VIKAS KUMAR MISHRA

Drama

5.0  

VIKAS KUMAR MISHRA

Drama

कबीला

कबीला

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झारखंड राज्य के जंगलों के बीचो-बीच बसा हुआ एक गाँव जो कि रांची से करीब 300 किलो मीटर दूर स्थित है। शाम के साढ़े सात बजे रह हैं अंग्रेजी गानों के धुन पर कुछ लोग नाच रहे हैं बाकी बैठे लोग उन नाचते हुए लोगों को देख रहे हैं। सर्द रात में जलती हुई लकड़ियों की आंच में बैठे कुछ विदेशी शराब का लुत्फ ले रहे हैं। तभी चार-पांच गाड़ियों का काफिला एक बाद एक आकर वहाँ रुकता है, जिससे वहाँ उपस्थित लोगों में अफरा तफरी मच जाती हैं। लोग यहाँ-वहाँ भागने लगते हैं। गाड़ियां गौरव हिन्दू सैनिक संस्था की थी। गाड़ियों से उतरते ही गौरव हिन्दू संस्था के सैनिकों ने बंदूक से कुछ गोलियाँ हवा में चलाई। गोली चलते ही जो जहा था वही रुक गया।

"देखिये हम यहाँ आपको डराने नहीं आये, बल्कि आपसे बात करने आये हैं तो वही चलिये जहाँ आप सब अभी थे। संस्था प्रमुख प्रभाकर ने कहा और आगे चल दिये सैनिको ने जाकर संस्था प्रमुख को कुर्सी दी और लोगो को वहीं जमा किया।

'माननीय यही वो विदेशी है। जो धर्म परिवर्तन कराते हैं"।

कुछ सैनिक उन विदेशियो को पकड़ कर लाते हैं!

प्रभाकर :- हम्म... कहाँ से आये हो ?

"इटली से। " विदेशी तो चुप थे पर किसी ने जवाब दिया।

प्रभाकर:- तुम क्यूँ बोले भाई क्या इन्हें हिंदी नहीं आती ?

"जी नहीं, ये हिंदी नहीं जानते।"

"वाह हिंदी नहीं जानते और साले भारत को इंग्लिशस्तान बनाने चले आयें है ये भ्रष्ठ कहीं के। " (प्रभाकर गुस्से मे बोले। )

संस्था प्रमुख ने भीड़ में नजर दौड़ायी और भीड़ में ही से किसी एक को इशारा कर के बुलाया और बोले-

"ये जो बड़ी-बड़ी इमारते दिख रही है ये क्या हैं ?"

व्यक्ति:- "स्कूल,अस्पताल, हॉस्टल और चर्च हैं। "

प्रभाकर:- अच्छा। क्या नाम है तुम्हारा ?

व्यक्ति:- एलेग्जेंडर

अलैक्जेंडर नहीं,असली नाम क्या है तुम्हारा ?(प्रभाकर लाल आंख दिखाते हुए बोले!)

व्यक्ति चुप था।

प्रभाकर :- कितने कन्वर्ट हो चुके हैं यहाँ ?

व्यक्ति:- लगभग सभी।

प्रभाकर:- "पर क्यूँ, क्या मिलता है ?"

पहचान। एक महिला जिसका नाम दुर्गा था और जो गाँव मे इस धर्म परिवर्तन मिशन में अपने पिता का साथ दे रही थी ने जवाब दिया और भीड़ से अलग हो कर सैनिक प्रमुख के सामने आ गयी।

"-पहचान मिलती है जो अब तक आपने या आपकी सरकार ने नहीं दी थी। हमें इन्होंने स्कूल दिए हैं हॉस्पिटल दिये हैं और सिर्फ इस गाँव को ही नहीं हम आसपास के सभी गाँव को आपके फर्जी धर्म से छुटकारा दिलायेंगे जिन्होंने सिर्फ हमारा आजतक शोषण किया है। "

