girish pankaj

Abstract

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कहानी ज्ञान का पिटारा

कहानी ज्ञान का पिटारा

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दशरथनंदन चतुर्वेदी उस इलाके के पुराने लेखक थे। देश की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हुआ करती थीं। लेखन के साथ- साथ दशरथनंदन को नाटक लिखने का भी शौक था। उनकी कुछ कहानियों पर मित्रों के आर्थिक सहयोग से लघु फिल्में भी बनाई गयीं। एक दिन उनके पुराने मित्र सुमनकुमार ने उन्हें प्रेरित कर दिया कि "आप की चर्चित कहानी 'ज्ञान का पिटारा' पर एक बड़ी फीचर फिल्म बन सकती है, जो बच्चों को बहुत प्रेरित करेगी।आप कुछ कीजिए।"

मित्र की बात सुनकर चतुर्वेदी जी ने कहा, " लेकिन फिल्म बनाने के लिए तो बहुत पैसे लगते हैं। मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है। सेवानिवृत्त हो गया हूं। छोटी-सी पेंशन है। बड़ी मुश्किल से तो घर का ही गुजारा होता है। फिल्म बनाना मेरे बस की बात नहीं है।"

सुमन कुमार ने कहा, " अरे, आपको पैसे लगाने नहीं पड़ेंगे। सरकार के पास एक बजट होता है ,जो लोक- कल्याण कार्यों के लिए ही खर्च किया जाता है। आप जब बच्चों के लिए फिल्म बनाएंगे और वो फिल्म जब बच्चे देखेंगे, तो उनको प्रेरणा मिलेगी। यह भी कल्याणकारी कार्य है। ऐसे कार्य के लिए संस्कृति विभाग भी होता है। शिक्षा विभाग भी है। इन सब से आपको पैसा मिल सकता है। आप आसानी से फिल्म बना सकते हैं।"

सुमन कुमार की बात सुनकर दशरथनन्दन कुछ उत्साहित हुए। उन्होंने सोचा, यह तो बड़ी अच्छी बात हो जाएगी। अगर उनकी कहानी पर फिल्म बन जाय तो क्या कहने। उनकी दो पटकथाओं पर लोकल टीवी से बहुत पहले नाटक प्रसारित भी हो चुके थे। सुमनकुमार की बातों से उत्साहित हो कर उन्होंने दिन रात भिड़ कर के एक पटकथा तैयार कर ली। लेकिन बाद में हिम्मत नहीं हुई कि कहीं जाकर आवेदन दें। क्योंकि सरकारी सिस्टम के बारे में उन्हें पहले से ही पता था। वहां केवल घुमाने का काम होता है। कोई भी काम आसानी से होता ही नहीं। चक्कर लगा-लगा कर लोगों की चप्पलें ही घिस जाती हैं। बस इसलिए दशरथनन्दन का जोश ठंडा हो गया और वह चुपचाप बैठ गए।

बहुत दिनों के बाद सुमनकुमार फिर उनके घर पधारे, तो पूछा, "ज्ञान का पिटारा की पटकथा तो आप लिख रहे थे। उसके बाद बात कुछ आगे बढ़ी या नहीं ?"

चतुर्वेदी जी ने कहा, " बात तो जहां-की-तहां है, पार्टनर। मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि किसी अफसर से जाकर मिलूँ, क्योंकि उनके चरित्र को मैं जानता हूं। ये लोग काम करते नहीं है। उसे कल-परसों पर टाल देते हैं। इनका कल कभी आता नहीं। मैं कब तक इनके चक्कर लगाता रहूंगा।"

चतुर्वेदी की बात सुनकर सुमनकुमार ने सहमति में सिर हिलाया और कहा, "बात तो ठीक कह रहे हैं आप। यहीं आकर तो सृजन की सारी गाड़ियां रुक जाती हैं। चलिए, फिर कभी अवसर मिला तो देखेंगे।"

