STORYMIRROR

girish pankaj

Tragedy

3  

girish pankaj

Tragedy

अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार

10 mins
240


एक तो कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया में दहशत का माहौल बना दिया था, उस पर आए दिन लॉक डाउन! काम-धंधा पूरी तरह ठप हो गया था। ठेले पर सामान बेचने वाले दीनू और चाय बेचने वाले चीनू भी इसी समाज के हिस्से थे। अन्य लोगों की तरह वे भी हालात के मारे हुए थे। बूढ़े माता-पिता को देखना और दो छोटे भाई बहनों का भी लालन-पालन करना किसी तरह हो रहा था। दीनू ठेले पर सब्जियां बेचा करता तो चीनू गोल बाजार के बाहर चाय की गुमटी लगाता। लेकिन लॉकडाउन लगने के कारण न ठेला चल सकता था और न गुमटी लग सकती थी। एक-दो बार दोनों भाइयों ने प्रयास भी किया लेकिन पुलिस के डंडे की मार खाकर लौटना पड़ा। एक बार तो पुलिस वालों ने दीनू की पूरी सब्जी ही अपने कब्जे में ले ली त और उसे फटकार कर भगा दिया कि '' लॉक डाउन में ठेला लगाने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?"

दीनू हाथ जोड़कर विनती करता रहा कि ''मेरी सब्जी तो मुझे दे दीजिए। नहीं तो मेरा बड़ा नुकसान हो जाएगा", लेकिन पुलिस वाले नहीं माने। दीनू पुलिस वालों को कोसता और आँसू बहाता घर लौट आया। पता नहीं उस सब्जी का पुलिस वालों ने क्या किया। जाहिर है, मिल-बाँट कर घर ले गए होंगे।

कुछ दिनों में ही पूरा परिवार दाने-दाने को मोहताज होने लगा। यह तो अच्छा हुआ कि एक सप्ताह बाद समाज सेवी संस्था 'करुणा' के लोगों ने दीनू के घर दो महीने का राशन पहुंचा दिया, जिससे जिंदगी बच गई, वरना भूखों मरना तय था।

राशन पानी की व्यवस्था तो हो गई थी, मगर अचानक एक नई मुसीबत सामने आ गई। पिता दशरथ की तबीयत बिगड़ गई। बुखार चढ़ा, तो उतरने का नाम ही न ले। खांसी भी नहीं रुक रही थी। बेटे घबराए, कहीं पिता को कोरोना तो नहीं हो गया। भागे-भागे अस्पताल पहुँचे। पिता का टेस्ट हुआ। टेस्ट में वह नेगेटिव निकले तो बेटों ने राहत की सांस ली। डॉक्टर ने कुछ दवाइयां लिख कर दीं और कहा, '' चिंता की बात नहीं है। घर पर ही इनका उपचार करो। कुछ दिन में ठीक हो जाएँगे।"

कुछ दिन तो उपचार में निकल गए लेकिन एक सप्ताह बाद अचानक दशरथ को अचानक हृदयाघात हुआ। अस्पताल ले जाने की नौबत ही नहीं आई और घर पर ही उनका प्राणांत हो गया।


