Pawanesh Thakurathi

Tragedy

4.4  

Pawanesh Thakurathi

Tragedy

खामोशियाँ कुछ कह रही हैं

खामोशियाँ कुछ कह रही हैं

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"देखो बेटा ! कितनी खामोशी है यहाँ ! तुम्हें लगता नहीं ये खामोशियाँ कुछ कह रही हैं।" देबू काका ने कहा। 

"हाँ, काका ! मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि पांच सालों में गाँव इतना बदल जायेगा। चारों ओर सन्नाटा ही सन्नाटा पसरा हुआ है।" महेश ने कहा। 

 महेश और देबू काका गाँव के बंजर खेतों के बीच बने रास्ते से चलते जा रहे थे। महेश आज पांच सालों बाद शहर से गाँव वापस लौटा था। उसके दोस्तों ने उसे फोन पर बताया था कि गाँव में अब कम ही लोग रहते हैं, लेकिन इतने ज्यादा कम ! यहाँ तो चारों ओर खामोशी के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा।

 "काका ! मंटू लोग भी नहीं रहते क्या अब गाँव में ?" उसने पूछा। 

"नहीं बेटा, वो भी दो साल पहले शहर जाकर बस गये हैं। गाँव के बहत्तर परिवारों में से केवल पंद्रह ही परिवार बचे हैं। बाकी सब शहरों में जाकर बस गये हैं। ये खेत देख रहा है ना तू कभी यहाँ क्वीनटलों अनाज हुआ करता था। अब सब बंजर पड़े हुए हैं। बचे-खुचे परिवार खेती करते भी हैं तो जंगली जानवर सब फसल बरबाद कर देते हैं। बंदर और सुंअर सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाते हैं खेती को।" देबू काका ने उदास स्वर में कहा। 


"..लेकिन गाय-भैंस तो पालते होंगे लोग ?" महेश ने उम्मीद के साथ कहा। 

"कहाँ बेटा ! दो-चार लोगों ने गायें पाल रखी हैं। आजकल की बहुएं गाँव में रहना ही नहीं चाहतीं। बच्चे हो जाते हैं तो सब फैमिली सहित शहर चल देते हैं। सब ऐसे ही है बेटा क्या कहूँ...।" देबू काका ने दुखी होकर कहा। 

"ओहो... कम्मू दा के क्या हाल हैं काका ?" महेश ने पूछा। 

"मत पूछ बेटा ! शराब पीकर सुबह से ही टोलिये रहता है। घर में मार-पीट.. बेटी, बहू का जीना हराम कर रखा है उसने !" देबू काका ने बताया। 

"अच्छा, यह तो बहुत गलत है.. कल जाऊँगा मिलने उनके घर।" महेश ने कहा। 

"ज़रूर बेटा... लो आ गया गाँव...।" दोनों गाँव के समीप पहुँच चुके थे। 

महेश ने नजर ऊपर उठाई। सामने चार-पांच मकान दिखाई दिए, जिनके दरवाज़ों पर ताले लगे थे। आंगन एकदम सूना था। महेश मकानों की खामोशी को पढ़ने की कोशिश करने लगा। 



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