दोनों मित्र चाय पीते हुए देश- दुनिया की चर्चा करने लगे और फिल्म की बात आई-गई हो गयी। एक दिन चतुर्वेदी ने अखबार में एक खबर पढ़ी, जिसमें संस्कृति मंत्री के विचार छपे थे। मंत्री भद्रभूषण ने एक समारोह में कहा कि "बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए कला एक सशक्त माध्यम है। दुख की बात है कि आज बच्चों के लिए कोई फिल्म नहीं बन रही है। सारा ध्यान बड़ों के जन-जीवन पर केंद्रित होकर रह गया है। जबकि एक दौर था बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए निरंतर फिल्में बना करती थीं। 'जागृति' और 'बालक' से लेकर 'तारें ज़मीं पर' जैसी फिल्में भला कौन भूल सकता है। यह तो समय की मांग है कि बच्चों के लिए सकारात्मक फिल्में बनाई जाएँ। इस काम के लिए जितना संभव हो सकेगा, हमारी सरकार मदद करेगी। मैं वचन देता हूं। सरकार पीछे नहीं हटेगी।"

मंत्री का बयान पढ़कर दशरथनन्दन को लगा कि उनका सपना अब साकार हो सकता है। मंत्री ही जब इतनी अच्छी बात कर रहा है, तो क्यों न सीधे इस मंत्री से ही मिला जाय। लेकिन अकेले जाने की हिम्मत न हुई, तो उन्होंने मित्र सुमनकुमार को फोन किया और कहा कि "यार, एक बार मंत्री भद्रभूषण से मिलकर फिल्म के लिए अनुदान की बात कर ली जाय, तो कैसा रहेगा ? मंत्री ने खुद पिछले दिनों कहा है कि बच्चों के लिए फिल्म बनानी चाहिए। मैं मदद करूंगा।"

दशरथनंदन की बात सुनकर सुमनकुमार को हँसी आ गई। वह बोले, " तुम भी बड़े भोले हो, मित्र। लेकिन अब कहते हो, तो मंत्री से मिलने का जुगाड़ जमाता हूं। लेकिन बड़े पापड़ बेलने पड़ेंगे। मंत्री के पीए आसानी से मिलने का मौका नहीं देते। घेरे बंदी किए रहते हैं। इधर-उधर घुमाते रहेंगे। फिर भी कोशिश करता हूं।"

सुमनकुमार का थोड़ा-बहुत परिचय मीडिया वालों से था इसलिए रिपोर्टर रामभरोसे के माध्यम से उन्होंने भद्रभूषण से मिलने का समय ले लिया। निर्धारित तिथि पर दशरथनंदन सुमनकुमार के साथ मंत्री से मिलने पहुंच गए। जैसा कि अकसर होता है,दोनों मित्र बहुत देर तक मंत्री जी के कक्ष के बाहर उनका इंतजार करते रहे। जब काफी देर हो गई, तो दशरथनंदन ने सुमनकुमार से कहा, " अब वापस चलना चाहिए। लगता है, देवता के दर्शन नहीं होंगे।"

दशरथनंदन की बात मंत्री के पीए ने सुन ली, तो उसे लगा, अब जल्दी करना चाहिए। इस बीच दशरथनंदन और सुमनकुमार जाने के लिए खड़े भी हो गए, तो पीए ने पास आ कर कहा, "थोड़ी देर में मंत्री जी खाली हो जाते हैं। मैं फौरन आप लोगों को बुलाता हूं।"

पीए की बात सुनकर दोनों बैठ गए। कुछ ही देर बाद पीए ने दशरथनंदन और सुमनकुमार को भीतर भेज दिया। दशरथनंदन ने मंत्री को नमस्ते कर के उस समाचार पत्र की कटिंग दिखाई, जिसमें मंत्रीजी ने बाल फिल्मों को प्रोत्साहित करने की बात कही थी। अखबार की छपी रपट को देखकर मंत्री प्रसन्न हो गए और बोले, "मैं चाहता हूं कि बच्चों की प्रतिभा विकसित हो। बच्चे देश का भविष्य हैं। उन्हें अच्छी पढ़ाई के अवसर मिलें और मनोरंजन के माध्यम से उन्हें कुछ बेहतर सीख भी। इस काम में आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं।"