"और इन्होंने ने क्या दिया है तुम्हें शराब ? यहाँ उपस्थित हर एक व्यक्ति ने गले तक शराब पी रखी है। नशे की हालत में कौन से धर्म का चुनाव हो सकता है। किसी प्रलोभन या फिर हिन्दू धर्म के खिलाफ बरगला कर ये तुम्हे कौन सी पहचान दिला रहे हैं ?" संस्था के एक सैनिक जिसका नाम अभिजीत था ने उस भरी सभा मे कहा।

"दुख तो इस बात का है अभिजीत की तुम हममें से एक हो। " कहकर दुर्गा वहाँ से चली गयी।

इन विदेशियों को कब्जे में लेलो। ( प्रभाकर संस्था के सैनिकों की ओर देख कर बोले। ) और मैं आप सभी गाँववालो को कल तक का वक़्त देता हूँ धर्म वापसी के लिये। अभिजीत तुम और कुछ साथी यहीं रुकेंगे ताकि यहां कोई गड़बड़ न हो।

अभिजीत:- जी महाशय।

प्रभाकर और कई हिन्दू सैनिकों की गाड़ियां वहाँ से निकल गयी। अभिजीत की आँखे दुर्गा को ढूंढने लगी जो उसे अगली गली की तरफ मुड़ती हुई दिखी। अभिजीत दौड़कर दुर्गा के पास जाता है और उसे आवाज देता है।

दुर्गा...।

दुर्गा....।

दुर्गा....उफ़्फ़ तुमने तो थका दिया। ( अभिजीत की सांसे फूल रही थी। )

दुर्गा:- मैंने तो नहीं बुलाया तुम्हे।

अभिजीत:- इतना गुस्सा सेहत के लिए अच्छा नहीं मिस दुर्गा।

दुर्गा:- मेरा नाम दुर्गा नहीं एलिसा है।

अभिजीत:- अच्छा ठीक है एलिसा मैडम, पर आजकल न कोई फोन न कुछ, कोई दूसरा प्रेमी बना लिया है क्या ?

दुर्गा:- जब सबके सामने मेरी बेइज्जती कर रहे थे तब याद नहीं रहा कि ये प्रेमिका है।

अभिजीत:- दुर्गा मेरे धर्म के प्रति मेरा विश्वास है और तुमने भी अपने इस नये धर्म के प्रति अपने विचार बनाये हैं पर अच्छा यही होगा कि हम अपने प्रेम के बीच ये धर्म की दीवार न लाये।

दुर्गा:- दीवार नहीं अब तो खाई बन चुकी है अभिजीत और तुम्हे इन सब में मेरा साथ देना चाहिए था। पर तुम्हें तो पता नहीं कौन सा भूत सवार हो चला है।

अभिजीत:- उफ़्फ़, तुम्हे समझाना ही बेकार है खैर बताओ पापा से हमारी शादी के बारे में बात की ?

दुर्गा:- पिता जी तो तुम्हारा नाम तक नहीं सुनना चाहते शादी की बात क्या खाक करू।मैं एक बात और कहना चाहती हूँ अभिजीत मेरे लिये ये लड़ाई किसी धर्म की नहीं है, बस मैं अपने पिता के बताये रास्ते पर चल रही हूं। और उनकी मर्जी के बगैर मैं तुमसे शादी नहीं कर पाऊंगी। कहकर दुर्गा अभिजीत के गालों को चूमती है और वहाँ से चली जाती है।

अगली सुबह ठीक उसी जगह पर गाँव और गौरव हिन्दू सेना के लोग जुट चुके थे। प्रभाकर और गाँव के मुखिया (जो दुर्गा के पिता भी थे। ) दोनों मंच पर उपस्थित कुर्सियों पर बैठे थे, और बाँकी के सभी लोग खड़े थे। अलग-अलग खम्बो में उन चारों विदेशियो को बांधा गया था। अभिजीत प्रभाकर को माइक देता है । और प्रभाकर बोलना शुरू करते हैं-

