केलकरजी की बहु
केलकरजी की बहु
बाहर गली में हुड़दंग की आवाज़ सुनकर ही वो डरी, सहमी सी अपने कमरे में जा दुबकी थी। घुलण्डी के दिन मस्तानों की टोली ने अपनी ही धुन में मस्ती के गीत गाती, ढोल बजाती ’’होली है’’ की आवाज से पूरी गली को गुंजायमान कर रखा था। रंग बिरंगे किन्तु बदरंग से चेहरे और चेहरों पर पुते रंगों के कारण आसानी से किसी को भी नहीं पहचाना जा सकता है। लेकिन फिर भी अपनी ही मस्ती में मस्त कभी रंग बरसे भीगे चूनर वाली ...... तो कभी होली के दिन फूल खिल जाते हैं ......... गाते हुए।
इधर डरी सहमी सी अपने कमरे में कैद इला। अब उसे पहले जैसा डर तो नहीं लगता है लेकिन फिर भी वो होली है कि आवाज़ सुनते ही भीतर तक कांप गई थी। कुछ बरसों पहले तक तो वो इतनी घबरा जाती थी कि तत्काल ही उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ता था जहाँ वो कई दिन के रिहेबिलिटेशन के बाद घर लौटती थी। ऐसा नहीं है कि बचपन से ही इला ऐसी थी। बचपन में तो वो खुद भी बहुत शरारती थी और होली वाले दिन तो पूरी शैतान की नानी .......। कई दिनों से ही वो होली की तैयारी में लग जाती थी। मौहल्ले भर के लोगों के होली के उपनाम, किस भाभी को कैसे रंग लगाना है, किसको कब पानी में गिराना है और किस पर कब गुब्बारों की मार करनी है। बस इसी तरह की प्लानिंग करती रहती थी वो। और घुलण्डी के दिन तो उसकी धमाचोकड़ी देखते ही बनती थी। उसकी दादी हमेशा चिल्लाती थी उस पर हमेशा कहती थी ......... जाने कब अक़्ल आएगी इस लड़की को, ऊँट के जितनी हो गई लेकिन अक्ल धेले भर की नहीं कल को ससुराल जाकर नाक कटवाएगी हमारी। और इला यह सब सुनकर मुँह बनाकर भाग जाती थी। इला पूरे बीस बरस की हो गई थी। सब लड़कियों की तरह उसके ब्याह की भी बातें होने लगी थी। अब वो सुनकर शरमाने लगी थी लेकिन शरारतें कम नहीं हुई थी अब भी।
एक दिन केलकर जी अपने लड़के सुबोध के लिए इला को देखन आए। गली में घुसते ही उन्होने मकान का पता पूछो तो वो चुलबुलाती सी अपनी ही मस्ती में गाती केलकरजी को लेकर अपने घर आ गई थी। उसको नहीं मालुम था कि वो उसे ही देखने आए हैं। बातों ही बातों में उसे पता चला कि वो तो उसे ही देखने आए हैं तो वो घबरा गई साचने लगी अब क्या होगा। फिर सोचा होना क्या है जो होगा वो अच्छा ही होगा अपनी मस्ती में मस्त रहो। जब उसे थोड़ा सा सजा संवारकर उसकी मां केलकरजी के सामने उसे लेकर आई तो केलकरजी की भी हंसी निकल गई। हंसते हुए उन्होने कहा अरे ये तो अभी मुझे घर लेकर आई थी तो ये है हमारी होने वाली बहु, लेकिन मैं तो इसे इसके नाम से ही बुलाऊँगा भई। अच्छा नाम तो बताओ अपना। वो धीरे से बोली ......इला।
ओह! बहुत ही प्यारा नाम है बिल्कुल तुम्हारे जैसा।
और फिर उसकी शादी सुबोध से हो गई। बहुत खुश थी वो अपने नए घर में हाँ ससुराल में। वैसा ही प्रेस वैसा ही सबका स्नेह मिला। उसे कभी लगा ही नहीं कि वो किसी और घर में आ गई है। सोचती थी कि ससुराल हो तो ऐसा।
आज वो अपने कमरे में बन्द बस अपने में ही खोई सी। गली में होली के हुड़दंगियों की चल पहल शायद और बढ़ गई थी। हुड़दंग की आवाजें अब कहीं ज्यादा साफ सुनाई दे रही थी। जैसे जैसे आवाज़ें नजदीक आती गई उसकी धड़कने बढ़ने लगी, उसकी बैचैनी बड़ने लगी। वो धीरे धीरे अपने कमरे में टहलने लगी थी। टहलते टहलते वो एक बार फिर उसी यादों के बियाबान जंगल में वो भटकने लगी थी। ........ कितने ज़िद की थी उसने सुबोध से कि वो पक्का रंग भी लाएगी। सुबोध उसे गुलाल के लिए ही कह रहा था क्यों कि हमें पर्यावरण का भी, पानी का भी ध्यान रखना चाहिए लेकिन वो बोली थी -
हाँ जी मै मानती हूँ इतने पानी की पूर्ति मैं सप्ताह में एक बार बिन नहाए रहकर कर लूंगी लेकिन होली तो मैं पक्के रंग के साथ ही खेलूंगी। पत्नी की ज़िद और उसका मन रखने के लिए वे दोनो बाज़ार जाकर सुर्ख लाल रंग भी ले आए थे। बहुत खुश थी इला। उसने सभी के लिए गोभी के पकोड़े तले थे औ
