवाज़ में बोले,
हाँ, छ: रोटी और थोड़ा चावल मेरी ख़ुराक़ हैं माना उम्र में भूख बढ़ने से थोड़ी बढ़ गई है तो क्या ख़ुद की कमाई का खाता हूं, नहीं तो वो मुझे मार ही दिये होते कहते थे बाबूजी ज्यादा मत खाया करो बुढ़ापे में बेवजह तकलीफ़ होगी, अरे उन्हें क्या पता बचपना और बुढ़ापे का ख़ुराक़ एक जैसा होता हैं छः टाईम भी खाये तो कम हैं कहकर रोने लगे।
मैं कई प्रश्न लेकर असमंज की स्थिति में उन्हें देखता रह गया मुझे भी रिटायर होने में दो माह ही बचे हैं।