यहाँ उपस्थित सभी सज्जनों। मुझे लगता है कि आप सब ने अपना निर्णय अब तक बदल लिया होगा और अपने घर,अपने धर्म वापसी के लिए आप सब तैयार होंगे।

मुखिया:- श्रीमान, हम सभी ने आपकी बातों पर गौर किया है और इस नतीजे पर पहुचे हैं की अब हमारी कोई भी वापसी नहीं होगी। इसी धर्म के साथ हम खुश हैं जिसने हमे जीने का एक नया तरीका सिखाया है।

प्रभाकर:- मुखिया जी हम यहाँ आपके विचार जानने नहीं आये। बल्कि आप सभी को आदेश देते है की हिन्दू धर्म की ओर वापस चलिये। आज इस देश को आप सभी के साथ कि जरूरत है ताकि हम एक हिंदू राष्ट्र बन सकें। और हिंदुत्व को मजबूत बना सके ताकि वो दुनिया के दूसरे धर्मों को मानने वालों की संख्या में कही से भी कमतर न हो।

मुखिया:- माफ कीजियेगा प्रभाकर साब, पर आपके धर्म मे हमारे लिये कुछ भी नहीं है हम तो वही नीच ही कहलायेंगे और आप श्रेष्ठ। सदियों से चली आ रही इस ऊंच नींच को आप विदेशियों ने कभी बदलने की कोशिश भी की है ? हम यहाँ के मूलनिवासी हैं और आप आर्य। पता नहीं कहाँ से आये और हम पर राज करने लगे।

प्रभाकर:- हम आर्य हैं, हम विदेशी है ? और ये इटली से आये हुये गोरे जो आपको हिंदुत्व के विरुद्ध बरगला रहे है ये आपके अपने हैं ? ये स्वदेशी हैं ? मुखिया जी मुझे बहस नहीं करनी पर मैं इतना कहता हूं कि हर व्यवस्था में कोई न कोई कमी है तो इसका मतलब ये तो नहीं की हम देश की सीमा के भीतर ही कई सीमाएं बना दें ? आज वक़्त है मिल के काम करने का। जो भी कमिया हैं उन्हें मिलकर दूर करने का।

आप हमें खुद से मिला सकेंगे प्रभाकर साब ? इतने वर्षों से इन कमियों को दूर क्यों नहीं किया बोलिये। खैर मैं इस मंच से और इतने लोगो के सामने आपको एक मौका देता हूँ अगर आप अपने पुत्र की शादी मेरी पुत्री एलिसा से करते हैं तो मैं आज ही इस पूरे कबीले के साथ धर्म वापसी करूँगा। ( मुखिया जी आवेश में आकर बोले। )

सभा मे एक चुप्पी छा गयी थी, प्रभाकर भी सोच में पड़ गये थे। अभिजीत और दुर्गा के चेहरे पर डर घर कर चुका था। प्रभाकर की खामोशी देखकर मुखिया को जैसे बल मिला इस बार अपनी आवाज में और कर्कशता लातें हुए बोले- क्यों प्रभकार साब, अब बोलती बंद क्यूं हो गयी। बोलिये।

कुछ देर चुप रहकर प्रभाकर बोले- मुझे मंजूर है, और कल ही मैं अपने बेटे की शादी आपकी बेटी दुर्गा से करूँगा।

अबकी मुखिया जी को कोई जवाब न सूझा जाते जाते बस इतना बोले- " तो ये मुखिया भी अपने जुबान का पक्का है। "

