Meeta Joshi

Tragedy

4.6  

Meeta Joshi

Tragedy

कौन थी....?

कौन थी....?

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संजना ने भरे गले से घर का दरवाजा खटखटाया। मांँ के दरवाजा खोलते ही बच्चे, नानी से लिपट गए।

"नानी... नानी, हम आ गए, नानी।अब हमेशा आप ही के साथ रहेंगे" नासमझ थी दोनों।बहुत आसान था उनके लिए यह कहना, नानी से प्यार जताना।

मांँ निःशब्द संजना को देखती रही। दोनों तरफ दिल भरा पड़ा था।वे अपने जज़्बात बयांँ नहीं कर पा रही थीं। अपने-अपने आंँसू छुपा एक दूसरे को संबल देती दिखाई दीं।

"आओ बिटिया,दरवाजे पर क्यों रुक गई?" बड़े प्यार से माँ ने संजना को कहा।

संजना घर की देहली को देख रही थी।ये वही देहली थी जहांँ से विदाई के समय मांँ ने बेटी को फूट-फूटकर कर रो कर विदा किया था, पर उस आंँसू में भविष्य की शुभकामनाएंँ छुपी थीं, आशीर्वाद था, मांँ की ममता थी और साथ ही बेटी से बिछड़ने का दुख।।आज आँसुओं को निकलने की वजह नहीं मिल रही क्योंकि उसके पीछे की वजह दर्दनाक थी।

संजना ने अपनी चुप्पी को तोड़ते हुए कहा,"मांँ आ गई तेरी बेटी हमेशा-हमेशा के लिए तेरे पास।अब कभी मत कहना जाने को" और माँ से लिपट सुबक-सुबक कर रोने लगी। 

मांँ की ज़िद्द से पहले भी दो बार अपनी गृहस्थी बचाने का प्रयास कर चुकी थी।हर बार यही समझाया जाता, "पहाड़ सी जिंदगी है और दो बेटियांँ, कोशिश कर।एक दिन बच्चों पर मोह पड़ेगा तो दूरियाँ भी खत्म हो जाएंँगी। झुकना हर हालत में औरत को ही पड़ता है बिटिया।"

आज माँ ने वापस आने पर भरे गले से बेटी के माथे को चूम कर,बिना कुछ कहे बस उसे चिपका लिया।आज उसके आलिंगन में एक सुरक्षा थी,जैसे कह रही हो,"तेरी मांँ है ना तेरे साथ!तू चिंता मत कर।"

बच्चे बहुत छोटे थे, उनके लिए नानी के घर आना एक सुखद अनुभव था।बड़ी छः साल की थी और छोटी तीन साल की, बिल्कुल नासमझ।

जब खाने के लिए पूरा परिवार मेज पर साथ बैठा तो बड़ी ने नानी को मासूमियत से कहा,"नानी, मम्मी-पापा का रोज झगड़ा होता था।पापा घर भी नहीं आते थे।पापा की फ्रेंड है ना सुनयना आंटी उनके घर चले जाते थे। फिर माँ रोज रोती थीं। दोनों का रोज झगड़ा भी होता।मम्मा कह रही थीं कि अब हम पापा के घर कभी नहीं जाएंँगे।"

नानी बच्ची की बात सुन अपने पल्ले से कोने में आए आंँसू पोंछती रही और संजना निःशब्द चम्मच कटोरी में हिलाती रही, ऐसे जैसे सब बातें नजरअंदाज करना चाहती हो।

दिन बीत गए ।एक दिन मांँ-बेटी अकेली बैठी बातें कर रही थीं। मांँ ने कहा,"आगे का क्या सोचा है।क्या करोगी, संजू।" 

"आगे का क्या मांँ, बस जिंदगी नए सिरे से शुरू करनी है। अपनी बच्चियों के लिए जीना है। इनकी मांँ और पिता दोनों की भूमिका अदा करनी है। देखती हूंँ अभिनव का पहला कदम क्या होता है।नहीं तो पहल तो मुझे करनी ही पड़ेगी। "....."पर बेटा!"