अब यह नया संकट सामने आ गया था।

पिता का अंतिम संस्कार कैसे हो? हमारे समाज में जीना और मरना, दोनों बेहद खर्चीली हो गए है। श्मशान घाट में अंत्येष्टि के लिए शवों की लंबी कतारें लगी हुई थीं। जिनको जल्दी संस्कार करवाना हो, उन्हें पाँच हजार रुपये देने पड़ रहे थे।वरना लगे रहिए लाइन से। जब नंबर आएगा, तब अंत्येष्टि होगी। लेकिन उसके लिए भी तो पैसों की व्यवस्था करनी थी। श्मशान घाट में लकड़ी फोकट में मिलने से रही। लगभग दो हजार रुपये तो लगेंगे-ही-लगेंगे। जब यह समस्या सामने आई तो आसपास के लोगों ने चंदा एकत्र किया। वह पूरा मोहल्ला गरीब लोगों का ही था। जहाँ कोई ठेला लगाकर सब्जियां और फलफ्रूट बेचता, कोई कहीं चौकीदार था तो कोई मजदूर। फिर फिर भी सबने थोड़ा-थोड़ा करके मदद करने की कोशिश की। कुछ भी देर में किसी तरह दो हजार रुपये की व्यवस्था हो गई। हालांकि यह रकम फिर भी कम थी, फिर भी दीनू और चीनू ने यह सोचा कि श्मशानम घाट पर किसी तरह मान-मनौव्वल करके, हाथ- पैर जोड़कर पिता की अंत्येष्टि इतने में ही करवाने की कोशिश करेंगे। किसी तरह अर्थी बनी मगर दुर्भाग्य यह था कि शवयात्रा में शामिल होने के लिए पड़ोस के कोई व्यक्ति तैयार नहीं हुआ। सबको यही डर था कि श्मशान घाट तक जाएँगे तो कहीं उन्हें भी कोरोना वायरस न पकड़ ले इसलिए सबने शव को दूर से ही प्रणाम किया और वापस लौट गए। ऐसी स्थिति में अब यही एक तरीका था कि दोनों भाई ठेले पर पिता का शव रख कर ले जाएं। दीनू ने ठेला निकाला और उस पर पिता का शव रख कर दोनों भाई चल पड़े श्मशान घाट की ओर। घाट तक पहुंचे तो वहां का नजारा देखकर दंग रह गए।  अंत्येष्टि के लिए लंबी लाइन लगी हुई थी। अब क्या करें? 

तभी एक व्यक्ति दोनों भाइयों के पास पहुँचा। उसके कंधे पर लाल अंगोछा पड़ा था। माथे पर लाल टीका भी था। ऐसा लग रहा था, वह श्मशान घाट का ही कोई कार्यकर्ता है। वह कहने लगा, ''देखो भाई, इधर काफी लंबी लाइन लगी है। देख ही रहे हो। अगर तुम लोगों को जल्दी अंत्येष्टि करानी है, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।"

चीनू हाथ जोड़कर बोला, ''बड़ी कृपा होगी। आप तो हमारे लिए फरिश्ता बनकर आए हैं, भाई जी।"

सामने वाले ने जेब से एक सींक निकाली और दाँत खोदते हुए कहा, ''लेकिन आप लोग तो जानते ही हैं कि इस समय कितनी मारामारी है। देख रहे हो न बीस-तीस लोग अंत्येष्टि के लिए लाइन में लगे हुए हैं। उसके बाद ही आपका नंबर आएगा। तब तक तो रात हो जाएगी। अगर जल्दी नंबर चाहते हो तो पाँच हजार खर्च करने होंगे। मैं फौरन सब व्यवस्था करवा दूँगा।"

उस व्यक्ति की बात सुनकर चीनू ने दीनू को और देखा और मायूस होकर बोला, ''लेकिन हमारे पास तो सिर्फ दो हजार ही हैं। इतने में अगर कुछ बात बन सके तो बड़ी कृपा होगी।"

सामने वाले व्यक्ति ने कहा, " नहीं ! इतने में संभव नहीं है। डेढ-दो हजार की तो लकड़ियां ही लगेंगी। बाकी के पैसे अंत्येष्टि करने वाले को देना होगा। सोच लो। कहीं से व्यवस्था कर लो। मैं कुछ देर में आता हूँ।"

इतना बोल कर वह व्यक्ति आगे बढ़ गया और शव लेकर आए दूसरे लोगों से बात करने लगा। दीनू ने देख, एक व्यक्ति ने जेब से कुछ पैसे निकालकर उस व्यक्ति को दिए। इसके बाद वह व्यक्ति चार लोगों को कहीं से बुलाकर लाया और अर्थी को उठाकर सबसे आगे ले गया। उसके पीछे- पीछे शव के साथ आए दो लोग चल पड़े।

दीनू ने आँसू बहाते हुए कहा, '' कितनी बुरी स्थिति आ गई है। ऐसा लगता है कि हम अपने पिताजी की अंत्येष्टि करा ही नहीं पाएंगे। क्या किया जाए।"

चीनू भी रोते हुए बोला, '' मेरा मन तो कहता है, अपन अर्थी को यहीं छोड़ कर वापस लौट जाएँ। पिताजी के भाग में जो बदा होगा, वह होगा। आखिर लावारिस लाशों के भी तो अंतिम संस्कार किए जाते हैं। हमें न देख कर बाद में कोई-न- कोई अंत्येष्टि कर ही देगा।''