अभिजीत और दुर्गा वहाँ एक दूसरे को देखते रह गये, प्रभाकर और अन्य सैनिक वहाँ से निकल गये। धीरे-धीरे लोगो की भीड़ भी खत्म हो चली थी बस अब वहां रह गए थे तो दुर्गा और अभिजीत। जो एक दूसरे के करीब तो थे पर उनकी जुबान से कोई लफ्ज न फूट रहा था। दुर्गा की आंखों से आंसू निकलने लगे । अभिजीत दुर्गा को गले लगा लेता है और दोनों ही रोने लगते है।

दुर्गा:- अभिजीत मैं तुम्हे खोना नहीं चाहती।

अभिजीत:- खोना तो मैं भी नहीं चाहता दुर्गा, पर कुछ समझ नहीं आ रहा।

दुर्गा:- क्या नहीं समझ आ रहा अभिजीत ? क्या तुम्हे अब भी इन धर्म के ठेकेदारों की पड़ी हैं।

अभिजीत:- नहीं, समझ नहीं पा रहा कि अपने सिद्धांतों का चुनाव करूँ या..... ?

दुर्गा:- या.. ? तुम्हारा मतलब है कि मैं तुम्हारे चुनाव की फ़ेहरिस्त में दूसरे पायदान पर हूँ अभिजीत ? कोई प्रेम नहींं तुम्हे मुझसे। बस तुम भी मेरे पिता और इन सभी की तरह अपने दकियानूसी सिद्धांतो के गुलाम हो और मुझे तुम्हारा जवाब भी मिल चुका है। बस अब हम कभी नहीं मिलेंगे।

दुर्गा...

दुर्गा....

अभिजीत दुर्गा का नाम पुकारता ही रह गया लेकिन वह रुकी नहींं बल्कि अपने आंसुओं को पोंछते वहाँ से चली गयी। घर पहुची तो उसका सामना पिता से हुआ। पिता उससे आंख चुरा रहे थे पर दुर्गा ने पिता की आंखों को जैसे एक पल में गिरफ्तार कर लिया और कहाँ-

"मेरा कभी किसी भी धर्म के प्रति विश्वास नहीं था पिता जी पर सिर्फ आपके लिए मैंने इस धर्म के बाजारीकरण में आपका साथ दिया और आज आप मेरा ही सौदा कर आये। आखिर क्या फर्क रहा आप मे और उनसभी में। आपको ये बात मालूम है कि मैं और अभिजीत एक दूसरे से प्रेम करते है फिर भी आपने मेरे साथ ऐसा किया।

मुखिया:- एलिसा मैं भी नहीं जानता मेरे मुंह से ये सब कैसे निकल गया और प्रभाकर भी मेरी बात मान जायेगा सच कहता हूं मुझे जरा भी अंदाजा न था।

दुर्गा:- तो आप इसे अपनी हार स्वीकारते हैं ? पर मैं आपके जुएँ का सामान नहीं हूँ पिता जी। जिसे आप दांव पर लगा दें।

मुखिया:- एलिसा ये पूरे कबीले के मुझ पर विश्वास का सवाल है और मैं इसे तुम्हारी पसंद या नापसन्द के लिए कुरबा नहीं कर सकता । मैं प्रभाकर को वचन दे चुका हूँ तुम्हारे लिए भी अच्छा यही होगा कि जितना भी वक़्त है उसे अपनी शादी की तैयारियो में लगाओ।

दुर्गा:- तो आप भी सुन लीजिये की उस बाह्मण के बेटे की शादी मेरी लाश से होगी। कहकर दुर्गा कमरे के भीतर चली जाती है।

इधर अभिजीत भी एक कशमकश में डूबा था। सच तो ये था कि जितना प्यार उसे हिंदुत्व के सिद्धांतों से था उतना ही दुर्गा से भी। बस वो ये तय नहीं कर पा रहा था कि उसे ज्यादा प्यार किससे है। अभिजीत अपने इन्ही ख़यालो में डूबा था कि सामने ही उसे प्रभाकर आते दिखा। अभिजीत ने प्रभाकर का अभिवादन किया और प्रभाकर ने जवाब दिया-

खुश रहो पर इतने उदास और चिंतित क्यू दिख रहे हो अभिजीत।

अभिजीत:-कुछ नहीं महोदय।

प्रभाकर:- नहीं, बात कुछ तो है। कहो क्या बात है ?