दशरथनन्दन ने कहा, " इसीलिए तो आप से मिलने आया हूँ। मैंने एक फिल्म लिखी है, 'ज्ञान का पिटारा' लेकिन उसके निर्माण में कम-से-कम तीस लाख रुपये खर्च होंगे। अगर सरकार यह व्यवस्था कर दे, तो बड़ी कृपा हो।"

भद्रभूषण ने कहा, "आप कोई प्रपोजल लाए हैं ?" दशरथनंदन ने कहा, " जी, एक प्रपोजल तैयार है। आपकी सेवा में उसे प्रस्तुत कर रहा हूं।"

इतना कहकर दशरथनंदन ने एक कागज मंत्री की ओर बढ़ा दिया। भद्रभूषण उस कागज को ध्यान से देखते रहे और अपनी मुंडी हिलाते हुए उन्होंने मुँह से पहले इकलौते शब्द का उच्चारण किया, "हूँ"। ..फिर कुछ देर तक मुंडी हिलाते रहे। उसके बाद दो शब्द और निकले, "देखता हूं "। फिर उन्होंने उस कागज के एक कोने में कुछ लिखा और मुस्कुराते हुए बोले, "आपका काम हो गया समझिए। मैंने सचिव को मार्क कर दिया है। सप्ताह भर बाद आप सचिव से मिल लीजिएगा। वह पैसों का बंदोबस्त कर देंगे। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।.. क्या लेंगे ? चाय या कॉफी ?"

भद्रभूषण की बात सुनकर दशरथनन्दन कुरसी से खड़े हो गये और हाथ जोड़कर बोले, "धन्यवाद! मैं चाय-कॉफी कुछ पीता नहीं। बस, मेरा यह काम हो जाय तो समझिए चाय भी पी ली और कॉफी भी पी ली। आप जैसे सहिष्णु लोगों के बलबूते ही साहित्य-संस्कृति और कला ज़िंदा रह सकती है। आपका बहुत-बहुत आभार। मैं एक हफ्ते बाद संस्कृति सचिव से मिल लूंगा।"

भद्रभूषण ने मुस्कान बिखेरते हुए कहा," जरूर मिल लीजिएगा। मैं उनको फोन भी कर देता हूं।"

इतना बोल कर उन्होंने अपने पीए से कहा," मिस्टर डीएस देव को फोन लगाओ।" फिर दशरथनंदन की ओर देखते हुए बोले, "ठीक है।.. धन्यवाद। आप निकलिए और अपना काम शुरू कर दीजिए।"

दशरथनंदन सुमनकुमार के साथ प्रसन्न मुद्रा में बाहर निकले और सुमनकुमार को धन्यवाद देते हुए बोले, "आप के कारण मंत्री से मेरी मुलाकात हो गई। लगता है, अब वर्षों की मेरी तमन्ना पूरी हो जाएगी।"

सुमनकुमार ने मुस्कराते हुए कहा, "आगे आगे देखिए होता है क्या!"

दशरथनन्दन ने सुमनकुमार को घूर कर देखते हुए कहा, " अरे! क्या आपको अभी भी कोई शक है कि काम नहीं होगा ? मंत्री ने आपके सामने ही तो कहा है। प्रदेश के एक बड़े मंत्री ने आश्वासन दिया है। संस्कृति, शिक्षा और न जाने कितने विभागों के मंत्री हैं। मुझे लगता है, अपना काम होकर रहेगा।"

दशरथनंदन के उत्साह को देखकर सुमनकुमार चुप हो गए और दशरथनंदन को उनके घर छोड़कर अपने घर चले गए।


एक सप्ताह जब बीत गया, तो दशरथनंदन को लगा, सचिव से जाकर मिल लेना चाहिए। फिर सोचा, हो सकता है सरकारी काम है, फाइल सरकते -सरकते अभी सचिव तक पहुंची ही ना हो, इसलिए एक सप्ताह और निकल जाने देते हैं। जब दो सप्ताह बीत गए तो दशरथनंदन सचिव डीएस देव से मिलने उनके दफ्तर पहुंच गए। अपने नाम की पर्ची भिजवाई। उसके नीचे अपना काम भी लिखा। आधे घंटे बाद सचिव के पीए ने कहा, "जाइए , साहब बुला रहे हैं।"

