Junaid chaudhary Mj

Romance

5.0  

Junaid chaudhary Mj

Romance

छज्जे छज्जे का प्यार

छज्जे छज्जे का प्यार

21 mins
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मोहल्ला चौधरियान में हमारा चार मंज़िला मकान बड़ी शान से खड़ा था। अभी तक इस मोहल्ले के हम ही सबसे रईस थे। लेकिन पिछले साल किसी सैफी साहब ने मकान से दो मकान छोड़ कर ज़मीन ले ली। और पाँच मंज़िला खूबसूरत इमारत खड़ी कर दी। उस इमारत में कोई फैमिली रहने आ चुकी थी। पर अभी तक हमे पता नहीं था ये लोग कौन हैं, और क्या है। खैर, रोज़ की ही तरह मैं और मेरा छोटा भाई छत पर पतंग उड़ा रहे थे। छोटे भाई ने कहा

"भाई कट गई ?" "मैने कहा क्या ? "

छोटा भाई बोला "हम लोग की पतंग कट गई भाई। वो देखो सैफी के छज्जे पर कितनी प्यारी प्यारी दो लड़कियाँ खड़ी हैं। "

मैंने पहले घूर कर छोटे भाई की तरफ देखा। फिर सैफी साहब के छज्जे की तरफ नज़र की। वहाँ वाक़ई में बहुत खूबसूरत दो लड़कियाँ गली के नज़ारे निहार रही थी। मैंने उसे देखा तो देखता ही रह गया। मेरे निहारने में मेरे छोटे भाई ने खलल डाला और कहा "आप खामखा गुस्सा कर रहे थे।।सच में कट गई न.. पतंग।" मैंने छोटे भाई से कहा "चरखी लपेट और अपने छज्जे पर चल" 

मैं और रेहान दोनों बालकनी में खड़े हो गये। वो दोनों शायद बहनें थी। और एक मेरी हमउम्र थी दूसरी रेहान की। अचानक बड़ी वाली ने मेरी तरफ देखा तो में सेहम कर अपने ही छज्जे से पीछे हट गया। फिर कुछ लम्हो के बाद वापस आगे आया तो वो इधर ही देख रहीं थी। मैंने उनको देख कर हल्की सी स्माइल कर दी। उन्होंने देख कर इग्नोर कर दिया। कहते है ना ख़ुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत आ ही जाती है


खैर अब मेरा पहला मक़सद उनके बारे में सब कुछ जान न था। जहाँ से ये मकान बेच कर आये थे उसी मोहल्ले में जाकर दोस्त के ज़रिये एक लड़के से सब पता करा। उसने बताया बड़ी बहन का नाम सारा है, और छोटी का हिबा। दोनो बहुत नखरे और एटीट्यूड वाली लड़कियाँ हैं। किसी लड़के को भाव नहीं देती। बाप इनके एक्सपोर्टर हैं, इसकी दो बड़ी बहनों की शादी हो चुकी। एक दुबई में जॉब करता है। दूसरा देल्ही में प्रोपेर्टी डीलर है। मैंने उस से कहा "भाई मैं तो बी एस सी में हूँ। तू ये इसके जीजाओ की जॉब का बता के सुलगा मत। लड़कियों के बारे में इतनी जानकारी ही काफी है। बाकी मैं खुद देख लूँगा।" ये कह कर में वापस घर आ गया। अब मसला ये था सारा से बात शुरू कैसे की जाये।

पूरा दिन छज्जे में कुर्सी डाले बैठा रहता, वो जैसे ही अपने छज्जे में आती में नज़र आसमान में कर लेता। मुझ पर मानो जैसे पानी पड़ जाता। मैं ऐसा हो जाता जैसे पतंगों के पेंच देख रहा हूँ। पर हकीक़त में उस से नैनो के पेंच लड़ाने की फिराक में रहता।