अभिजीत:- माननीय दरअसल मैं और दुर्गा एक दूसरे से कई सालो से प्रेम करते है। दुर्गा के पिता भी हम दोनों के विवाह के लिए राजी थे। फिर एकदिन मैं गौरव हिन्दू सैनिक संस्था के साथ जुड़ गया और दुर्गा के पिता की नजरों से रोज गिरता चला गया। पर मुझे यकीन था कि एक न एक दिन वो मान जायेंगे। और फिर आज ये सब हो गया और अब मैं इस भवर में हूँ कि अपने सिद्धांतों और दुर्गा के बीच किसका चुनाव करूँ।

प्रभाकर:- अभिजीत तुम इस संस्था के सबसे काबिल कार्यकर्ता हो मैं नहीं चाहता कि तुम हड़बड़ाहट में कोई फैसला करो। कई बार हमें धर्म के लिये कुर्बानिया देनी पड़ती है समझो कि आज तुम्हारी बारी है। मैं भी तो इस विवाह के लिए कई कुर्बानिया दे रहा हूँ।

अभिजीत:- कैसी कुर्बानियां ?

प्रभाकर:- अब जो भी कहो पर एक कबीले की लड़की से अपने पुत्र की शादी करना कहीं न कहीं मेरे मान सम्मान को कम ही करता है।

अभिजीत:- क्षमा चाहूंगा श्रीमान पर दुर्गा को अपना कर आप का मान बढ़ेगा कमी नहीं आयेगी।

प्रभाकर:- रहने भी दो। अखिल तो अब भी इस शादी से इनकार कर रहा है। पर ये शादी तो होगी ही चाहे इसके लिए मुझे अपने बेटे की लाश ही मंडप पर बिठानी पड़े।

अभिजीत:- पर श्रीमान इस जिद से हम दो जिंदगियाँ तबाह नहीं कर रहें हैं ? इससे तो अच्छा यही होगा कि मैं दुर्गा से शादी कर.....

बेवकूफों की तरह बात मत करो अभिजीत, (प्रभाकर अभिजीत को बीच मे रोककर उस पर झिड़कते हुए बोले।) इस वक़्त मेरे लिए मेरे रक्त से भी ज्यादा, किसी के भी व्यक्तिगत स्वार्थ से ज्यादा हिंदुत्व मायने रखता है। और मुझे पूरा भरोसा है कि तुम मेरा साथ दोगे। सोचो जब इस पूरे कबीले के लोग धर्म वापसी करेंगे तो गौरव हिन्दू संस्था की ऊपरी पंचायत हम पर कितना नाज करेगी।

अभिजीत:- और मेरी अपनी जिंदगी का क्या? क्या मैं खुदको कभी माफ कर सकूंगा? क्या मेरे लिए जीवित रहने की कोई दूसरी वजह रह जाएगी ? मेरे अपने सिद्धांत क्या मेरी वो कब्र नहीं होगी जिसमें मैं एक जिंदा लाश सा दफ्न रहूँगा ?

प्रभाकर:- तुम्हारा दिमाग इस वक़्त भ्रमित है अभिजीत। तुम आराम करो और ठंडे दिमाग से सोचो। कल विवाह स्थल पर मिलते है।