अंदर प्रवेश करने के बाद दशरथनंदन ने पूछा," मंत्री जी ने फिल्म निर्माण के संबंध में कोई आदेश किया होगा। उसी के सिलसिले में आया हूँ।"

सचिव देव ने कहा, " मंत्री का कागज मेरे सामने हैं। उन्होंने आदेश-वादेश तो कुछ किया नहीं हैं, बस, इतना ही लिखा है कि मिलकर चर्चा कर लें। लिखने के नाम पर वे बस इतना ही लिखा करते हैं कि मिलकर चर्चा कर लें। मिलूँगा तो चर्चा कर लूँगा। अभी कुछ दिनों तक तो मैं व्यस्त हूं। उसके बाद उनसे मिल कर चर्चा ज़रूर करूंगा। वैसे तो अब बजट भी खत्म हो रहा है। फिर भी मंत्री जी से एक बार मिल लूँ। सारी स्थिति उनको बता दूं। उसके बाद ही कुछ कह पाऊंगा। आप ऐसा कीजिए न, एक सप्ताह बाद मुझसे मिलें।"

दशरथनंदन निराश हो गए। फिर भी उन्होंने सोचा, चलो एक सप्ताह और देख लेते हैं। वह एक सप्ताह बाद दफ्तर पहुंचे, तो पीए ने बताया, "साहब तो छुट्टी पर हैं। पाँच दिन बाद आएंगे।"

दशरथनंदन यह सोच कर खींझ उठे कि इसका मतलब यह हुआ कि अब एक सप्ताह और निकल जाएगा! कोई बात नहीं। 'हारिए न हिम्मत बिसारिया ना राम' कहते हुए वह घर लौट आए। जाते-जाते पीए से सचिव के दफ्तर का नंबर नोट करके ले आए ताकि अगली बार आने से पहले पता कर लेंगे कि साहब दफ्तर में है या नहीं।

एक सप्ताह बाद दशरथनंदन ने फोन लगाया, तो पीए ने उठाकर जवाब दिया, " साहब अभी मीटिंग में है। दो घंटे बाद फोन कर लीजिए।"

दशरथ नंदन ने दो घंटे बाद फोन लगाया, तो पीए ने कहा, " साहब लंच के लिए चले गए हैं। एक घंटे बाद बात हो जाएगी।"

दशरथ नंदन एक घंटे बाद फोन लगाया, तो पीए ने कहा, " सर बैठक ले रहे हैं। आधे घंटे बाद फुर्सत होगी।"

दशरथनंदन ने कहा, " कोई बात नहीं। एक घंटे बाद फोन करूंगा।

एक घंटे बाद आखिरकार पीए ने बात करवा दी।

"सर, मेरे उस प्रोजेक्ट का क्या हुआ ?" दशरथ नंदन ने पूछा तो सचिव ने जवाब दिया, "किस प्रोजेक्ट के बारे में बात कर रहे हैं ?"

"वही फीचर फिल्म 'ज्ञान का पिटारा' के बारे में। आपने कहा था, एक सप्ताह बाद बात कर लेना।इसलिए...!"

" ओहो! अच्छा अच्छा। उस के बारे में। हां देखिए, उसके बारे में मेरी मंत्री जी से बात हुई है। लेकिन क्या है कि अभी हमारे पास बजट नहीं है। जितना पैसा था, सब मार्च आते-आते तक लैप्स हो चुका है। अब नये सत्र में नया बजट आएगा, उसके बाद ही हम कुछ कर सकेंगे। आप ऐसा कीजिए न, दो महीने बाद मुझसे मिलिए। तब मैं कुछ मदद कर सकता हूं।"