खैर, ऐसे ही पूरा हफ्ता बीत गया पर बात करने की कोई तरकीब नज़र नहीं आयी। 8वे दिन सारा और हिबा बालकनी में चिप्स खा रही थी। छोटे ने कहा "देखो भाई दोनो खा रही है और हमसे झूठे मुँह भी नहीं पूछा।" मैंने कहा "वो क्यों पूछेंगी हमसे ?" फिर अगले ही पल शैतानी दिमाग के घोड़ों ने दौड़ना शुरु कर दिया। मैंने छोटे को जेब से 5 का सिक्का निकाल कर दिया और कहा "भाग कर एक कुरकुरे ले आ। और सुन इतनी तेज़ जाना आना के इनका चिप्स खत्म न होने पाए। नहीं तो ये वापस चली जाएँगी रूम में।" छोटे ने कहा "भाई आपको पता नहीं है ये शेहज़ादिया कितनी नज़ाकत से चिप्स खाती है। मैं दुकान के 5 चक्कर लगा लूँगा इनका चिप्स खत्म नहीं होगा।" मैंने हँसते हुए छोटे के सर पर मार के कहा "चल बातें मत बना, भाग के जा दौड़ के आ।"

छोटा बिजली की रफ़्तार से वापस आ गया। मैंने कुरकुरे का मुंह खोला और छोटे से कहा "खाना शुरू कर।" छोटे ने मुट्ठी भर कर निकाल लिया। मैंने फिर छोटे के सर पर मारा। "अबे हब्शियों की तरह नहीं, नज़ाकत से खा। उनके देखने से पहले खत्म हो गया तो तेरी खैर नहीं।" बेचारे छोटे ने एक एक कर निकाल कर खाना शुरू करा। तभी सारा ने मेरी तरफ देखा। मैंने उसे दूर से ही कुरकुरे ऑफर करा। उसने न में गर्दन हिलायी और मुँह फेर लिया। छोटा बोला भाई "अब हब्शियों की तरह खा लूं। मैंने कहा "ले भर ले।" अभी मूड ताज़ा ताज़ा खराब ही था। तभी सारा ने फिर इधर देखा और अपना चिप्स का पैकेट दिखा कर कहा "आप खा लो।" कुछ देर के लिए तो में सहम सा गया। फिर मैंने मन मज़बूत कर कर के कहा - "लाओ खिलाओ।" 

अब वो बेचारी सोच में पड़ गयी। बीच में दो मकान का फासला। इतनी दूर चिप्स कैसे दे। सारा ने पूछा "कैसे दूँ।" मैंने दोनों हाथ हवा में उठा कर इशारे से कहा "मुझे क्या पता?"

वो मुस्कुराती हुई रूम में वापस चली गयी। और जाते जाते मुझे भी मुस्कुराने की वजह दे गई।

अब जब भी वो बालकनी में दिखती छोटे भाई की दौड़ दुकान तक लगती। मैं उसको पूछता वो मना कर देती। और सब सामान भाई के पेट में समा जाता। छोटे को हिबा से ज़्यादा चिप्स और कोल्ड ड्रिंक्स में इंटरेस्ट था। खैर हमे बात करने का बहाना मिल गया था। अब सारा भी बालकनी में तभी आती जब उसके पास खाने का कुछ होता था। एक दूसरे को सामान ऑफर करते करते यूँ ही दो महीने बीत गए। 

एक दिन में छत पर खड़ा पतंग उड़ा रहा था के पापा का फ़ोन आया और कहने लगे 'कल्लू लोहार के यहां आ जाओ। और दो तीन दोस्तों को भी साथ में ले आना।" मैं सोचने लगा पापा का मैटर तो नहीं हो गया लोहार से। लड़के भी बुलाये हैं। मैने दोस्तों को कॉल की और कहा "चेन पंच जो भी है ले के फ़ौरन कल्लू लोहार के यहाँ पहुँचो। मैं भी आ रहा हूँ । आर्डर सुनते ही सारे दोस्त आस्तीन चड़ा कर लोहार की दुकान के इर्द गिर्द खड़े हो गये। मैंने जाते ही पापा से कहा जी बताइये ..

पापा बोले "इस ( कल्लू) से मैने पीसलन (स्लाइड) और उठक बैठक (सी सॉ) बनवाया है। ये सामान घर ले कर जाना है। अपने मोहल्ले में कोई पार्क नहीं है इसी लिए ये सब छत पर लगवाएंगे। अब बच्चों को दूर कालोनी नहीं जाना पड़ेगा खेलने के लिए।" 

खैर हाथों की खुजली को जेब में रख कर मैं और मेरे दोस्त सब सामान छत पर ले आये। और उन्हें पूरे दिन की मेहनत के बाद छत पर फिट करा दिया।

शाम हुई जिस जिस बच्चे को पता लगा वो झूले झूलने घर आ गया। घर की छत पर मेला सा लग गया।। बच्चों की हँसी की आवाज़े सुन कर सारा और हिबा भी अपनी छत पर आ गयी। झूले देख कर बहुत खुश हुईं और कहने लगी "ये कब आये ? "