"जानती हूंँ माँ कोर्ट जाना पड़ेगा। तरह-तरह के सवाल-जवाब होंगे पर कोई ना।जब कदम उठा ही लिया है तो बस आगे ही बढ़ना है।आप लोग हो ना मेरे सहारे के लिए और किसी के साथ की जरूरत नहीं है मुझे।"

माँ बातों को कुरेदना नहीं चाहती थी पर सब कुछ जानने की एक उत्सुकता सी थी।"कौन थी वो?तू जानती थी उसे,तुझे कभी आभास भी नहीं हुआ!कभी मिली थी तू उससे!कैसी दिखती है?ऐसा क्या है उसमें जो तुझ में नहीं!सास-ससुर को बताया,क्या कहते हैं वो लोग".....और भी न जाने क्या-क्या माँ पूछे चली जा रही थी। ".

.."सब बताया माँ, सब कुछ जानते हैं वो लोग।उसे और उन दोनों के अफेयर के बारे में भी।उसके बावजूद भी उन्होंने मेरी शादी कर दी।इन्हीं के साथ कॉलेज में स्टाफ में है। बहुत कोशिश की रोकने की।एक ही साथ जॉब करते हैं,हर समय साथ तो नहीं जाऊंँगी ना।कोई खास नहीं दिखती।मिलवाया था इन्होंने।घर आई थी, कीमती सा गिफ्ट लेकर।उसी समय महसूस किया इनका सारा ध्यान उसी पर था।जाने के बाद पूछा 'कौन थी वो?' बड़े आराम से बताया मेरे साथ स्टाफ में है।"

उसके बाद जब भी मुझसे मिलती बड़ा प्रेम दर्शाती पर जब भी हमारे बीच में आती अभिनव का स्वभाव ही अलग होता। कभी किसी स्टाफ पार्टी में जाते और वह मिल जाती तो अभिनव कहते, "अकेली कैसे जाएगी!चलो उसको छोड़ते चलते हैं।" कई बार मुझे उनकी समीपता का एहसास हुआ। मैंने उनसे बात शेयर की तो बोले, "तुम्हें वहम हुआ है ऐसा कुछ नहीं है। दिमाग में उल्टी बातें मत लाओ।" 


इनके स्टाफ में एक भैया-भाभी से मेरी काफी समीपता हो गई थी। एक दिन उन्होंने मुझसे प्रश्न किय।"अभिनव के साथ कुछ ज्यादा ही मित्रता है सुनयना की, तुम्हें बुरा नहीं लगता?

मैंने कहा,"नहीं।वो अच्छे दोस्त हैं।उनकी परेशानी देख बस मदद के लिए चले जाते हैं।जानते हैं ये कि मैं उनसे बहुत मोहब्बत करती हूँ ।"

मेरे कहने के बाद उन्होंने मुझे समझाने की बहुत कोशिश की, मैं समझ रही थी वो मुझे टटोलने की कोशिश कर रहे हैं या फिर आगाह करने की।धीरे-धीरे मैं भैया-भाभी से इतना घुल-मिल गई कि हर परेशानी शेयर करने लगी। मुझे पता चला कि अभिनव रोज उसे ऑफिस से छोड़ने जाते हैं।

एक दिन अभिनव से खूब बहस हुई,"आप उसे छोड़ने क्यों जाते हैं? घर बीच में पड़ता है तो क्या आप ही का ठेका है उसे छोड़ने का? मुझे आपका उसके साथ उठना-बैठना बिल्कुल पसंद नहीं है।लोग क्या कहते होंगे?"

अभिनव पर तो जैसे उसका जादू सा था।विश्वास दिलाते, "लोगों की परवाह मत करो।उसका घर बीच रास्ते में पड़ता है तो किसी की मदद करने में क्या फर्क पड़ता है।लोगों का क्या है वो तो कुछ भी कहते हैं।मुझे जिंदगी तो तुम्हारे साथ बितानी है तुम्हें विश्वास होना चाहिए। ".

