भाई साहब

भाई साहब

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वह मुझे लंदन में मिली थी। हीथ्रो एयरपोर्ट पर। हम दोनों को गेटविक एयरपोर्ट से पोर्ट ऑफ स्पेन के लिए उड़ान भरनी थी। उसने मुझे देखा तो अपनी ओर से हाथ बढ़ाते हुए अपना परिचय दिया। वह अंग्रेज़ी बोल रही थी, लेकिन बीच-बीच में हिंदी शब्दों का प्रयोग भी करती थी। हम लोग हीथ्रो में ही उपलब्ध बस में सवार हो कर गेयविक रवाना हो गए।

 

उसने अपना नाम सुनीता बताया था। वह भारतीय मूल की युवती थी। उसके पूर्वज डेढ़ सौ साल पहले गिरमिटिया मजदूर बन कर दक्षिण अमरीकी देशों में भटकते रहे और अब त्रिनिडाड में रहते हैं। सुनीता के चाचा सूरीनाम में बस गए हैं।

 

''आप भारत से आ रहे हैं?''

 

''जी।'' मैं सुखद आश्चर्य से लड़की को देख रहा था, ''और... आपकी तारीफ?''

 

''मेरा नाम सुनीता राम है। मैं त्रिनिडाड में रहती हूं। दिवाली नगर के पास। आप शायद इंडिया से...''

 

''बिल्कुल ठीक पहचाना। मैं महेश हूं। दिल्ली में रहता हूं। त्रिनिडाड जा रहा हूं एक कवि सम्मेलन है।''

 

''ओह, इसका मतलब आप कवि हैं। अच्छा रहेगा आपके साथ दस घंटे का सफर मज़े से काट जाएगा।''

 

''काट जाएगा नहीं, कट जाएगा, बीत जाएगा!''

 

''ओह माफ कीजिएगा, मेरी हिंदी कमज़ोर-सी है। थोरा-थोरा समझती हूं। अभी सीख रही हूं। कोशिश करती हूं लेकिन त्रिनिडाड में इतना अवसर नहीं मिलता। मजबूरी में इंग्लिश बोलना पड़ता है।''

 

''आप जितनी अच्छी हिंदी बोल रही हैं, उतनी अच्छी हिंदी तो हमारे यहां बहुत से हिंदी में एम.ए. करने वाले लोग भी नहीं बोलते हैं।''

 

बात करते-करते हम लोग गेटविक एयरपोर्ट आ पहुंचे। चेक इन किया और ड्यूटी फ्री शॉप के सामने पहुंच कर खड़े हो गए। कॉफी का ऑर्डर सुनीता ने दिया। दो पौंड भी उसी ने पटाए। कॉफी पीते-पीते मैंने गौर से देखा, सुनीता कहीं से भी वेस्ट इंडियन नहीं लग रही थी। लगती भी कैसे? है तो भारतीय मूल की! थोड़ी-सी सांवली है लेकिन नाक-नक्श आकर्षित करने वाले हैं। सुनीता मुझे देख कर मुस्करा रही थी। फिर बोली- ''क्या देख रहे हैं? शायद सोच रहे होंगे कि किस ब्लैक गर्ल से पाला पड़ गया। यहां चारों तरफ गोरे-गोरे चेहरे नज़र आ रहे हैं।''

 

मैंने कहा- ''आप ब्लैक गर्ल नहीं ब्लैक ब्यूटी हैं। हमारे यहां आप जैसी कोई लड़की दिख जाए तो लोग पागल हो जाएं।''

 

सुनीता इतनी भी खूबसूरत नहीं थी कि मुझे इतनी बड़ी बात बोलनी पड़ी। लेकिन तारीफ से वह और भी जीवंत बनी रहती। तारीफ से ऊर्जा मिलती है। ज्यादातर तारीफें झूठी होती हैं। बढ़ा-चढ़ा कर की जाती हैं। सामने वाला भी गलतफहमी में जीना पसंद करता है। यह भी जीवन जीने की अपनी शैली है।

 

''सुनीता जी, अपने बारे में कुछ बताइए। क्या कर रही हैं? घर में कौन-कौन हैं?''

 

''मैं लंदन में एमबीए कर रही हूं। पिता की खेती-बाड़ी है। एक फैक्ट्री है। मां हाउसवाइफ है। भाई सूरीनाम में डॉक्टर है। एक छोटी सिस्टर है। अभी पढ़ रही है।''

 

''अच्छा है। छोटा परिवार सुखी परिवार!''

 

''आप अपने बारे में भी तो कुछ बताइए।''

 

''मैं क्या बताऊं! बैंक में हिंदी अधिकारी हूं। शादीशुदा हूं। दो छोटे-छोटे बच्चे हैं। दिल्ली के वसंत कुंज के फ्लैट में माता-पिता साथ रहते हैं। पत्नी डीडीए में अधिकारी है।''

 

''मतलब आपका भी छोटा परिवार सुखी परिवार!''

