Junaid chaudhary Mj

Drama Inspirational

3  

Junaid chaudhary Mj

Drama Inspirational

काल चक्र

काल चक्र

11 mins
446


बात सन 1945 मुरादाबाद की है।

देश आज़ाद हो चुका था और विभाजन शुरुआती दौर में था। अंग्रेज़ जाते जाते हिंदुस्तान को दो हिस्सों में तक़सीम कर चुके थे। एक हिस्सा जो मुसलमानों के लिए खास दिया गया था। और एक हिस्सा वो जो जम्हूरियत (हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई) के लिए दिया गया।


विभाजन की आग पूरे देश में फैली हुई थी। पूरा देश बेरोज़गारी ओर फिक्र में डूबा हुआ था। उस पर पाकिस्तान से हिंदूओं को मारने की आती हुई खबरों से बेबसी ओर लाचारी ने गुस्से ओर बदले की शक्ल इख्तियार कर ली थी। पूरे देश में कानून न होने की वजह से मार काट आम हो गयी थी। जो जहां बहुसंख्यक था वो वहां अल्पसंख्यक को बिल्कुल नहीं रहने देना चाहता था। इस आग में ही जल रहा था मुरादाबाद। जहां की अक्सर आबादी हिन्दू थी।


क्योंकि मुसलमानों के लिए अलग मुल्क दे दिया गया था। इसलिए मुरादाबाद में मुसलमानों पर ये दबाव बनाया जाने लगा था कि वो हिन्दसुतां छोड़ कर पाकिस्तान कूच कर लें। इसी दबाव के चलते मुसलमानों का एक मजमा (ग्रुप) मुरादाबाद क्षेत्र के सबसे बड़े सरपंच राजपूत हिमालय चौधरी के पास गया।


मुसलमानों के अमीर(लीडर) ने राजपूत हिमालय चौधरी के सामने अपनी इल्तेजा रखते हुए कहा। सरपंच साहब हम इस शहर में बरसों से रहते हुए आ रहे है। हमारे बाप दादाओं ने मिल कर अँग्रेज़ों से लड़ाइयाँ लड़ी है। क्या हमने ये लड़ाइयां इसलिए लड़ी थी कि कल को हमें अपनी ज़मीन छोड़नी पड़े ? क्या हमारे पुरखे नवाब मज्जू अली खां ने इतनी दर्दनाक शहादत इसी लिए सही के कल को उनके लोगों को मुरादाबाद हिंदुस्तान से निकाल दिया जाए।


इस पर दूसरे सरपंच विकास चौधरी ने कहा - तुम्हारे लिए इतना बड़ा पाकिस्तान छोड़ा गया है। और इस पाकिस्तान की मांग भी तुम्हारे ही लीडर जिन्ना ने की है। या तो तुम अलग देश मांगते नहीं। या अब जब बटवारा करवा ही लिया है तो अपने हिस्से में जाओ। जब तुम हमारे हिन्दू भाइयों को पाकिस्तान में नहीं रहने दे रहे तो हम तुम्हें यहां कैसे रहने दें।


अमीर- सरपंच साहब हमने कहाँ दूसरे मुल्क की मांग की ? ये आपसी रंजिश कहो या पहले प्रधानमंत्री बन ने की चाह कहो या कहो अँग्रेज़ों की साज़िश। लेकिन शिकार तो हम ओर हमारा भाई चारा हुआ। अंग्रेज़ जब तक देश में रहे तब तक हम में फूट डालते रहे। और अब जाते जाते हमें सगे सौतेले में बांट गए। । ओर रही बात अलग देश मांगने की तो जिन्ना से 7 साल पहले अलग देश की मांग आर एस एस लीडर सावरकर ने कर दी थी। ।  बल्कि हमारे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद दिल्ली की जामा मस्जिद से रो रो कर मुल्क को तक़सीम न करने की इल्तिजा कर रहे है। और मुसलमानों से मना कर रहे है कि इस तक़सीम का बायकाट कर दिया जाए।


सरपंच हिमालय चौधरी- हम जानते है अमीर सा आपने ओर आपके लोगों ने बड़ा त्याग दिया है इस मिट्टी के लिए। मुरादाबाद के गिलशहीद की मिट्टी आज भी मुसलमानों के खून से सुर्ख है। । ओर इंसाफ यही कहता है जो मिट्टी आपकी है उसे आपसे कोई नही छीन सकता। आप अगर खुद की मर्ज़ी से चाहें तो हिंन्दुस्तान छोड़ सकते है। । वरना आपको यहां से कोई नही निकालेगा। ये फैसला मुरादाबाद के 200 गाँव मे मुनादी कर के कहलवा दिया जाए। जो इस फैसले के खिलाफ जायेगा वो राजपूतों के खिलाफ जायेगा। और राजपूतों के खिलाफ जाने का अंजाम हर कोई भली भांति जानता है।