...और एक दिन तो उन्होंने हद ही कर दी ऑफिस की कोई पार्टी थी जिसमें हम सभी गए हुए थे। अचानक मौसम खराब हो गया। रात का समय था।इन्होंने मुझे किसी और के साथ ड्रॉप किया और खुद उसे छोड़ने उसके घर चले गए।मौसम खराब होने की वजह से पूरी रात वहीं बिताई।मैं रात भर बेचैन थी।किससे पता करूँ, किसे फोन मिलाऊंँ।उन्हें घर कैसे बुलाऊँ.. दोनों का फ़ोन बंद आ रहा था। क्या करूँ बस यही सोचती रही।मन अंदर से घुट रहा था।अपने पति से,अपने आप से घृणा हो रही थी।दिल की धड़कन थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।धीरे-धीरे मुझे पता चला इनकी दोस्ती आज की नहीं है बहुत पहले की है। दोनों शादी भी करना चाहते थे। पर अभिनव के पेरेंट्स ने मना कर दिया। अपने पेरेंट्स का मन रखने को वो उनके आगे झुक गए और मुझसे शादी को राजी हुए और देखो ना माँ!सबने मिल मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। ऐसा नहीं है माँ, की मैंने ठंडे दिमाग से बात नहीं की।मैंने तो यहांँ तक कहा कि आप उसके साथ रहना चाहते हैं तो मैं बीच में से हट जाती हूंँ। पर दोनों ने मुझे विश्वास दिलाया कि ऐसा कुछ नहीं है। इस बीच मेरी बिटिया हो गई। व्यस्तता में समय बीतता गया। मेरा मन भी डाइवर्ट हो गया। दो साल के अंतर से दूसरी बिटिया हुई।अभिनव बच्चों को बहुत प्यार करते थे। लेकिन पता चला कि वहांँ आना-जाना आज भी वैसा ही है तो खूब झगड़ा हुआ। समझाने की बहुत कोशिश की पर धीरे-धीरे हालात इतने बिगड़ने लगे की अभिनव सरेआम कहते,"तुम्हें कोई दुख देता हूँ या बच्चों को खुश नहीं रखता?"

और एक दिन तो यहांँ तक कह दिया कि ,"मैं उसे छोड़ नहीं सकता, मेरी खुशी के लिए उसे स्वीकार कर लो।यकीन मानो उसके आने के बाद भी मेरा प्यार तुम्हारे लिए कभी कम नहीं होगा।"अभिनव के मुँह से सच्चाई सुन मेरा मन नियंत्रण में नहीं था।

सास-ससुर भी मुझे ही दोष देते, कहते "हमें तो सालों से पता था।सोचा था बहू आएगी सब ठीक हो जाएगा, पर तुममें इतने भी गुण नहीं हैं जो अपने पति को गलत करने से रोक पाती?"

अब सब्र की अति हो चुकी थी मांँ।इतने खुलेपन के बाद अब अभिनव को उसके घर जाने के लिए मेरी अनुमति, मेरे मन की और यहांँ तक कि लोगों की परवाह भी नहीं थी।जब मेरे विरोध करने पर भी वो नहीं माने तो समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ और एक दिन मैं उनके ऑफिस चली गई उनके स्टाफ से मिलने।सभी को आश्चर्य था इतनी गुणवान बीवी के होते हुए अभिनव को उसमें क्या दिखाई दिया।पर मांँ अभिनव की आंँखों में तो उसके अलावा कोई और मूरत ही नहीं थी।