 

मैंने देखा, अब सुनीता के चेहरे पर हल्की-सी उदासी नज़र आने लगी थी। और वह उदासी छिपाने के लिए रह-रह कर मुस्कराने की कोशिश कर रही थी।

 

''क्यों, क्या बात है? अचानक फूल-सा चेहरा उदास क्यों नज़र आने लगा?''

 

''ऐसी कोई बात नहीं, बस घर की याद आ रही है, इसलिए...''

 

''मुझे लगता है, बात कुछ और ही है! तुम कुछ छिपा रही हो! सच-सच बताओ, तुम्हें मेरी कसम।''

 

इतना बोल कर मैंने सुनीता का हाथ पकड़ लिया, जैसे अंतरंग मित्र हो। बस उसकी आंखें भर आईं।

 

''एक बार फिर मेरा सपना टूट गया, इसलिए उदास हो गई।''

 

''कैसा सपना?''

 

''सच बोल दूं?'' सुनीता ने मेरी ओर एकटक निहारते हुए कहा- ''मैं चाहती हूं कि किसी इंडियन लड़के से शादी करूं और इंडिया में ही कहीं बस जाऊं। मेरे पूर्वज बिहार से यहां आए थे। बिहार का भी कोई लड़का मिल जाता। बिहार का न सही, भारत का हो बस! लेकिन लगता है, यह इच्छा अधूरी रह जाएगी। आपको देख कर सोचा था, आप बेचलर होंगे। लेकिन...''

 

मैंने मजाक करने की गरज से यों ही कह दिया- ''अगर आप कहें तो तलाक ले लूं! सोच लो!?''

 

मेरी बात सुन कर उदास चेहरा लिए हँस पड़ी, ''ना बाबा ना! अपनी खुशियों के लिए दूसरे का घर उजाड़ना ठीक नहीं है। भले ही मैं मॉडर्न सोसायटी में रहती हूं। लेकिन मुझे अपनी जड़ें पता हैं। देश छोड़ दिया तो क्या अपनी संस्कृति तो नहीं छोड़़ी है न! हमारे परदादा अपने साथ रामचरित मानस ले कर यहां आए थे। मैंने उसे पढ़ा तो नहीं है, लेकिन उसकी चर्चा सुनती रहती हूं। वह कितना ग्रेट एपिक है। मैं इंडिया के बारे में सुनती रहती हूं। सीता, सावित्री, अनुसूया, द्रौपदी, दुर्गा एक से एक करेक्टर... देवियां! ऐसे महान देश को याद करती हूं तो मन करता है कि इंडिया में ही बसूं। इसीलिए सोचती हूं कि इंडियन लड़के से मैरिज हो जाए, लेकिन हमारा कल्चर यह नहीं सिखाता कि अपने सुख के लिए दूसरों का घर उजाड़ दो। आपका सुखी जीवन मैं बर्बाद नहीं कर सकती।''

 

''मैंने तो बस यों ही मज़ाक में कह दिया था! आपने तो इसे काफी सीरियस ले लिया।'' मैंने हंसते हुए कहा, ''खैर, टॉपिक चेंज करते हैं। आप हिंदी फिल्में तो ज़रूर देखती होंगी। हिंदी गाने भी खूब सुनती होंगी!''

 

हां, मुझे हिंदी गाने  बहुत पसंद हैं। त्रिनिडाड में सात रेडियो स्टेशन हैं, इनमें से पांच स्टेशन तो सुबह-शाम हिंदी गाने ही बजाते रहते हैं। एक सिनेमा हॉल में तो अक्सर इंडियन मूवी लगती रहती है।

 

सुनीता फिर गंभीर हो गई थी। मैं भी बहुत देर तक चुप रहा। समय काफी हो चुका था। पोर्ट ऑफ स्पेन जाने वाला ब्रिटिश विमान कांच के पार साफ-साफ दिखाई दे रहा था। एनाउंसमेंट भी शुरू हो चुका था। हमने अपने-अपने बैग उठाए और विमान की तरफ बढ़ चले। सुनीता और हमारी सीटें इकॉनामी क्लास में थी। लेकिन अलग-अलग। सुनीता ने मेरे बगल में बैठे ब्रिटिश पैसेंजर से आग्रह किया कि वह उसकी सीट में चला जाए तो हम लोग एक साथ यात्रा कर सकेंगे। ब्रिटिश यात्री भला था। वह पता नहीं क्या सोच कर मुस्कराया और 'ओक्के, नो प्रॉब्लम' बोल कर सुनीता की सीट की तरफ चला गया।

 