इतना कहकर सचिव डीएस देव ने फोन काट दिया। दशरथनंदन को बड़ा गुस्सा आया : यह तो घुमाने वाली बात हो गई। जिसके बारे में मैं शुरू से सोच रहा था, वही हुआ। सरकारी सिस्टम का मतलब क्या यही होता है कि लोगों को परेशान करो। दशरथ नंदन बड़बड़ाने लगे कि आखिर किस चुतियापे में फँस गया हूं।.. किन लोगों के पीछे भाग रहा हूं।...जिनकी दो कौड़ी की बौद्धिक हैसियत नहीं, उनके पीछे अपने जीवन के सुनहरे पल काले किए जा रहा हूं।...बेहतर होगा घर पर बैठकर आराम करूँ।... यहां तो लगता है मंत्री से लेकर सचिव तक सब मिले हुए हैं। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।... यह कैसा सिस्टम है कि हमारा मंत्री इतना कमजोर है कि वह अपना विवेक ही नहीं रखता ? जब संस्कृति सचिव उसे कुछ बताएगा, तब वह विचार करके निर्णय करेगा कि क्या करना चाहिए ?...आखिर क्यों अंगूठा छाप, चेतनाशून्य जनप्रतिनिधि मंत्री बना दिया जाते हैं ?.. मंत्री का मतलब तो यह होना चाहिए कि वह अधिकारपूर्वक कागज पर आदेश लिखें कि यह काम करके मुझे फौरन सूचित करें'।

दशरथनंदन ने तय कर लिया कि अब न तो सचिव से मिलेगा और न ही मंत्री से। लेकिन जब दो महीने बीत गए, तो दशरथनंदन का मन नहीं माना। सोचा, चलो आखरी बार कोशिश करके देख लेते हैं। शायद सचिव ने मंत्री से बात करके फिल्म के लिए बजट निकाल ही लिया हो। दशरथनंदन सचिव से मिलने पहुंच गए। पहले दिन तो वह मिले ही नहीं, दूसरे दिन बड़ी मुश्किल से पीए ने समय दिया कि शाम को आ कर मिल लें। शाम को जब दशरथनंदन सचिव से मिले तो उसने कहा, "देखिए, आपका काम हो जाएगा। आप दो सप्ताह बाद आकर अपना चेक ले जाएं।"

दशरथनंदन की खुशी का ठिकाना न रहा। वह सोचने लगे, इतने महीने बाद ही सही, वह शुभ घड़ी आ गई, जब चेक मिलेगा और उसके बाद फिल्म निर्माण का उनका सपना पूरा हो जाएगा। दो सप्ताह बाद दशरथनंदन जब कार्यालय पहुंचे, तो पीए ने बताया, "अभी आपका चेक बनकर नही आया है। दो दिन बाद आकर पता करें। "

दशरथनंदन दो दिन बाद आकर मिले तो पता चला चेक नहीं बना है। दशरथनंदन लगभग रोज आते और चेक के बारे में पता करते। रोज़ यही ज़वाब मिलता, "चेक नहीं बना"।

एक दिन निराश होकर दशरथनंदन ने सचिव को फोन लगाया और शिकायत की कि "चेक अब तक नहीं बना। बताइए मैं क्या करूं।"

सचिव ने गुर्राते हुए कहा, " देखिए, मैंने अपना काम कर दिया है। चेक अपने समय पर बनेगा। अब आप दोबारा मुझे फोन न करें। मेरे पीए से ही बात करें।"

दशरथनंदन चुप हो गए। उन्होंने सोचा, एक सप्ताह बाद ही दफ्तर जाऊंगा और पता करूंगा। सप्ताह भर बाद वे पीए से मिले और पूछा, " हमारे चेक का क्या हुआ, बंधु ?"

पीए ने मुस्कराते हुए कहा, " अभी तक तो नहीं बना। प्रोसेस में है। देखिए, कब तक बनता है। सरकारी काम के बारे में तो आप जानते ही हैं कि लखनवी नवाबों की स्टाइल में होता है, धीरे-धीरे।''

दशरथनंदन को बड़ा गुस्सा आया। उन्हें लगा पीए को ही दो झापड़ रसीद कर दूँ। लेकिन ऐसी अभद्रता करना ठीक नहीं था। "धीरज, धरम, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी" की पंक्ति को गुनगुनाते हुए वह घर की ओर चल पड़े। रास्ते में सुमनकुमार का घर पड़ता था, तो उनके पास पहुंच गए बैठने और उन्होंने पिछले कुछ महीनों का सारा किस्सा बयान कर दिया।

दशरथनंदन की बात सुनकर सुमनकुमार ने मुस्कराते हुए कहा, "यह इश्क नहीं आसां इतना तो समझ लीजिए एक आग का दरिया है और डूब के जाना है।"