दीनू कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला, " तुम्हारी बात ठीक तो है पर लगता है यह पाप हो जाएगा। इसकी बजाय मेरे दिमाग में अब एक आईडिया सूझ रहा है। क्यों न हम पिता के शव पर गंगाजल छिड़क कर नदी में बहा दें। गंगा जल छिड़कने से पिता का शरीर पवित्र हो जाएगा। बहुत से लोगों को नदी में भी शव बहा देते हैं। कहते हैं कि नदी माता शव को अपनी शरण में ले लेती है।''

चीनू बोला, '' मेरे ख्याल से यही ठीक रहेगा। ऐसा करने से हमारे दो हजार रुपये जाएंगे, जो बाद में ज़रूरी खर्च करने के काम आएंगे। लॉकडाउन में कोई कमाई तो हो नहीं रही। दो महीने का राशन तो लोग दे ही गए हैं। अब ये पैसे संकट के समय काम आ जाएंगे।''

दीनू कर चेहरे पर सन्तोष के भाव उभरे। उसने इधर उधर देखने के बाद धीरे धीरे कहना शुरू किया, '' चीनू, यही ठीक रहेगा। हम पिता को नदी में ही प्रवाहित कर देंगे। लेकिन इसके लिए हमें शाम तक का इंतजार करना पड़ेगा। अभी तो यहीं बैठे रहते हैं। शाम होने के बाद हम अर्थी उठाकर नदी तक जाएँगे, और चुपचाप शव को नदी में बहा देंगे।"

"मगर यह काम बड़ी सावधानी के साथ करना होगा क्योंकि नदी में शव बहाते हुए अगर किसी ने देख लिया, तो हमारी खैर नहीं।'' चीनू बोला, ''मैंने सुना है नदी में शव बहाने से नदी का पानी गंदा हो जाता है। वह पीने लायक नहीं रहता। हमें ऐसा काम करना नहीं चाहिए। कहते हैं, यह पाप है। नदी को साफ रखना हमारी भी जिम्मेदारी है।''

दीनू ने कहा, ''तेरी बात तो सही है लेकिन हम भी क्या करें। मजबूरी है। पाँच हजार हम कहाँ से लाएं!"

इतनी चर्चा करने के बाद दोनों भाई घंटों वहीं बैठे रहे। उनको जोरों की भूख भी लग रही थी लेकिन शव छोड़कर बाहर भी नहीं जा सकते थे। श्मशान घाट में लगे नल से पानी पीकर दोनों भाइयों ने अपनी प्यास बुझाई। पानी पीने से भूख का असर भी कुछ कम हुआ। वे बड़ी बेसब्री के साथ शाम होने का इंतजार करने लगे।

शाम हो गई। रात की स्याह चादर ने श्मशान घाट को अपनी आगोश में ले लिया था। वहां पसरा नीरव सन्नाटा भयावह लग रहा था। मौका पाकर दोनों भाइयों ने अर्थी उठाई। उसे ठेले पर रखा और नदी की ओर चल पड़े। रास्ते में हलवाई की दुकान दिखी। होटल का मालिक हड़बड़ा कर होटल बंद कर रहा था क्योंकि अभी-अभी दो सिपाही उसे फटकार कर गए थे कि तुमने अपना होटल अब तक बंद क्यों नहीं किया। पाँच बजे तक की अनुमति थी मगर हलवाई सात बजे तक दुकान खोले हुए था। इधर दोनों भाइयों को बहुत जोरों की भूख लगी थी। होटल देखकर भूख और तेज हो गई थी।

दीनू बोला, ''मैं कुछ खाने का सामान ले आता हूँ। तुम ठेला लेकर कुछ आगे बढ़ो। किसी सुनसान जगह पर रुक जाना। मैं अभी आया।''

भाई की बात सुनकर चीनू ने ऐसा ही किया। ठेले को कुछ आगे ले जाकर ऐसी जगह रुक गया, जहाँ लोगों का आना जाना कुछ काम था। लॉकडाउन के कारण आसपास की सारी दुकानें बंद थी। हलवाई ने पहले तो मना कर दिया मगर दीनू ने हाथ-पैर जोड़ कर सौ रुपये आगे बढ़ा दिए, हलवाई ने फटाफट कुछ समोसे, मिक्सचर और मिठाई दे कर कहा, "अब फौरन निकल जाओ वरना पुलिस वाले आ जाएंगे तो दुकान ही सील हो जाएगी।''