सुनीता खिड़की के सामने वाली सीट पर बैठ गई और मुस्कराते हुए बाहर देखने लगी। फिर मुझसे बोली, ''खिड़की के पार देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। ये हवाई जहाज जब पचपन हजार फुट ऊपर उड़ता है, तब तो और मजा आता है। खिड़की के बाहर जैसे एक माया लोक बनता है। सागर को देखो। बादलों को देखो। एक अनोखी दुनिया से रू-ब-रू होते चले जाते हैं हम।''

 

मैं समझ रहा था कि सुनीता टॉपिक बदल चुकी है। अब शादी वाली बात छेडऩा ही नहीं चाहती, लेकिन मुझे लग रहा था कि एक बार ज़रूर  छेड़ ही दूं। चाची का लड़का है। वह भी अमरीका में पढ़ रहा है। दो-चार साल बाद दिल्ली लौट आएगा। लेकिन बात शुरू करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। 

 

मैंने दूसरी बात शुरू की- ''कभी दिल्ली आने का कार्यक्रम बनाओ न! ऐसे ही घूमने। मेरे घर आकर रुकना। पत्नी तुम्हें दिल्ली घुमा देगी। पास में आगरा है। ताजमहल भी देख लेना।''

 

ताजमहल का नाम सुन कर सुनीता मुस्करा पड़ी- ''इसे देखने की इच्छा है। मुहब्बत की निशानी है न! पता नहीं कब मौका लगे। बहुत इच्छा है इंडिया घूमने की। लेकिन सपने तो सपने ही रह जाते हैं। सपने टूटने के लिए ही बनते हैं शायद। लेकिन कभी न कभी ज़रूर आऊंगी।''

 

बहुत देर तक बातें होती रही। मैंने देखा सुनीता जम्हाई ले रही है। अब मैं खामोश हो गया। थोड़ी देर बाद सुनीता नींद के आगोश में थी। वह घंटों सोती रही। बीच-बीच में वह आंखें खोल कर मेरी तरफ देखती और मुस्करा देती। मैं भी मुस्करा कर जवाब दे देता।

 

दस घंटे कब बीत गए पता ही नही चला। मेरा पूरा सफर नीले सागर को देख-देख कर कट गया।

 

पोर्ट ऑफ स्पेन में जब हवाई जहाज उतरा तो शाम हो चुकी थी। मैंने कहा- ''चलो, मेरे साथ यूनिवर्सिटी। वहां फंक्शन है। उसे अटेंड कर लेना।''

 

सुनीता बोली- ''नहीं, मैं सीधे घर जाऊंगी भाई साहब! मम्मी डैडी इंतज़ार कर रहे होंगे। टाइम मिले तो कल घर आइए। हम सबको अच्छा लगेगा।''

 

सुनीता ने अपने घर का पता मेरी ओर बढ़ा दिया। विज़टिंग कार्ड पर नाम लिखा था राम कुटीर। यह पढ़ कर बेहद खुशी हुई। इससे भी ज्यादा खुशी इस बात पर हुई कि सुनीता ने मुझे 'भाई साहब' कह कर संबोधित किया था। मैं रोमांचित हो रहा था। मैंने मुस्कराते हुए सुनीता का कंधा थपथपाया- ''ज़रूर आऊंगा। आपके घर आना मुझे अपने घर आने की तरह लगेगा।''

 

'चेकआऊट' करके हम लोग साथ-साथ ही बाहर आए। एयरपोर्ट पर सन्नाटा पसरा हुआ था। चारों तरफ मोटे-तगड़े काले-सांवले वेस्ट इंडियनों को देख कर भय लग रहा था। उनकी अंग्रेजी ठीक से पल्ले नहीं पड़ रही थी। फिर भी मैं टूटी-फूटी अंग्रेजी में उन तक अपनी बात पहुंचा सकता था। लेकिन मेरी मुश्किल सुनीता ने हल कर दी। एक टैक्सी ड्राइवर को पास बुलाया। उसका नाम सुखराम था। लेकिन वह हिंदी नहीं बोल सकता था। सुनीता ने उससे अंग्रेजी में ही बात की और कहा इन साहब को युनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट इंडीज़  के कैम्पस में पहुंचा देना। ज्यादा किराया मत लेना। ये हमारे इंडियन गेस्ट हैं।

 

मैं टैक्सी में बैठ गया। बैठने के पहले सुनीता ने हाथ मिलाया और कहा- ''ओके भाई साहब, अपना ध्यान रखना और टाइम मिले तो घर ज़रूर आना।''

 

''ज़रूर आऊंगा।'

 

टैक्सी आगे बढ़ गई। मैंने पलट कर देखा, सुनीता बहुत देर तक हाथ हिलाती रही। शायद तब तक जब तक टैक्सी आंखो से ओझल नहीं हुई।'' 

 

 


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