प्रभाकर वहाँ से चल दिये पर अभिजीत एक पुतले की ही तरह वहाँ खड़ा रहा।

अगली शाम विवाह स्थली खुद एक दुल्हन की तरह सजी थी। हर ओर चहल-पहल थी । विवाह के लिये मंडप और मंच दोनों सजे थे। प्रभाकर और मुखिया जी सभा की सबसे पहली पंक्ति में बैठे थे । विदेशियो को अब भी बंदी बनाकर रखा गया था। सभी के चेहरों पर खुशी थी। विवाह के बाद धर्म वापसी की प्रक्रिया होनी थी। पर अचानक ही हर ओर खामोशी छा गयी जब विवाह के लिए सजे मंच पर अभिजीत खुद किसी दूल्हे की तरह सजा आ गया और उसके साथ दुल्हन के लिबास में घूँघट ओढ़े एक महिला थी।

"अभिजीत ये क्या मजाक है ?" प्रभाकर अपनी जगह पर बैठें-बैठें गुस्से में बोले।

मजाक नहीं श्रीमान ये मेरी दुल्हन है। अभिजीत ने महिला का घूँघट उठाया। प्रभाकर और मुखियाजी की आंखें ये देख कर फटी रह गयी कि ये महिला कोई और नहीं बल्कि दुर्गा थी। उन दोनो के ही पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक चुकी थी। क्रोध में दोनों ही कोई कदम उठा पाते इससे पहले ही अभिजीत बोल उठा-

श्री मान आप मुझे जो भी सजा देना चाहे मुझे मंजूर है पर उससे पहले मैं आपसे कुछ बातें कहना चाहता हूँ। आजतक मैंने संस्था के सारे निर्देशों का पालन अपने तन और मन से किया है और देश के कई कोनो में मैं आपके साथ रहा हूँ। पर कल मुझे आपके साथ बात करके अहसास हुआ कि हम धर्म का नहीं बल्कि एक जिद का प्रचार कर रहे है। आप सिद्धांतो का नहीं बल्कि संख्या पर बल दे रहें है और जिसके लिए आप किसी भी हद तक जाने को तैयार भी बैठे है। माफी चाहूंगा श्रीमान अगर ये इटली से आते विदेशी गलत है तो हम जैसे धर्म के ठेकेदार भी गलत हैं। मैं हिन्दू धर्म के सिद्धांतों को दिल से मानता हूं जो वासुधैव कुटुंबकं के सिद्धांत पर आधारित है। और ताउम्र मैं अपने धर्म के बताए रास्ते पर चलता रहूंगा। पर सच कहूं तो हर धर्म की अपनी कुछ कमिया हैं। इसलिये मैं अपने और हर धर्म की कमियों का त्याग करता हूँ और हर धर्म की अच्छाईयों का चुनाव करता हूँ। हा मैं उन लोगो के भी विरुध्द हूँ जो लोभ या किसी धर्म के प्रति बरगला कर या फिर डराकर इंसानों पर अपना धर्म थोपते हैं। मुखिया जी आपसे भी उम्मीद करता हूँ कि आप अपने कबीले से ये बात जाहिर करेंगे कि इन इटालियन लोगो से इनके धर्म के बाजारीकरण के लिए आपको कितने पैसे मिले हैं। (मुखिया जी चुप थे और अपना सर नीचे झुका लेते हैं।)

अंत में कहना चाहूंगा कि श्रीमान प्रभाकर एक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताएं रोटी कपड़ा और मकान होती हैं। और इसके बाद प्रेम होती हैं। बदकिस्मती से हमने धर्म और इसके तरीकों को अपनी चौथी आवश्यकता बना लिया है। पर मैंने आज धर्म के पहले प्रेम का चुनाव किया है। और मैं ये भी कहता हूँ कि मैं बिना धर्म के तो जीवित रह सकता हूँ मगर बगैर दुर्गा के नहीं, बगैर अपने प्रेम के नहीं।



अभिजीत ने बोलना बंद किया और प्रभाकर के अगले आदेश का इन्तेजार करने लगा! प्रभाकर अपनी जगह से उठ खड़े हुए और सैनिको को आदेशित करते हुए बोले- "बंदी बना लो इन दोनों को, इनका फैसला अब ऊपरी पंचायत करेगी।"


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