मैंने कहा "मैं लेकर आया हूँ।"

सारा कहने लगी "पर क्यों ? "

मैने कहा "ताकि तुम भी अब बहाने से हमारे घर आ सको।" 

सारा ने कहा "बहाने की क्या ज़रूरत है, मैं कल ही आ रही हूं तुम्हारे घर।

मेरी तो मानो लॉटरी लग गयी हो, मैंने दिल ही दिल पापा को एक लाख दुआएँ दी और मन ही मन कहा "शुक्रिया अब्बा मेरा पहला अफेयर आप ही की वजह से होने जा रहा।"

अगले दिन पूरी छत की धुलाई सफाई की। क्योंकि मेहबूब के आने की पूरी गुंजाईश थी। आखिरकार शाम के वक़्त दोनों आ गयी। ब्लू जीन्स व्हाइट और ब्लैक टॉप में सारा किसी हीरोइन से कम नहीं लग रही थी। सुनहरी बाल, बड़ी बड़ी आँखें। खड़ी नाक खूबसूरत नक्शा, पास से देखेने में वो और ज़्यादा खूबसूरत थी। बाकी हिबा को मैने नोटिस नहीं किया। 

खैर, वो दोनों साथ में छोटी बहन के लिए तोहफ़ा भी लायी थी और चॉक्लेट भी, अम्मी ने उनका नाश्ता कराया। फिर मैंने सारा से कहा "आईये आप को छत के झूले दिखा लाऊँ।" 

सारा ने कहा" जी बिलकुल।"


छत पर जाने के बाद रेहान और हिबा स्लाइड पर खेलने लग गए। मैं और सारा झूले पर बैठ गए। मैंने उस से पूछा "तुम किस क्लास में हो।"

उसने कहा 12th।" मैंने कहा "अरे वाह में बी एस सी में हूँ।" उसने जीन्स से अपना नोकिया 1100 निकाल कर हाथ में रख लिया, मुझे लगा शायद ये शो ऑफ़ कर रही है अपना मोबाइल। मैंने भी अपना रिलायंस जीएसएम् मोबाइल निकाल कर दिखाया, के हम भी ग़रीब नहीं है। खैर उस बेचारी ने मुँह बनाते हुए मोबाइल वापस जेब में रख लिया। उस दिन हम लोग की काफी बातें हुई। फिर वो वापस घर चली गयी। रात मे में लेटा हुआ उसी को सोचता रहा। सोचते सोचते जब ध्यान आया की वो मोबाइल नंबर के लिए दिखा रही थी न कि शो ऑफ़ के लिये तो मैने अपना ही माथा पीट लिया। घोर अफसोस पर कर भी क्या सकते थे। चिड़िया खेत चुग चुकी थी। अगले दिन शाम के वक़्त जब वो दोनों बहने ऊपर आयी तो मैने पतंग में एक कागज़ पर मोबाइल न० लिख कर पतंग पार कर ली। और सारा के सर पर घुमाने लगा। वो अपने सर पर पतंग घूमती देख कर मुस्कुराने लगी।

मैने भी अदब से पतंग को उनके कदमों में गिरा दिया। उसने पतंग उठा कर छुड़की देनी चाही पर तभी उसकी नज़र पतंग में बंधे न० पर पड़ी। उसने कागज़ पतंग से खोल कर रख लिया। लेकिन उसकी कॉल नहीं आई, इंतज़ार करते करते शाम हो गयी। ठीक जब मग़रिब की अज़ान शुरू हुई उसकी काल आई। दुआ सलाम के बाद कहने लगी "ये मोबाइल मेरे घर का है। इस पर कॉल मत करना कभी ख़ुद से।और में जब भी करूँगी तो मग़रिब की अज़ान पर ही करूँगी।" इस पर मैंने पूछा "ऐसा क्यों? " तो फिर वो कहने लगी "क्योंकि बाकी टाइम अम्मी के पास होता है मोबाइल या घर मे रखा होता है।" मैंने कहा "यार रोज़ाना सिर्फ दो ही मिनट बात हो पायगी ऐसे कैसे चलेगा ?" फिर उसने कहा "तुम ही बताओ में क्या कर सकती हूं?"