हिमालय चौधरी के इस फैसले से मुसलमानों में खुशी की लहर दौड़ गयी। लेकिन जहां इस फैसले से एक बड़ी तादाद खुश थी वहीं कुछ लोगों ने इस फैसले का खुल कर विरोध शुरू कर दिया था। और इस विरोध में सबसे आगे थे दूसरे न० के सरपंच विकास चौधरी।


विकास ने तीनों सरपंचो को घर भोज पर बुलाया। और कहा मेरे भाइयों पंचायत का मतलब क्या होता है ? पाँचों पंचों की सहमति से होने वाला फैसला। लेकिन ये हिमालय तो हमें कुछ समझता ही नहीं। उन मुसल्लों के लिए उसके दिल मे इतनी हमदर्दी है कि उसने हमारी राय लेनी भी ज़रूरी नहीं समझी। खुद ही अकेले फैसला सुना दिया। मैं तो कहता हूं अभी वक़्त है कि हिमालय को उसकी औकात दिखा दी जाए। नहीं तो कल को ये हमारी ज़मीनें भी छीन कर मुसल्लों को दे देगा।


विकास चौधरी की बात बाकी के पंचों की समझ में आ गयी। और अगले दीन फिर से पंचायत करने का एलान कर दिया गया।

इधर हिमालय चौधरी की पत्नी खाते वक़्त फिक्र मन्द होकर कहने लगीं आपने आज इतना बड़ा फैसला ले लिया। आपके इस फैसले की वजह से आपके दुश्मन ओर ज़्यादा बढ़ गए। एक तो पहले से ही आपकी गद्दी की वजह से जो आपका छुपा दुश्मन था। अब वो भी खुल के सामने आ गया है।


हिमालय चौधरी- पत्नी श्री बात तो आपकी ठीक है। लेकिन आज उस मुस्लिम ने जिन नवाब का वास्ता मुझे दिया 1857 में राजपूतों ओर नवाबो ने मिल कर अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी। उस लड़ाई में मुरादाबाद के सारे नवाब खत्म हो गए थे। लेकिन किस्मत थी कि राजपूत बच गए थे। आज अगर में मुसलमानों को यहां से निकाल दु तो न तो खुद से नज़र मिला पाऊंगा। न बाद मरने के अपने पूर्वजों से। अब राजपुतायन हमने ओखली में सिर दे ही दिया है तो मूसल से क्या डरना।


अगले हफ्ते पंचायत में


विकास चौधरी ने पहले से ही कुछ लोगों को हिन्दू मुस्लिम मुद्दे के लिए खड़ा कर दिया था। पंचायत शुरू होते ही वही मुद्दा उठा दिया गया। हिमालय चौधरी ने कहा में इस पर पहले ही फैसला सुना चुका हूं। दोबारा इस बात को उठाने का कोई फायदा नहीं। इस पर विकास ने कहा चौधरी सा पंचायत में फैसला पंचो की मर्ज़ी से होता है। सरपंच की मर्ज़ी से नहीं। हम चारों पंच आपके इस फैसले के खिलाफ है। सर्वसहमति से ये फैसला लिया गया है कि ये हिंदुस्तान छोड़े न छोड़े पर इन्हें हमारी बस्तियां छोड़ कर जाना होगा। ये हमारा अंतिम फैसला है।


विकास की बात सुन कर हिमालय चौधरी कुछ देर के लिए गहरी सोच में पड़ गए । पंचायत में शोर गुल उठना शुरू हो गया। जब शोर गुल ज़्यादा बढ़ा तो हिमालय चौधरी ने अपना हाथ हवा में उठाया। उनके हाथ उठाने से सब चुप हो गए। फिर उन्होंने खड़े हो कर कहना शुरू किया। आज़ादी में हम सबका बराबर खून बहा है। और अब लड़ाई मुसलमानों के बस्ती छोड़ने को लेकर है तो । मैं ..हिमालय चौधरी... भरी पँचायत में ये एलान करता हूँ के मैं आज से मुस्लिम धर्म अपना रहा हूँ। आज के बाद मेरा नाम हाशिम होगा । मेरे मरने के बाद मुझे इसी मिट्टी में दफनाया जायेगा। और मेरी बीवी भी आज से मुस्लिम नाम से जानी जायगी।


हिमालय उर्फ हाशिम का ये एलान सुनते ही पूरी पँचायत को सांप सूंघ गया। अब सिर्फ हवा से पत्तों की सर सराहट की आवाज़ आ रही थी। सारे पंचों के चेहरे के रंग उड़ गए थे। विकास ने कहा अगर आप मुस्लिम धर्म अपना लेते हो तो आपको सरपंची की पगड़ी उतारनी पड़ेगी। हाशिम ने सिर से पगड़ी उतार कर कहा अब में देखता हूं मुझे बस्ती छोड़ने पर कौन मजबूर करता है । इतना कह कर हाशिम पँचायत छोड़ कर चला गया।