दशरथनंदन ने पूछा," क्या मतलब है आपका ?" तो सुमनकुमार ने कहा, "भाई साहब, आपको तीस लाख रुपये मिलने वाले हैं और आप सरकारी सिस्टम को दो-तीन लाख भी गिफ्ट नहीं करना चाहते ? यह अच्छी बात नहीं है। यहां बिना कुछ दिए कुछ पाना बड़ा कठिन होता है। जब तक आप इन लोगों की जेबें गरम नहीं करेंगे, आपका चेक बनेगा नहीं।"

"लेकिन इनको देने के लिए मेरे पास पैसे कहां है ? हाँ, अगर मिल जाएं, तो उसके बाद भले ही उसी में से कुछ दे सकता हूँ।"

सुमनकुमार ने कहा,"सरकारी सिस्टम में ऐसा बिल्कुल नहीं होता। यहां एडवांस बुकिंग करनी पड़ती है। पहले पैसा दीजिए, फिर चेक प्राप्त कीजिए, वरना नमस्ते!"

दशरथनंदन ने कहा, "अजीब तमाशा है। अब मैं तीन लाख का बंदोबस्त कहां से करूं। कौन मुझे देगा ? और मान लो पैसे एकत्र करके दफ्तर को मैंने खिला भी दिए, तो क्या गारंटी है कि मुझे चेक मिलेगा ही ? और अगर नहीं मिला तो फिर जिंदगी भर तीन लाख की उधारी कैसे पटा सकूंगा ? इसलिए अब तो मुझे लगता है कि फिल्म बनाने का आइडिया ड्रॉप कर देना चाहिए। वरना इस चक्कर में कहीं मुझे हार्ट-अटैक न हो जाय।"

सुमनकुमार ने कहा, " अरे भाईसाहब, नर हो न निराश करो मन को। अब आप आराम से घर बैठिए और उस दिन की प्रतीक्षा कीजिए, जब आपके पास संस्कृति सचिव के पीए खुद फोन करे कि आपका चेक बनकर तैयार है, आकर ले जाइए। बेकार में दफ्तर के चक्कर लगाना आप की गरिमा के खिलाफ है।"

दशरथनंदन को सुमनकुमार की यह बात जम गई और वे चुपचाप बैठ गए। कुछ दिन तक फोन का इंतजार करते रहे लेकिन कोई फोन ही नहीं आया। एक बार तो दशरथनंदन के मन में यह बात भी आई कि क्यों न फिर मंत्री भद्रभूषण से मिलकर इस बारे में बात की जाय लेकिन वे जानते थे कि मंत्री से मिलेंगे, तो उनका ज़वाब यही होगा कि ''मैंने तो आपके सामने ही लिख दिया था, लेकिन क्या करें, इन अफसरों के आगे हमारी चलती नहीं।''

दशरथनंदन बहुत दिनों तक दुखी रहे और अपने आप को ही कोसते रहे। धीरे-धीरे उन्होंने अपना ध्यान इस पूरे प्रकरण से हटा लिया। और अपने लिखने पढ़ने में ही मगन हो गए। एक दिन जब वे अखबार देख रहे थे, तो यकायक जोर से हँस पड़े। इतनी जोर से हँसे कि पत्नी भाग्यवती दौड़े चली आई कि अचानक इनको ये क्या हो गया। दरअसल अखबार में मंत्री का बयान छपा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि "हमें सांस्कृतिक विकास पर ध्यान देना चाहिए। बच्चों के चरित्र निर्माण की आवश्यकता समय की माँग है। हमारी सरकार इस दिशा में कुछ करना चाहती है। बाल फिल्म निर्माण के प्रति हम बेहद गंभीर हैं। इस हेतु सरकार लोगों को मुक्तहस्त से अनुदान दे रही है। फिल्म निर्माता मुझसे मिलें। मैं उनका पूरा सहयोग करूंगा।"

समाचार पढ़ने के बाद दशरथनंदन बहुत देर तक हँसते रहे। फिर उन्होंने समाचार पत्र को प्रणाम करते हुए कहा, " ज्ञान का पिटारा जिंदाबाद।"


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