र उनमें थोड़े से शंकर जी की बूटी वाले पकोड़े भी मिला दिए थे सब कुछ गड््डमगढ। उसे खुद को भी नहीं मालुम था कि अब कौनसे पकोड़े अलग हैं। अपनी ही मस्ती मे कुछ रोमान्टिक होती सी वो सुबोध के करीब, और गरीब हो गई और देखते ही देखते पूरा मग सुर्ख लाल पक्के रंग का उंडेल दिया था उसके ऊपर और ज़ोर से चिल्लाई थी - होली है जी होली है। बस इसी तरह पूरी मस्ती के साथ दोनो पति-पत्नी बाहर गली में आगए थे जहाँ पहले से ही लोग इन्तज़ार कर रहे थे इला भाभी का। क्यों कि पिछली होली इला भाभी की वैसे तो पांचवीं होली थी लेकिन पिछली बार इला ने धमाचोकड़ी मचाने में कोई कमी नहीं रखी थी। इसलिए गली के तमाम लड़के लड़कियाँ इला भाभी का ही इन्तज़ार कर रहे थे। इला भी सुबोध के साथ मिलकर पूर मस्ती के मूड मे आ गई थी। सबके चेहरे रंगे पुते, चेहरे को देखकर पहचानना भी मुश्किल तभी ........... तभी ना जाने कैसी चीख निकली। आवाज़ से ही वो पहचान पाई थी कि वो तो सुबोध था और तीन लोग चाकू से उसे गोद रहे थे। वो हक्की बक्की सी खड़ी ........... फिर ज़ोर से चिल्लाकर सुबोध की तरफ भागी उसे अपनी बांहों में लिया। उसे होश ही नही रहा कि वो क्या कर रही है। और वो तीनो भाग गए थे जो चाकू से वार कर रहे थे। अस्पताल पहुँचने से पहले ही उसका भरा पूरा संसार उजड़ चुका था। अस्पताल पहुँचकर वो जड़ हो गई थी। उसके बाद उसे मालुम नहीं कितने महिनों वो ऐसे ही रही। हर आहट पर वो सहम जाती थी। साइकेट्रिक सेन्टर में उसका लम्बा इलाज चला तब जाकर वो थोड़ा सा बोलने लगी थी और जब बोलने लगी थी तब खूब रोई थी वो एक एक बात याद करके। वो कहती नही वो पक्का लाल रंग मेरे जीवन में पक्का नासूर बन गया। मैं अगर ज़िद नहीं करती तो शायद ......... बस इतना बोलकर वो दहाड़ मारकर रोने लग जाती थी हर बार। बीच में पुलिस वालों ने आकर बताया था कि सुबोध के हत्यारे पकड़ लिए गए थे लेकिन वो सुबोध को मारने नहीं आए थे वो तो किसी इमरान को मारने आए थे पुरानी दुश्मनी का बदला लेने। होली के रंग में रंगे चेहरों के कारण गलती से इमरान की जगह सुबोध को मार गए थे और इमरान ......... वो जाने कौन था जो जान बचाने के लिए शायद होली के हुजूम में मिल गया था और ..............।
लेकिन मेरा सुबोध तो गया ना वो चाहे इमरान को मारने आए थे या फरहान को ...... मेरे सुबोध की तो कोई गलती नही थी ना ........ कहते कहते वा बेहोश हो गई थी। वही दौर फिर पड़ा था। फिर से अस्पताल में भरती करवाना पड़ा था।
ये सारी बातें किसी फिल्म की रील की तरह उसके ज़हन में कोंध रही थी। एक एक सीन फिल्मकी रील सा चल रहा था और इला आँसूओं में डूबी बस इन्ही दर्द भरी यादों की गिरफ्त में, तभी उसको लगा कोई दरवाजा खटखटा रहा है। वो डर गयी। सिमट कर एक कोने में बैठ गई। दरवाज़ा तो बहुत देर से खटखटाया जा रहा था लेकिन यादों में डूबी इला को देस से सुनाई दिया या यूंँ कहें वो तन्द्रा से जाग गयी थी। अपने को और इकट््ठा करते हुए एकदम कौने में ..... और कोने में सिकोड़ती वो तभी उसे केलकरजी की आवाज़ सुनाई ........
- इला बेटा दरवाज़ा खेलो, देखो मैं हूँ बाहर।
इला ने दरवाज़ा खोला तो अवाक सी रह गई उसके ससुर ....... उसके पिताजी गुलाल लिए खड़े थे। वो डर गई थी तभी केलकरजी बोले
- देखो बेटा मैं जाना हूँ तुमने अपना पति खोया है लेकिन यह भी सोचो मेरा भी तो बेटा था ना वो। मैने भी तो अपना बेटा खोया है ना। बेटा, वो तो चला गया लेकिन अब तुम इस तरह रहोगी तो उसकी आत्मा बहुत दुख पाएगी। ....... नहीं बेटा जीवन ऐसे नहीं कटता है। ........ आज मैं अपनी बहु ....... अपनी बेटी के साथ ....... मैं खेलूंगा होली अपनी बेटी के साथ।
केलकरजी ने इला के माथे पर एक छोटा सा गुलाल का तिलक लगाया तो वो आषाढ की बदली सी टूट पड़ी। केलकरजी के कंधे पर सर रख कर वो देर तक रोई और इधर केलकरजी को अपनी बहू अपनी बेटी वापस मिल गई थी।