मैने कहा "तुम हर संडे घर आ जाया करो झूले झूलने के बहाने। इसी बहाने हमारी बात भी हो जाया करेगी। और किसी को कोई ऑब्जेक्शन भी नहीं होगा।" इस सलाह पर दोनो की रज़ामन्दी बनी और इसी के साथ अज़ान भी पूरी हुई और कॉल कट गई। जैसा कि तय हुआ था वो संडे को अपनी बहन के साथ आ गयी। रेहान और हिबा खेलने में लग गए और हम दोनों दुनिया से बेखबर अपनी गुफ़्तुगू में। उस से बातें करते हुये वक़्त कैसे पंख लगा कर उड़ जाता था पता ही न लगता था। एक घण्टा बातें करने के बावजूद भी बातें अधूरी रह जाती थी। और जो बातें रह जाती थी वो हम इशारों में एक दूसरे से छज्जों पर खड़े हो कर करते थे। क्योंकि उसके और मेरे घर में दो घरों का फ़ासला था। लेकिन हम इस बात से अंजान थे कि हम सबकी नजरों में आ चुके है। लोग हमें इशारे करते हुए देखते और आपस मे बातें बनाते। बात एक एक कर के पूरे मोहल्ले में फैल गयी। जितने लड़के लाइन में लगे थे सब दुश्मन बन गए। उस दिन ये बात पता लगी मोहल्ले में दुश्मन पैदा करने हो तो मोहल्ले की सबसे खूबसूरत लड़की पटा लो। पर मुझे उन सब से कोई फर्क न पड़ता था। जिसे में चाहता था वो मुझे चाहती थी। फिर भला ज़माने की परवाह में क्यों कर करता। हम दोनों को 5 महीने से ज़्यादा साथ हो चुके थे। लेकिन अभी तक मोहब्बत का इज़हार न उसने करा था न मैंने। बिना इज़हार के ही हमारी गाड़ी हौले हौले चल रही थी।। लेकिन कब तक चलती, इस बार संडे बारिश के मौसम में था। खूबसूरत मौसम ठंडी हवाएं चल रही थी। छत पर पड़ी बेंच पर हम दोनों बैठे थे और मैने उसका हाथ थाम रखा था। न जाने उसे क्या हुआ उसने कहा "आखिर हम दोनों का रिश्ता क्या है ? न तो हम दोस्त ही है.. ना और कुछ ही। और मुझे ऐसा लगता है ऐसे बेबुनियादी रिश्ता रखना सही नहीं।"

मैंने कहा "तुमसे किसने कहा हमारा रिश्ता बेबुनियादी है। जब भी तुम मेरे ख्यालों में आती हो दिल की धड़कनें बेतरतीब हो जाती हैं, कहते हैं धड़कने जिंदगी की अलामत होती हैं तो क्या तुम ही मेरी जिंदगी हो ? क्या तुम मेरे सीने में दिल बनकर इसलिए धड़कती हो ताकि मैं जी सकूं, ज़िंदगी को महसूस कर सकूँ ? अगर ऐसा है तो इस तरह बेतरतीब क्यूँ धड़कती हो, तुम्हें धड़कने का सलीका क्यूँ नहीं आता ? तुम्हारे हर काम तुम्हारी चाल, तुम्हारी बातें यहाँ तक कि तुम्हारा धड़कना भी बेतरतीब क्यूँ होता है ? क्या तुम नहीं जानती कि धड़कनें बेतरतीब होने से मेरी जान भी जा सकती है ? अगर जानती हो तो मेरी जान लेने पर क्यूँ तुली हो ?"