वो मुझसे जब भी मिलती बहुत मीठा मिलती। विश्वास दिलाती कि,"हमारी दोस्ती को गलत मत समझो।वो तो बस मेरी मदद कर देते हैं।अकेली हूंँ हर किसी पर एकदम से विश्वास नहीं कर सकती और देखो ना तुम तो इतनी प्यारी हो तुम्हें छोड़ वो किसी और के पास क्यों जाऐंगे। दुनिया की छोड़ो उनका काम तो बातें बनाना है तुम्हें अपने प्यार और पति पर विश्वास होना चाहिए। "और मैं हर बार उसकी इतनी बड़ी-बड़ी बातें सुन अपना मन साफ कर आती। उल्टा अपनी सोच पर ग्लानि से भर जाती। हालांँकि हम दोनों के बीच जब भी वह होती तो मुझे असहज महसूस होता था। ऐसा नहीं है मांँ की मैं सब कुछ छोड़ यूंँ ही चली आई। मैंने अपनी गृहस्थी बचाने के लिए हरसंभव प्रयास किए। 'सुबह का भूला अगर शाम घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते' ससुर जी के इन शब्दों के आगे भी झुक कर देखा। इतना परेशान हो चुकी थी की अभिनव की गलतियाँ भी भूलने को तैयार थी।अपने पति को, अपने प्यार को, अपनी बेटियों के पिता को अपनी ही आंँखों के आगे किसी और का होते देखना कितना भयावह होता होगा माँ।मैं बिल्कुल लाचार हो गई थी।कैसे दिन बीते मैं ही जानती हूंँ जब अपने पति से अपने प्यार का, अपने बच्चों का वास्ता देकर गिड़गिड़ाती थी।"

बाहर वाले सभी मेरे साथ में थे। क्या पड़ोस और क्या स्टाफ। पर सब पीछे से।अभिनव के सामने कोई उससे दुश्मनी क्यों लेगा।पीछे कहते," मूर्ख आदमी इतनी अच्छी गृहस्थी है। इतनी पढ़ी-लिखी लड़की है। इतनी प्यारी दो बेटियां हैं। पर किसी की बुद्धि भ्रष्ट हो जाए तो क्या किया जाए।सब मुझसे सहमत थे कोई ऐसा नहीं था जो मेरे लिए खड़ा हो सकता था।सांत्वना के शब्द और राय के अलावा कभी किसी से कोई और सहयोग नहीं मिला। उस घर में रहना दूभर हो गया था। जब बातें सबके सामने आ ही गई थी तो वो खुलेआम उसको घर में, साथ रखने को तैयार हो गए थे।....मेरी कमी तो खलती ही नहीं थी क्योंकि वो तो वहाँ पूरी हो जाती थी। जब स्थिति बर्दाश्त के बाहर हुई तो घर छोड़ने से पहले ये प्रश्न भी दिमाग में नहीं आया कि लोग क्या कहेंगे। बहुत हिम्मत जुटाई माँ,मैने उस घर को छोड़ने के लिए। मैंने मन से उन्हें प्यार किया था। सब कुछ बहुत कठिन था मेरे लिए।अपने ही प्यार को, अपने घर को, अपनी ही आंँखों के आगे बर्बाद होते देखना। माँ ने संजना के हाथ में हाथ रख दिया।दोनों रो रही थीं।माँ के हाथ में इतना प्रेम था जैसे समझ गई हो कितनी मानसिक पीड़ा से गुजरी है मेरी बेटी। ....दोनों बिल्कुल चुप थीं।

आज ज़ज़्बातों को बयांं करने के लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी। .... "आगे क्या करोगी?"मांँ ने कहा "तलाक दो उसे और नए सिरे से अपने जीवन को आगे बढ़ाओ।अकेली नहीं हो तुम।हम सब तुम्हारे साथ हैं।"