दीनू खुशी-खुशी बाहर निकला और चीनू को पास पहुँचकर बोला, ''अपनी किस्मत अच्छी थी कि खाने के लिए कुछ तो मिल गया वरना भूख से बुरा हाल हो गया था। अपन यहीं भूख शांत करते हैं , फिर आगे बढ़ेंगे।''

 ठेले को किनारे लगा कर दोनों भाइयों ने पास ही बने चबूतरे पर बैठ कर इत्मीनान से नाश्ता किया। फिर सामने लगे नल से पानी पीया और डकार मारते हुए आगे बढ़ गए। कुछ देर चलने के बाद सामने नदी नजर आने लगी। चीनू ठेले के पास ही रुक गया और दिनों नदी के तट तक पहुंचकर यह देखने लगा कि वहाँ कोई है तो नहीं। वहां कोई नजर नहीं आया। लेकिन तभी उसकी नजर दूर रखे हुए एक शव पर पड़ी। वह उसके पास पहुंचा तो देखा एक व्यक्ति सिर पकड़ कर बैठा हुआ है। दीनू को देखकर वह घबरा गया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। दीनू बोला, '' घबराओ नहीं! मैं भी तुम्हारी तरह एक मजबूर व्यक्ति हूँ। श्मशान घाट से निराश होकर यहाँ आया हूँ। नदी मैया में अपने पिता का शव बहाने।"

सामने वाले व्यक्ति ने कहा, ''फौरन विसर्जन कर दिया जाये क्योंकि कभी भी पुलिस आ सकती है। मेरा भाई भी आता होगा। तब हम भी शव बहा देंगे। '' वह इतना बोला ही था कि उसका भाई आ गया। फिर दोनों ने शव उठाया और नदी के किनारे चले गए। दीनू दौड़ कर चीनू के पास पहुँचा और बोला, ''फौरन लाश उठाओ और चलो।''

दोनों भाई पिता के शव को उठाकर नदी के तट तक ले आए और प्रवाहित कर दोनों हाथ जोड़ लिए। फिर पूरी श्रद्धा के साथ सिर झुका कर पिता के जाते हुए शव को प्रणाम किया और बाहर निकल आए।

रास्ते में दीनू ने कहा, ''घर वाले पूछेंगे तो क्या जवाब देंगे?"

चीनू बोला, " कह देंगे कि श्मशान घाट पर अंत्येष्टि करके आ रहे है, और क्या।''

" और यह जो उन्नीस सौ रुपये बचे हैं, इसके बारे में क्या कहेंगे?"'

''अरे, किसी को बताना ही क्यों? पैसे संभाल कर रखेंगे। वक्त जरूरत पर काम ही आएंगे। अब तुम तो सोचो कि अपने पिता कितने पुण्यात्मा थे। ऐसा लग रहा है कि जाते-जाते वे हमें दो हजार रुपये की दक्षिणा दे गए। हमें भरपूर नाश्ता भी करा दिया।"

"लेकिन पिताजी के साथ हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था।"

" अब तू ज़्यादा मत सोच। हमारे पास कोई चारा भी तो नहीं था।''

"नदी में शव डाल दिया है। पता नहीं बहते हुए वह कहाँ जाएगा। लेकिन एक बात है। गिद्ध, चील-कौवों, मगर-मछलियों को भोजन मिल जाएगा। मैंने सुना है कि किसी एक धर्मवाले लोग भी शव का अंतिम संस्कार नहीं करते। इसी तरह छोड़ देते हैं, गिद्धों के लिए।"

"हाँ, मैंने भी सुना है। इसका मतलब यह हुआ कि हमने कोई गलत काम नहीं किया। और वैसे भी पिताजी हमेशा दान-पुण्य किया करते थे। हम तो यही कहेंगे कि यह सब उनकी ही मर्ज़ी से हुआ। उन्होंने मर कर भी अपना शरीर दूसरे जीव- जंतुओं को समर्पित कर दिया। यह भी तो सोचो।''

अब दोनों भाइयों के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई और वे पाप की मुक्त के एहसास से भर कर तेजी के साथ घर की ओर चल पड़े।

 



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy