Yogesh Kanava

Abstract Others

4.0  

Yogesh Kanava

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जाबाला सी विवश वो औरत

जाबाला सी विवश वो औरत

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वही साप्ताहिक और वही वही डी फोर कोच और वही समय। अपने निर्धारित समय पर घर से निकलने का उपक्रम और ऑटो का इंतजार । यही तो होता है मेरा साप्ताहिक क्रम आज भी मैं यूं ही कुछ सोच रहा था यंत्रवत डी फोर कोच में जा पहुँचा और घुस गया । कोई खाली सीट देखने लगा ,मैं खाली सीट पर अपना बैग रखी रहा था कि अचानक मेरे पीछे से आवाज़ आई संदेश अंकल । आवाज को सुनकर मैं धीरे से पीछे मुड़ा तो जानी पहचानी सी लड़की बैठी थी। पहचानता तो था लेकिन उसका नाम याद नहीं आया था । उसने कहा था इधर आ जाओ अंकल मैंने आपके लिए भी सीट रोक रखी है। मैं धीरे से उस तरफ हो लिया था । मैं ठीक उसके सामने वाली सीट पर बैठ गया । इतना तो मुझे याद था कि वह योगिता की फ्रेंड थी उसके साथ ही काम करती थी लेकिन काफी याद करने पर भी उसका नाम याद नहीं आ रहा था । बस इधर-उधर की बातें करते रहे हम तभी टीटी आ गई थी । वह मुस्कुरा कर बोली अंकल आपकी डी फोर कहानी का असर है । अब हर दिन टिकट चेक होते हैं हमने अपने अपने टिकट चेक करवाये और निर्धारित सिटिंग चार्ज में के पन्द्रह पन्द्रह रुपए दे दिए । वो बोली अभी और कौन सी नई कहानी लिखी आपने ? वैसे मैंने आपके डी फोर भी नहीं पढ़ी है । आमतौर पर वो शांत ही रहती थी जब भी ट्रेन में मिलती थी योगिता के साथ होती थी। वो या तो बस सो जाती थी या फिर चुपचाप हमारी बहस को सुनती रहती थी लेकिन आज ठीक अपनी पहले वाली आदत के विपरीत को खूब खुलकर बातें कर रही थी । तभी मेरी नज़र कोच के बीच वाले दरवाजे के पास फर्श पर बैठी उस औरत पर पड़ी जो शक्ल सूरत से बेहद ग़रीब लग रही थी । 

गरीब भी क्या बल्कि यूँ कहना चाहिए कि वह कोई भिखारिन सी लग रही थी । पास ही एक बड़े से पॉलीबैग में ढेर सारी पानी की खाली बोतलें देखकर सहसा ही अनुमान लग रहा था कि कोई कचरा बीनने वाली थी जो शायद गलती से जनरल कोच के बजाय रिजर्वेशन कोच में आ गई थी। सर पर बाल उलझे हुए, एकदम रफ-टफ, ब्लाउज के नाम पर एक चिथड़ा सा, फटा हुआ जिसके हर छोटे बड़े छेद से तन बाहर झांक रहा था । ब्लाउज के बाजू पर इस कदर फटे हुए थे लगता था मानो उसने स्लीवलैस ही पहन रखा हो ,किन्तु यह सच नहीं था उस बेचारी के पास तो तन ढकने के लिए कुछ साधन था ही नहीं । छाती से चिपका एक बच्चा जो सूख चुकी छाती से भी चूस रहा था । उस बच्चे को दूध मिल रहा था या नहीं यह तो मालूम नहीं किंतु उसे अपने ही मुंह से निकलती लार जरूर मिल रही थी और शायद उसे ही पी रहा था। वो औरत उस बच्चे को बालियाँ दे रही थी । जाबाला सी विवश बच्चे को पालने के लिए, शायद उस बालक का बाप उसे छोड़ गया होगा या फिर कहीं दारू पीकर पड़ा होगा। वह बालक अभी भी लगातार सूखी छाती से चूसने का जतन कर रहा था। उन्हीं गालियों से अंदाज़ा लगा कि शायद उस बच्चे का बाप उसे छोड़कर चला गया था लेकिन तभी उसकी एक बात ने स्थिति बिल्कुल साफ कर दी थी । वो बड़बड़ा रही थी 

- पता नहीं साला कौन हरामी था जो उस कंपकंपाती सी रात के अंधेरे में फुटपाथ पर मेरे कम्बल में आ घुसा था और आ कर मेरे से चिपक गया था। सर्दी भी इतनी तेज थी साले उस हरामी का साथ अच्छा सा लगा था लेकिन मेरे को क्या पता था कि ये हरामी का पिल्ला पैदा हो जाएगा । मैं सोच रहा था - स्त्री चाहे जाबाला हो या फिर यह कचरा बीनने वाली हो , दोनों की नियति एक जैसी है। दोनों ही पुरुष के कृत्य को भोगने को विवश। अब चाहे वह जाबाला को आश्रम में आने वाले का अतिथि सत्कार की पितृ आज्ञा हो या इस कचरे वाली की लाचारी। भोगना तो केवल स्त्री को ही है ना, नियति है केवल उसे ही भोगना। इसी तरह की बातें सोच रहा था कि अचानक ही सामने बैठी लड़की फिर से बोली - अंकल आप कहाँ खो गए ? कोई नई कहानी मिल गई है क्या ? और मैंने उसे इशारे से ही बताया अपने पीछे देखो । वह देखने लगी और फिर बोली - सचमुच लाचारी और बेबसी की पूरी कहानी दिख रही है । इसके बाल देखे आपने कितने उलझे हुए हैं । मैं उसकी बात सुन ही रहा थ कि तभी अचानक मेरी नज़र उसके थोड़ा सा आगे वाली सीट पर बैठी एक आधुनिका पर पड़ी । नज़र ठहर सी गई थी हटने का नाम ही नहीं ले रही थी । बिल्कुल खजुराहो की मूर्ति शिल्प का प्रतिरुप, कपड़ों के नाम पर शायद दो -चार आड़ी टेड़ी डोरियां सी और नीचे शॉर्ट्स, जिसके नीचे से अनावृत झांकती उसकी सुडोल जाँघें, एकदम गौरवर्ण । 

नज़र हटने का नाम ही नहीं लेती थी लेकिन फिर भी मैंने नज़र हटा कर वापस उसी कचरा बीनने वाली औरत पर नज़र डाली। मेरे जेहन में बनती कहानी की दो नायिकाएँ और दोनों अधनंगी हैं एक सीने तारिका सी दूजी भिखमंगी। दोनों ही अपनी अपनी जगह विवश। पहली के पास तन ढकने के लिए कपड़े नहीं है वह फिर भी मजबूरी में ढकना चाह रही है । इसको ग़रीबी की मार है और वह चाहते हुए भी ढक नहीं पा रही है लेकिन दूसरी दुनिया के नुमाइशी बाजार का हिस्सा बन अंधी दौड़ में तन उघाड़ने को विवश। मेरे ख़यालों की डोर चल रही थी तभी सामने बैठी वह युवती बोली

 - अंकल मुझे आप अपनी कहानी ईमेल करो ना मेरा ईमेल आईडी यह है। वैसे मेरा नाम रितिका है। आप तो जानते ही हैं मैं और योगिता साथ ही काम करती हैं ।

मेरे मुंह से अचानक निकला 

- हितिका जो सबका हित सोचती हो ? बातों का सिलसिला चल रहा था । हम दोनों ही बात कर रहे थे कि मेरे बगल में बैठे सज्जन ने अपने बैग से एक केक का पैकेट निकाला और खाने लगा कि वह बच्चा जो थोड़ी देर पहले उस औरत की छाती से चिपका हुआ था दौड़ता हुआ आया और पड़ोसी सहयात्री से केक देने के लिए गुहार करने लगा । एक पीस के उसे दे दिया था उसने लेकिन वह एक से संतुष्ट नहीं था । वो और मांग रहा था ,नहीं मिलने पर उसने वो किया जिसकी उम्मीद ना तो उस सहयात्री को थी और ना ही मुझे । उसमें एक झपट्टा मारा और झपट्टे के साथ लगभग खाली से रैपर जिसमें एक टुकड़ा ही बचा था उसे लेकर दौड़ गया उसने वह टुकड़ा खाया और थोड़ी ही देर में पलट कर वापस आया । खाली रैपर मेरे सहयात्री के मुँह पर फेंक गया था । 

 मैं सोचने लगा यह कौन सा व्यवहार था । इतना आक्रोश उसने खाली रैपर सहयात्री के मुंह पर फेंक दिया । क्या सर्वहारा वर्ग की अवधारणा की उपज इसी प्रकार से हुई थी। वह औरत उस बच्चे को हरामी का पिल्ला बताकर अब भी गालियाँं दे रही थी । उसकी गालियों से पता चल रहा था कि सचमुच वह जाबाला सी विवश है सत्य काम को पालने के लिए । वो सत्यकाम जो अनायास ही न चाहते हुए भी उस पुरुष का अंश जिसके बारे में ना तो उस भिखारिन को पता है और ना ही उस बच्चे को । दोनों झेल रहे हैं अपने अपने हिस्से का दंश जिसका शायद नाम भी मालूम नहीं है। रात के अंधेरे में कोई अधम अपना नर बीज इस अनाम जाबाला के तन में छोड़ गया था और यह अपने आपको पालते पालते एक और जान को भी पालने पर विवश । वह तो अंधेरे में ही अपना अंश छोड़ भाग लिया लेकिन यह कहाँ जाए । कौन से अंधेरे में गुम हो जाए । जिसका पूरा जीवन ही अनंत अंधकार में डूबा हो वह कौन से अंधेरे में जाए । उसके लिए तो ऐसा कोई और अंधेरा बना ही नहीं था और यदि कहीं है तो उसी अंधेरे में से फिर कोई अधम नर उसे दबोचेगा और फिर कोई नई जिंदगी कचरे के ढेर पर जन्म लेगी । 

मेरे इन्हीं विचारों के बीच वह औरत गाली निकलती रही फिर भी उसी बच्चे को छाती से चिपकाए विजय नगर स्टेशन पर उतर गई । मैं और हितिका बस उसे जाते हुए देखते रहे ,बस केवल जाते हुए देखते रहे और ट्रेन के सरकने के साथ-साथ वो तो पीछे छूटती गई लेकिन उसकी बातें उस बच्चे का व्यवहार ट्रेन की रफ्तार से कहीं ज्यादा तेज़ दौड़ रहे थे मेरे ज़हन में ।



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