कवि हरि शंकर गोयल

Tragedy

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कवि हरि शंकर गोयल

Tragedy

कभी सोचता हूं : विडंबना

कभी सोचता हूं : विडंबना

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पिछले बहुत दिनों से कुछ सोचा नहीं था । ऐसा लगने लगा था कि जैसे मेरा अस्तित्व ही खत्म हो रहा है ‌‌‌‌‌‌ । इसलिए अब तो सोचना लाज़िमी हो गया था । सोचा कि कुछ तो सोचें अन्यथा बिना कुछ सोचे तो सोच ही सोच में रह जायेगी यह सोच । मगर सोचें तो क्या सोचें ? कुछ समझ नहीं आया ।

अभी मैं इस पर विचार कर ही रहा था कि मेरे पड़ोस में से खटर पटर की आवाज आने लगी ‌। मेरा ध्यान बरबस उधर चला गया । देखा कि एक बड़ी सी बिल्डिंग बन रही है पड़ोस में । तब मैंने सोचा कि ये लाखों करोड़ों की बिल्डिंग बनाने वाले मजदूर खुद किसी फुटपाथ पर सोते हैं । बरसों मेहनत करके एक बड़ी सी बिल्डिंग बनाते हैं जिसे किसी को सौंप कर खुद एक फुटपाथ पर गहरी नींद में सो जाते हैं । इनकी इस गहरी नींद को कोई "भाईजान" दारू के नशे में धुत होकर अपनी मंहगी गाड़ी को फुटपाथ पर चढ़ाकर इन मज़दूरों को कीड़े मकोड़ों की तरह रौंदकर उनकी नींद को इतनी गहरी कर देता है कि ये मजदूर फिर कभी जाग नहीं पाते हैं और हमारी पुलिस और न्याय व्यवस्था कहीं किसी कुएं पर पानी पी रही होती हैं । आखिर मजदूरों के लिए थोड़ी ना बनी है ये सब व्यवस्थाएं ? ये तो पैसे वाले और महंगे मंहगे वकीलों के इशारों पर नाचने के लिए बनी हैं । गरीब लोगों के लिए तो उनकी "हाय" ही एकमात्र हथियार है जिसका वे इस्तेमाल कर सकते हैं अपने बचाव में। 


कभी कभी मैं सोचता हूं कि जो कारीगर महंगे मंहगे संगमरमर , ग्रेनाइट का काम करते हैं उनके घरों में भी "इटालियन मार्बल" लगा होगा शायद ? पर ये क्या ? इनके घर या तो कच्चे होते हैं या फिर साधारण सा फर्श होता है जो "करौली स्टोन" के चौकों से "पटा" रहता है । 


कभी कभी मैं सोचता हूं कि खेतों में अन्न उपजाने वाले किसान की दसों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में होता होगा । पर हकीकत बहुत भयावह है । कितना कर्जा चढ़ा हुआ है उस पर ये या तो साहूकार जानता है या वह बैंक जिससे उसने लोन ले रखा है । एक दिन अखबार में एक छोटी सी खबर आती है कि इतने किसानों ने आत्महत्या की । बस, दुख भरी कहानी का अंत । बच्चे रोते रहते हैं । वे तो उसके जिंदा रहते हुए भी रो ही रहे थे । फिर , मर गया तो क्या फर्क पड़ता है ? कुछ रुपए उसके परिवार को देकर सरकारें अपना कर्तव्य निभा लेतीं हैं । समाचार चलाकर मीडिया अपनी स्टोरी बेच देता है और कोई "कलाकार" इस विषय पर कोई फिल्म बनाकर खूब "माल" बटोर लेता है । जीना इसी का नाम है । 


कभी कभी मैं सोचता हूं कि कपड़ा मिल में काम करने वाले सभी मजदूर सिल्क का कुर्ता धोती पहनते होंगे । मगर यह क्या ? आधे से अधिक मजदूर तो नंगे बदन ही रहते हैं । कुछ नसीब वाले भी हैं जिन्हें मोटी खादी की धोती पहनने को मिल जाती हैं । जो रंगरेज इन कपड़ों को रंग बिरंगे रंग से रंगते हैं उनके बच्चे तो एक से बढ़कर एक रंगीन कपड़े पहनते होंगे लेकिन जब उन्हें देखा तो पाया कि वे तो अपने बदन को रंगीन ख्वाबों से रंग कर धन्य हो जाते हैं । 


कभी कभी मैं सोचता हूं कि कोई "जूता" बनाने वाला मोची अपने पास बहुत से जूते रखता होगा । भांति-भांति के । अलग अलग कंपनियों के । अलग अलग डिजाइन के । मगर यह क्या ? जब उनके पैरों को देखा तो वे अक्सर नंगे ही नजर आये । 


कभी कभी मैं सोचता हूं कि जो ढ़ाब़ों पर खाना परोसने वाले बच्चे हैं , ये दिन रात एक से बढ़कर एक खाना खाते होंगे । मगर शायद इन्हें भरपेट खाना नसीब होता है या नहीं , यह केवल भगवान ही जानता है । 


जब मैंने इतना कुछ सोचा और उसका परिणाम यही निकला कि "नसीब अपना अपना" । इसलिए अब आगे और कुछ सोचने की इच्छा ही नहीं हुई । 



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