हाशिम के इस्लाम अपनाने से मुस्लिम बस्तियों में ईद का माहौल हो गया। मुस्लिम जानते थे कि हाशिम के इस्लाम में आ जाने के बाद अब उन्हें बस्तियों से कोई नहीं निकाल सकता। और मुस्लिमों का रहना सहना अब सुकून से होगा।  लेकिन वो ये नहीं जानते थे इस्लाम की वजह से हाशिम भारी परेशानी में आ जायेगा।


पंचायती से इस्तीफा देने के बाद हाशिम फिर से अपनी खेती किसानी में लग गया। लेकिन उसके विरोधी कभी उसके खेत में आग लगा देते तो कभी आवारा जानवरों को उसके खेत मे घुसा देते। लेकिन हाशिम का इन सब बातों पर कोई प्रतिक्रिया न देना उसके विरोधियों को ज़्यादा खलता। लेकिन हाशिम के धाकड़पन की वजह से विरोधी सामने से कुछ कह भी नहीं पाते थे।

वक़्त पंख लग कर उड़ता रहा। हाशिम को दो लड़के हुए। बड़े का नाम उसने नसीम रखा और छोटे का मतीन। वक़्त का तकाज़ा देखते हुए हाशिम ने दोनों का स्कूल में दाखिला करा दिया। साल बीतने शुरू हो गए।


अब तक हाशिम का बेटा चौथी जमात में आ चुका था। नसीम नाक नक्शे ओर चाल ढाल में अपने बाप पर गया था। 15 साल की उम्र में ही वो पौने 6 फिट का था। ।इसी लिये स्कूल में सबसे लंबा दिखता था। जिस स्कूल में नसीम था उसी स्कूल में विकास के बच्चे भी पढ़ते थे। धर्म के ऊपर फब्तियां सुन ना तो नसीम के लिए आम बात हो गयी थी। लेकिन उस दिन जब सब बच्चों ने अपनी तख्तियां पोत कर सूखने के लिये रखी तो विकास के बेटे ने नसीम की तख्ती पर (मेरा बाप दोगला है) लिख दिया। जिसको पढ़ कर नसीम आपा खो बैठा ओर विकास के बेटे रोहिन्द्र को जम कर पीट दिया। जब ये खबर विकास को लगी तो उसने ओर उसके रिश्तेदारों ने मिल कर हाशिम के घर चढ़ाई कर दी। लेकिन हाशिम माहिर लठैत था। उसके सामने विकास ओर उसके साथ वाले टिक नहीं पाए। और अपने दांत पीसते हुए घरों को लौट गए। ।कुछ दिन विकास खामोश रहा। लेकिन एक दिन उसने लोगों को इकट्ठा कर हाशिम के घर धावा बोल दिया। इतने लोगों के हमले को देख कर हाशिम ने नसीम और मतीन को पिछले दरवाज़े से भगा दिया। और खुद लाठियाँ लेकर उनका मुकाबला करने खड़ा हो गया। जब तक नसीम और मतीन बस्ती से मदद लेकर लोटे विकास और उसके साथी हाशिम और उसकी बीवी को पीट कर मार चुके थे। जब मुसलमानों ने हाशिम को ज़मीन पर खून में लथपथ देखा तो अपनी अपनी तलवारों से विकास को मौत के घाट उतार दिया। उस पूरी रात मुरादाबाद में मौत ने तांडव किया। ।  


विकास के लोग नसीम और मतीन को पागलों की तरह ढूंढ रहे थे। और नसीम ओर मतीन पर इतनी दहशत तारी थी कि वो उसी रात शहर छोड़ कर भाग गए। और न जाने किस ट्रैन में जाकर बैठ गए। अगले दिन जब सुबह आंख खुली तो नसीम ने खुद को कालागढ़ में पाया। लेकिन छोटे भाई का कहीं अता पता नहीं था। बहुत ढूंढने के बाद भी जब मुबीन का पता न लगा तो भूख प्यास की शिद्दत में नसीम मज़दूरी की तलाश में निकल गया। कालागढ़ में 1961 में डैम बन रहा था। नसीम को वहीं मज़दूरी पर काम मिल गया। वक़्त के दिये ज़ख्म हल्के होने लगे। डैम में काम करने वाले मज़दूरों को ही नसीम ने भाई बन्धु बना लिया था। और वही शादी कर के गुज़र बसर करने लगा। ।