....संजना ने लंबी सांँस भर आंँसू पौंछे और आत्मविश्वास के साथ बोली,"नहीं मांँ, मैं अपनी बच्चियों की जिम्मेदारी खुद उठाऊंँगी यह सच है, मुड़कर कभी पीछे नहीं देखूंँगी पर तलाक,वो मैं उसे कभी नहीं दूंँगी। जिस आदमी ने मेरे विश्वास को छला, मेरे प्यार का गला घोंट कर रख दिया, मेरी बच्चियों का बचपन बर्बाद कर दिया उनके सिर पर से पिता का साया छीन लिया।उस आदमी को मैं इतनी आसानी से माफ नहीं करुँगी। जानती हूंँ वो बड़े आराम से तलाक दे देंगे और उसके बाद खुलेआम उससे शादी भी कर लेंगे पर उनकी इतनी बड़ी गलती की सजा, यह तो नहीं। उन्हेंं कैसे महसूस होगा कि उन्होंंने गलती की जब मैं उन्हेंं इतनी आसानी से माफ कर दूंँगी। क्या पता कल किसी और के लिए सुनयना के साथ भी वो यही करें।मैं उन्हें कभी तलाक नहीं दूंँगी। मैं केस लडूंगी और बच्चों की जिम्मेदारी का अहसास उन्हें जीवन भर करवाऊंँगी। ऐसा नहीं है माँ कि मैं सिर्फ बदला लेना चाहती हूँ और ऐसा कर अपने जीवन बर्बाद कर रही हूंँ।दोबारा नए सिरे से जीवन की शुरुआत करना इतना आसान नहीं होता।मेरे लिए तो बिल्कुल नहीं होगा क्योंकि मैंने सच्चे मन से प्यार किया था। मैं उनके अलावा कभी किसी और से जुड़ने की सोच भी नहीं सकती।ये सोच कर जीवन बिता दूंँगी की अभिनव की दो निशानियांँ मेरे पास है और वो दुनिया में ही नहीं।तुम दोगी ना माँ मेरा साथ।आप, पापा और भाई तो मेरी ताकत हो।एक निर्णय मेरी जिंदगी का आप लोगों ने लिया था अच्छा लड़का देख अभिनव से शादी की।आज निर्णय मुझे लेने दो मांँ और मेरी ताकत बनो।

पीछे से पिता ने उसके कंधे में हाथ रख संबल देते हुए कहा," यह भी कोई कहने की बात है तू जो निर्णय लेगी हम तेरे साथ हैं।सही बात है जब तक अगला अपनी गलती पर पछतावा नहीं करता। तब तक उसे महसूस कराना ही होगा।"

संजना ने अभिनव पर केस किया।कुछ समय बाद बच्चों के मेंटेनेंस का खर्चा कोर्ट द्वारा उसे मिलने लगा। संजना ने जॉब ज्वाइन कर ली अब वो और बच्चे डरे-सहमे नहीं रहते बल्कि खुले वातावरण में सांस लेते हैं और अपनी नई बेफिक्र दुनिया में खुश हैं।

एक औरत अपना घर,अपना पति इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकती। हर संभव प्रयास करती है उसे बचाने के लिए।आज हमारे समाज में कितनी ही ऐसी महिलाएँँ हैं जो तलाकशुदा हैं। अपने बच्चों की जिम्मेदारी अकेले उठा रही हैं।उनकी मांँ और पिता दोनों बन उनकी परवरिश कर रही हैं।उन्हें सिंगल माँँ कहलाने का कोई अफसोस नहीं। उनका उद्देश्य अपने बच्चों को बनाना है उनके लिए जीना है। वो दूसरे बच्चों से कम नहीं यह दिखाना है। समाज को व उस इंसान को यह समझना है कि यदि एक महिला ठान ले तो अपने स्वाभिमान, अस्तित्व और अहम को जिंदा रख अपने अस्तित्व को एक नई पहचान दे सकती है। एक औरत का गहना है सहनशीलता, स्वभाव है कोमलता लेकिन यदि कोई उसके स्वाभिमान पर ठेस पहुंचाता है तो उसे मजबूती से अपना पक्ष रखना भी आता है।सिंगल माँ होने का दर्द वो ही समझ सकती हैं जो इस दौर से गुजरी हैंं।आज समाज में खड़ी हो वह एक मजबूत जीवन जी रही हैंं।सलाम है ऐसी माओं को जो अपना दर्द भुला बच्चों की खुशी के लिए मेहनत कर समाज में अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं।


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