वो एक टक मुझे देखती रही। मैंने सास ली और फिर बोलना शुरू करा


"सुनिए, धड़कना है तो कभी कभी हौले से ऐसे भी धड़का करो जैसे किसी तालाब से वजू करके हल्की सी खुन्की लिए हवा छूकर गुजरती है। धड़को तो ऐसे हौले से धड़को कि मैं तुम्हें महसूस करूँ और धीरे से मुस्कुरा दूँ। अम्मी कहती हैं " जब तुम मुस्कुराते हो तो ऐसा लगता है जैसे फूल खिल उठे हो" तुम्हें पता है जब फूल खिलते हैं तो उसे बहार का मौसम कहा जाता है, वो बहार जिसका इंतज़ार सारा गुलशन, सभी पौधे, बागबान, बुलबुल, सय्याद सभी बड़ी शिद्दत से करते हैं। उतनी ही शिद्दत से मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ जितनी शिद्दत से तुम्हारा छत पर इंतज़ार करता हूँ। मगर शायद न तो तुम मेरी मुहब्बत को महसूस करती हो न और न ही मेरे इंतज़ार का सिला देती हो, बल्कि जब इंतज़ार से थक कर तुम्हें भूलने लगता हूँ तो ख़याल बनकर जहन को झिंझोड़ देती हो, दिल बनकर धड़कने लगती हो, और कुछ ऐसे धड़कती हो कि मेरी जान पे बन आती है। मुझे मेरी धड़कनों पे मेरा इख़्तियार दे दो , या मुझको मेरे हिस्से का मेरा प्यार दे दो। मैं अब मोहब्बत में अब उस मुकाम पर आ चुका हूं जहाँ से वापसी का कोई रास्ता नहीं।" इतना कह कर में चुप हो गया। उसने बिना कुछ कहे अपने हाथ को मेरे हाथों से निकाला और हिबा को लेकर घर चली गयी। और मुझे कशमश में छोड़ गई।

मैं बैठा सोचता रहा के मैंने इज़हार कर के ग़लती तो नहीं कर दी? या फिर जज़्बातों में आकर कुछ ज़्यादा ही बोल दिया। हालांकि हम दोनों के बीच जैसा ताल्लुक़ था उस से साफ था कि वो भी प्यार करती है। हिसाब किताब में ही अगला दिन हो गया, शाम को वो फिर से छज्जे पर थी। मैंने उस से इशारों में पूछा क्या मेरी बात का बुरा लगा? उसने न में जवाब दे दिया।


और कहा "असल में आपकी आधी बातें मेरे समझ मे ही नहीं आयी। पर सुन कर बहुत अच्छा लगा। सारा की बातें सुन कर मुझे हँसी भी आई और खुशी भी हुई।" मैंने उसे कहा "मुझे तुमसे मिलने है। कहीं दूर अकेले में, थोड़ी न नुकुर के बाद वो राज़ी हो गयी। और उसने कहा छुट्टी में स्कूल पर आ जाना। खैर अगले दो दिन बाद में अपनी ग्लैमर बाइक से उसके स्कूल पहुँच गया। स्कूल पर पहुँच कर में उसका इन्तज़ार करने लगा, मुझे लगता था के उसे मैं आसानी से ढूंढ कर बाइक पर बिठा कर ले जाऊंगा। पर जैसे ही छुट्टी हुई सैंकड़ो की तादाद में लड़कियाँ स्कूल के गेट से इस तरह निकल रही थी जैसे दड़बे में कई दिन से बंद मुर्गियां निकलती है। एक तो उनकी तादाद इतनी ज्यादा दूसरा उनकी कचर मचर की आवाज़े। दो मिनट में ही दिमाग खराब हो गया। वो तो शुक्र था के सारा ने मुझे पहचान लिया और मेरे पास आकर कहने लगी, "क्या बात जनाब बड़ा लड़कियों को घूरा जा रहा है।" मैंने घबरा कर कहा "नहीं तो मैं तो आपको ही ढूंढ रहा था।" "जल्दी से बाइक पर बैठिये ज़्यादा वक़्त नहीं है आपके पास।" उसने हाँ में गर्दन हिलाई और बाइक पर बैठ गयी। मैं स्कूल से थोड़ी दूर उसे एक रेस्तरॉ में ले गया। वहाँ हमने कुछ वक्त साथ बिताया। कुछ मोहब्बत की बातें की। फिर वापसी का सफर शुरू करा। 

वापसी में न जाने कब हमे मोहल्ले के ही एक लड़के रज़ि ने देख लिया। इतने वो कुछ रियेक्ट कर पाता में बाइक लेकर उसकी आँखों से ग़ायब हो चुका था।


शाम को रज़ि मेरे घर आया आवाज़ देकर मुझे बुलाया। मैंने उसे देख कर सलाम करा। और आने की वजह पूछी। उसने कहा" बाइक बहुत तेज़ चलाता है तू क्या बात।" मैंने कहा "हाँ वो तो है। आज के बाद भी तुम्हें कोई शक है क्या इस बात पर।" वो कहने लगा "ठीक है तो एक रेस हो जाये।" इस पर मैने मना कर दिया के "मैं रेस नहीं लगाता।" उसने कहा "डरता क्यों है ? एक रेस लगा ले। अगर तू जीत गया तो तुझे और तेरे दस दोस्तों को गुलशन ए करीम में पेट भर कर मुर्ग मुसल्लम की दावत। और मैं जीत गया तो तू सारा से कभी बात नहीं करेगा।" मैंने सोचा यार जीत गया तो मुर्गा तो तैयार ही है। और हार भी गया तो ये कौन सा मेरी जीभ पकड़ लेगा सारा से बात करते वक्त। खैर अगले दिन की रेस मैंने तय कर दी। 10 किलोमीटर की रेस तय हुई। जिसमें उसे मैंने 5 मिनट के फासले से हरा दिया। रात को हम सब दोस्त उसे लेकर गुलशने करीम में मुर्ग मुसल्लम उड़ा आये।

खैर रज़ि हमे खिला कर हमसे खार खाया हुआ बैठा था। उसने हम दोनों(सारा और मेरे) के घर के बीच वाले घर मे रहने वाले लड़के(आबिद) को पूरी बात बता दी कि उसने मुझे और सारा को बाइक पर घूमते देखा। आबिद भी सारा के पीछे काफी वक्त से पड़ा हुआ था। एक अनार और इतने सारे बीमार। अब आबिद भी और ज़्यादा दुश्मन हो गया।


खैर अब मैं फूंक फूंक कर कदम रखने लगा। एक दिन छत पर हम दोनों भाई पतंग उड़ा रहे थे। रेहान की पतंग आबिद ने सादी पर से काट दी। जिसपर रेहान गुस्सा हो गया और मुझसे बोला "भाई आप इसकी काट दो।" मैंने आबिद की पतंग काट दी। आबिद ने फिर पतंग पार की मैने फिर काट दी। उसके बाद रेहान आबिद से बोला "क्या हुआ चाचा की पतंग तो बड़ी जल्दी काट दी अपने बाप की नहीं काटी जा रही तुझसे ?" इसपर आबिद ने गाली गलौज शुरू कर दी। इधर से रेहान भी शुरू हो गया। मैंने रेहान को समझाया के "ये हमे उकसाना ही चाहता है। इसके मुंह मत लग।" पर रेहान का गुस्सा भी सातवे आसमान पर था। लड़ाई इतनी बड़ी के आस पास सब अपनी छतों पर जमा हो गए। सारा हिबा उसकी अम्मी भी छतों पर आ गई। आबिद ने उनको देख कर बात पलट दी। बोला "तू मुझसे इसलिए लड़ रहा है ताकि मैं तेरे और सारा के चलने वाले चक्कर के बारे में किसी को न बताऊँ, और ये भी न बताऊँ किसी को के तुम दोनों बाइक पर घूमते फिरते हो। सारा की अम्मी मुझे घूर कर देखने लगीं। मेरा बस नहीं चल रहा था ज़मीन खोद कर कहीं ग़ायब हो जाऊं। जैसे तैसे लड़ाई वाली बात खत्म हुई। लेकिन लड़ाई खत्म होते ही अगले घण्टे सारा की अम्मी हमारे घर थी। वैसे वो काफी सुलझी हुई औरत थी।उन्होंने चुप चाप आकर अम्मी को सारी बात बताई। और कहा "अगर आपके लड़के को ज़्यादा ही पसंद है तो आप रिश्ता लगा कर शादी कर लें। मेरे घर वालो को कैसे मनाना है वो मेरी ज़िम्मेदारी है। और अगर आप शादी करना नहीं चाहती तो अपने लड़के को यही रोक लें। ताकि हमारी इज़्ज़त बरकरार रहे और उसपर कोई आंच न आये।" 

अम्मी ने उनकी बातें सुनी समझी। अम्मी ने कहा "अभी तो ये बी एस सी में है। इसे कमाई शुरू करने में कम से कम 5 साल लगेंगे। अगर आप 5 साल तक रुक जाए तो में रिश्ता लगाने को तैयार हूं।" इस पर सारा की अम्मी ने कहा "हमारे यहाँ बारवीं तक शादी कर देते है। हद है मैं बस एक साल रुक सकती हूं। और हमारे दोनों दामाद अच्छा कमाते हैं तो मैं ये भी नहीं चाहती कि मेरा तीसरा दामाद कुछ न कमाता हो।" 

ये टौंट अम्मी को थोड़ा बुरा लगा और उन्होंने कहा "तो जो अच्छा कमाता हो उसे ही बना ले आप तीसरा दामाद।" खैर यहाँ आकर रिश्ते की बात खत्म हुई। अम्मी ने मुझे सख्त हिदायत दी कि में सारा से दूर रहूँ। और अपनी पढ़ाई पर फोकस करूं।


उधर सारा की अम्मी ने सारा पर तमाम पाबंदियाँ लगा दी। उसका छज्जे पर आना भी बंद कर दिया। स्कूल भी खुद छोड़ने जाती खुद लेने आती। इस तरह उन्होंने दोनों का एक दूसरे को देखना तक बंद करा दिया। चार महीने बाद सारा की अम्मी फिर घर आई। इस बार उनके हाथ में सारा की शादी का कार्ड था। 14 फरवरी को उन्होंने सारा की शादी तय कर दी थी। जब अम्मी ने मुझे बताया के गली वाले सैफी साहब की बेटी की चौदाह फरवरी को शादी है तो ये खबर मुझपर देसी साखता बम बनकर गिरी क्यों के सैफी साहब की बेटी को अपना जीवन साथी बनाने का इरादा करने के साथ साथ दिल ही दिल में उसके साथ कबकी मंगनी भी कर चुका था। और सैफी साहब को मन ही मन मे अपने ससुर के ओहद्दे पर सरफ़राज़ कर चुका था और इस वैलेंटाइं डे पर किसी न किसी तरह अपनी मोहब्बत से मुलाक़ात का पक्का इरादा भी कर बैठा था। मेरे सपनों का ताजमहल बुरी तरह टूट चुका था।

13 फरवरी के दिन सुबह सुबह दादी ने वालिद साहब को कहा के "सैफी साहब के पास जाकर उनसे पूछे हमारे लायक़ जो खिदमत हो बताइए दादी ने मुझे भी कहा के लड़के तू भी जा साथ और टेंट वगैराह का कोई काम अपने जिम्मे ले ले। साथ ही ये कहकर कलेजा जला दिया के मुहल्ले की बच्ची है बहनों की तरह है जा मेरे बच्चे बाप के साथ।" मैं ये सोच के साथ चल दिया के शायद शाहरुख खान की तरह में भी कामकाज के बहाने अपनी दुल्हन ले उडूं।


सैफी साहब के घर पहुंचे गुफ्तगू के बाद वालिद साहब ने टेंट वगैराह के लिए मेरी खिदमात पेश कर दी जिसे सैफई साहब ने ये कहकर क़ुबूल कर ली के मुहल्ले के बच्चे है मेरी बेटी उनकी बहनों की तरह है ये काम नहीं करेंगे तो और कौन करेगा। मेरी मोहब्बत को बहन क़रार देकर पहले दादी और अब सैफी साहब ने हमला किया। जिसे ना सिर्फ मुर्दाना दिल से बर्दाश्त किया बल्के चेहरे उनसे ये भी कहा के जी हमारा भी कुछ फ़र्ज़ बनता है। दिल दुखा था रोने की कोशिश की तो रोना ना आया बल्के रोने की कोशिश में सर दुखने लगा। आखिरकार वह दिन भी आ पहुंचा जिस दिन मेरी मोहब्बत ने किसी और का हो जाना था और मैं सुबह से ही टेंट वगैराह के काम में लगा ये सोच रहा था के आज चौदाह फरवरी को सारे नौजवान अपनी जानू मानु शोनु मोनू के साथ पिज़्ज़ा उड़ाते है वाह रे किस्मत में कुर्सियाँ लगवा रहा हूँ। दोपहर को काम निपटा कर घर आया न खाया न पिया रूम में जाकर लेट गया और उसका निकाह किसी तरह तुड़वाने की तरकीबें सोचता रहा। शाम को सब घर वाले तैयार होकर चले गए में भी उसपर तैयार होने लगा के क्या पता ऐन निकाह के वक्त किसी बात पर बारात वापस चली जाए तो में कमाल सआदत मंदी से सैफी साहब को दिल के दौरे से बचाते हुए खुद को उनकी लड़की के लिए पेश कर दूँ। 


इसी उम्मीद में शादी हॉल पहुंच गया। कुछ वक्त गुज़रा बारात भी आ गयी। उन लोगो का मोहल्ले के लड़कों ने आदर सत्कार किया। और उन्हें खाने के हॉल की तरफ ले जाया गया। क्योंकि अब खाना चलना था। ये सोच कर मैं वहाँ से बाहर की तरफ निकला। मैं जा ही रहा था कि इतने में सैफी साहब किसी ओलम्पिक के खिलाड़ी की तरह उड़ते हुए मेरे पास आए और एक और सितम ढाया के दूल्हा के वालिद भाई वगैराह की मेज़ पर खाना मैने पहुंचाना है।

आज जब मुझे किसी वीरान सुनसान जगह बैठकर दुखी गाने सुनने चाहिए थे। मैं सुबह से कुर्सियाँ लगवा रहा था। और अब अपनी ही सारा के सुसराल वालों को खाना भी ठूंसा रहा था! सारा के सुसराल वाले या तो बाबा आदम के ज़माने से भूखे थे। या फिर उनके पेट मे कीड़े थे। खाए ही जा रहे थे। इधर मेरी भूख जोरों पर थी। उधर सारा का सुसर कोफ्तों पर बुरी तरह टूट पड़ा था। छटी बार डिश पकड़ा रहा था के सारा के सुसरे की गिरफ्त ढीली पड़ी तो सारा सालन मुझपर गिर गया। गुस्सा तो बहुत आया पर खामोशी के अलावा कर भी क्या सकता था। जब सारे सुसराली खा मर चुके और में अपने लिए खाना लेने गया तो खाना खत्म हो चुका था। इधर में खाने की जुगाड़ में लगा था। मोहब्बत अपनी जगह पापी पेट अपनी जगह। उधर निकाह का शोर बुलंद होने लगा। खाने की प्लेट छोड़ मैन हाल की तरफ भागा। निकाह हो चुका था। अब रुखसती की तैयारी हो रही थी। जब सारा सहेलियों के साथ रोते हुए दुल्हन के कमरे से निकली तो उसे देख कर मेरी भूख के साथ अरमान भी मर चुके थे। लेकिन फिर भी में पत्थर बना उसे खड़ा देखता रहा।


दुल्हन गाड़ी में बैठी तो गाड़ी स्टार्ट न हुई सैफी साहब ने एक दो लड़कों से कहा धक्का लगाओ साथ ही मुझपर नज़र पड़ी और हाथ के इशारे से बुलाया।

मुझे लगा सैफी साहब मुझे लड़कों से ज़ोर लगाने के लिए कहने को कह रहे है। मैने साथ खड़े दुल्हन के कज़िन को कहा "चलो धक्का लगाओ" उसने कहा के "मेरी टांग पर फोड़ा निकला हुआ है मैं धक्का नहीं लगा सकता।" अब मैं अपने दिल का फोड़ा किसे दिखाता सो गुस्से व जलाल में धक्का लगवाने लगा।के अचानक दूल्हे के भाई ने मुट्ठी भर नगदी कार की छत पर फेंक के लूटा दी। जिसमे से एक सिक्का आकर सीधा आँख में लगा। अब गुस्सा झंझलाहट के साथ दर्द भी हो रहा था। मैं सामान समेट कर घर आया तो अम्मी ने आँखें देखते ही कहा "तू रो रहा है क्या ?" मैने कहा "नहीं अम्मी वो आँख में सिक्का लग गया इसलिए लाल हो रही है।" अम्मी ने कहा "और दूसरी में क्या लगा ?" मैं चुपचाप मुँह धोकर आया अम्मी से खाना मांगा और अपने खाना ना मिलने की वजह सुनाई। अम्मी ने खाना लाकर प्यार से सिर पर हाथ फेर कर समझाया। 'सारा नहीं तो क्या हुआ कोई इस से भी अच्छी लिखी है तुम्हारे नसीब में।" मैने गर्दन जी में हिलाई और खाने में लग गया। खाना खाकर थका हारा सोने चला गया लेटते हुए आज के दिन के बारे में सोचने लगा के क्या वैलेंटाइंन का दिन था। जिसमे महबूबा की शादी की कुर्सियाँ सेट की। उसके सुसराल वालों को खाना खिलाया, खुद के बजाए कपड़ों को सालन खिलाया। महबूबा की गाड़ी को धक्का लगाकर रुखसत भी किया। ये सब न करना पड़ता अगर उम्र थोड़ी ज़्यादा होती और कमाई अच्छी होती तो। अक्सर प्रेम कहानियां बेरोज़गारी पर आकर ही दम तोड़ जाती है।।


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