1974 में डैम बन कर तैयार हो गया। जितने भी मज़दूर थे सबके सामने एक बार फिर रोज़ी का सवाल खड़ा हो गया। न चाहते हुए भी नसीम ने अपने पांच बच्चों के साथ फिर मुरादाबाद का रुख किया। उसके दिमाग में बस यही बात थी कि बाप की ज़मीन जायदाद से बच्चों को अच्छी तालीम मिल जायेगी। और दुखों के दिन खत्म हो जायेंगे । लेकिन 13 साल में मुरादाबाद बहुत बदल गया था। हाशिम की सब ज़मीनों पर रिश्तेदारों ने कब्ज़ा कर लिया था। और खेत बेच कर खा चुके थे। हवेली को टुकड़ों में तक़सीम कर के उसमें दीवारें बना कर रहने लगे थे। जब नसीम ने रिश्तेदारों से अपनी जगह मांगी तो पहले तो रिश्तदारों ने पहचान ने से मना कर दिया। फिर जब नसीम ने सारे हवाले दिए तो कहने लगे हाशिम ने ये हवेली हमें बेच दी थी। तुम्हें चाहिए तो मुकदमा लड़ के ले लो। नसीम वहाँ से मायूस होकर निकल गया। वही किराये पर कमरा लिया और किराये का रिक्शा लेकर चला कर गुज़र बसर करने लगा। जब वहां के मुस्लिमों को पता लगा नसीम वापस आ गया है तो उन सबने आकर नसीम को गले से लगा लिया। और फिर से सरपंची की पगड़ी नसीम के सिर पहनाने का इसरार किया। लेकिन नसीम ने ये कह कर मना कर दिया कि मेरी माँ बाप भाई सबको ये सरपंची खा गई। फिर में रिक्शा चलाने वाला आपके फैसले करूँ ये अच्छा नहीं लगेगा। आप लोग मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें।


कुछ वक्त ओर गुज़रा। नसीम के सब बच्चे बड़े होने लगे। और सबने पीतल के काम में अलग अलग हुनर लेकर पीतल का कारोबार शुरू कर दिया। ये 1985 का दौर था। जब मुरादाबाद के पीतल के काम की धूम पूरी दुनिया में थी। और मुरादाबाद पीतल नगरी के नाम से जाना जाने लगा था। इस वक़्त पैसा मानो आसमान से बरस रहा था। नसीम के पाँचों बेटों ने अपने अपने घर बना लिए ओर लखपति हो गए।


1990 में अचानक नसीम का भाई मतीन लौट आया। वो भी आते ही हवेली गया। वहां उसे भी वही जवाब मिला जो नसीम को मिला था। लेकिन उसे जवाब के साथ साथ अपने भाई का पता भी मिल गया। जब मतीन नसीम के घर गया तो घण्टों दोनों भाई एक दूसरे के गले मिल के रोते रहे। नसीम ने पूछा तू इतने सालों से कहां था भाई ? देख तेरे इंतज़ार में मेरी दाढ़ी भी सफेद हो गयी। आंखें भी कमजोर होने लगी। मतीन ने कहा उस रात में पानी पीने के लिए ट्रेन से उतरा था। और न जाने कैसे कानपुर की ट्रेन में जा बैठा। जब होश आया तो खुद को कानपुर में पाया। ज़िन्दगी होटलों में काम करते करते बीती। फिर अपना काम कर के कानपुर में ही शादी की ओर वही बस गया। अब जाकर मुरादाबाद आने की हिम्मत हुई तो आ गया। उम्मीद नहीं थी कि यहां आप मिल जाओगे। पता होता तो बहुत पहले चला आता।

खैर जो बस्तियां थी वो अब मोहल्लों में तबदील हो चुकी थी। जब मोहल्ले वालों को पता लगा तो वो फिर मतीन के पास आ गए। और मतीन से कहा कि वो अब इस मोहल्ले के फैसले सुलझाया करेगा। लेकिन मतीन ने कहा में यहां बस कुछ दिनों के लिए हूँ । लेकिन हां आपकी ये पगड़ी मेरा भतीजा हाजी सम्भालेगा।

कुछ दिनों के बाद जलसे में हाजी जी को सरपंची की पगड़ी से नवाज़ दिया गया। ये हाजी जी कोई और नहीं मेरे वालिद मोहतरम ही है।

मुझसे अक्सर लोग पूछते है मेरे नाम में चौधरी कैसे लगा है। मेरे पुरखों ने धर्म बदला। नाम बदला। घर बदला। शहर बदला। पर जो न बदला वक़्त के बाद भी वो था चौधरी का लक़ब।


वैसे शेक्सपियर लिखते थे नाम में क्या रखा है। और उसी लाइन के नीचे खुद का नाम लिखते थे। इसलिए दोस्तों में कहता हूँ हर नाम में कुछ न कुछ रखा है।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama