जमाने के हिसाब से उड़ान भरेंगे
जमाने के हिसाब से उड़ान भरेंगे
"मैंने कितनी बार आपसे कहा था समय बदल रहा है अब जमाना पहले जैसा नहीं रहा जब एक परिवार सभी मसालों की तरह मिलकर रहता और उसमें बच्चे मां बाप के बिना नहीं रह पाते थे। लगता है जमाने के अनुसार हमें भी अपनी उड़ान भरनी होगी क्योंकि जिस दिन बच्चों को हमने जीने की आजादी दी उसी दिन उनका मोह छोड़ देना चाहिए था, पता नहीं जमाने के अनुसार मैं खुद को क्यों नहीं बदल पाई। मैं यहां नहीं आना चाहती थी पर आपने कहा बुढ़ापे का शरीर है और बच्चों की मजबूरी है कि आना जाना नहीं कर सकते सो मैं आपकी बात मान के यहां चली आई।" दमयंती जी अपने पति ललित बाबू से कह रही थीं।
ललित बाबू बोले "भाग्यवान मुझे क्या पता था मेरे बाबूजी जब मेरे पास आकर रहते थे तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। जी चाहता था उन्हें कभी गांव ना भेजूं पर वो थे कि मेरे पास टिकते नहीं थे, हां समय के अनुसार हालात भी बदल गए। अब बच्चे नहीं चाहते कि मां-बाप उनके साथ रहे तो कभी-कभी हम ही समझौता कर लेते हैं। हम अकेले मां-बाप नहीं है जो बच्चों के साथ रहते हुए भी अकेला महसूस करते हैं।"
दमयंती जी बोलीं "इससे अच्छा तो पहले वाला समय ही था ये शहर और पैसों की चमक ने सभी रिश्तों को छिन्न-भिन्न कर दिया है! न जाने और क्या-क्या देखना और सहना बचा है, कभी-कभी लगता है आंख बंद करूं और पहले जैसा सब कुछ हो जाए तो कितना अच्छा हो।"
ललित बाबू बोले "काश कि ऐसा हो सकता..! पर ये भी तो देखो मैं किसी पर आश्रित नहीं और तुम्हारे साथ हूं क्या इस बात से तुम्हें खुशी नहीं होती..? बुढ़ापे में भी तुम्हारा पति अपनी कमाई से तुम्हें रख रहा है, अब छोड़ो दुखों की बातों को थोड़ा मुस्कुरा भी दो।"
दमयंती जी बोलीं "बस आपका ही तो सहारा है वरना शहर की ये जिंदगी मुझे रास नहीं आई। शहर में तो मैं पहले भी रही हूं जब आप काम करते थे, उस दो कमरे के मकान में कितनी खुशियां होती थीं पर आज देखो इतना बड़ा मकान मानो पिंजरा लगता है।"
ललित बाबू अपनी पत्नी के साथ अब अपने बेटे के साथ रह रहे थे। इस उम्र में नींद भी कहा आती है सुबह-सुबह ही आंख खुल जाती है, दोनों दंपत्ति बालकनी में बैठे अपने पुराने दिनों को याद करके बातें कर रहे थे।
दमयंती जी का उदास चेहरा देखकर ललित बाबू बोले " अब उदास रहोगी या अपने मन की बात भी बताओगी तुम अपनी इच्छा तो बतलाओ ...?" वो बोलीं "कितने साल हो गए हैं हम दोनों इस घर में बस एक-दूसरे को निहारते हैं, यहां किसी के पास हमारे लिए वक्त नहीं है! मानती हूं ये भी व्यस्त रहते हैं पर मन ऊब गया है मेरा इन सब बातों से चलो कहीं तीर्थ ही कर आते हैं।"
वृद्ध पत्नी के लिए उसके पति से ज्यादा अच्छा साथी और कोई नहीं होता है। ललित बाबू ने दमयंती जी की बात सुनी और उस पर गौर फरमाने के लिए वक्त लिया था।
शाम में जब बेटा घर आया तो वो बोले "अरविंद तुम्हारी मां को कहीं बाहर ले जाना है।" बेटा हंसकर बोला "क्यों मां इस उम्र में तुम्हें कहां घूमना है?" मां बोली "कई साल हो गए कहीं आना-जाना भी नहीं होता, तुम सब तो गाँव भी नहीं चलते तो मैंने सोचा कहीं तीर्थ ही करलें।"
बेटा बोला "मां क्यों फालतू के खर्चे करवाती हो, अगले महीने बच्चों का एडमिशन करवाना है आप नई उड़ान भर रही है..! ऐसे ही बहुत तंगी है क्यों मेरी मुश्किलें बढ़ाती हो।" दमयंती जी ललित बाबू की ओर देखने लगीं।
ललित बाबू बोले "बेटा मैं भी तो तुम्हारा हाथ बताता हूं फिर भी तुम्हें पैसों की दिक्कत होती है...! कोई बात नहीं मेरे कुछ एफडी के पैसे हैं, तुम्हारी मां की इच्छा है तो मैं उसे घुमा लाऊंगा और तुम्हें छुट्टी लेने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी, मैं गांव से किसी को बुला लूंगा।"
बेटा बोला "बाबूजी वो बात नहीं है। छुट्टी की दिक्कत तो है लेकिन फालतू में इन सब बातों पर क्यों पैसे खर्च करने हैं।" पिता बोले "बेटा पहले तुम्हारी पढ़ाई की वजह से मैं तुम्हारी मां को कहीं ले नहीं जा पाता था। अब भी अगर मैं तुम्हारी मां की इच्छाओं को भी पूरा ना कर सका, तो मेरे पैसे किस काम के हैं।" और वो हंसने लगे।
दूसरे दिन शाम में अरविंद की पत्नी सुधा अरविंद से बोली "क्या बाबूजी के पैसे उन्हीं के हैं उन पैसों पर हमारा कोई अधिकार नहीं है! और इस उम्र में कहां घूमने जाएंगे, हाथ पैर तुड़वाकर आ जाएंगे फिर मुझे सेवा करनी पड़ेगी।"
बेटा बोला "तुमने सुना होगा, मैंने कोशिश की थी उन्हें समझाने की पर मानेंगे तब ना!" सुधा बोली "एक बात बताओ आज वो लोग उस कमरे में रह रहे हैं कल को जब नहीं रहेंगे तो हमारे बच्चे उस कमरे में रहेंगे तब भी क्या उस कमरे में वो छोटा सा पलंग रहेगा. ? उस कमरे में डबल बेड लगवाने की जरूरत है, उन्हें समझाओ कि उन्हें भी दिक्कत हो रही होगी तो उस कमरे में डबल बेड खरीदकर लगवा ले घूमकर क्या करेंगे।"
दो चार रोज बाद अरविंद ने बातों-बातों में कहा "बाबूजी मैं सोच रहा हूं आपके कमरे के लिए एक बड़ा पलंग और छोटा सा टीवी ले लूं, ये पलंग और टीवी बहुत पुराना हो गया है। आए दिन खराब हो जाता है और बिजली भी बहुत खाता है।"
पिता बोले "हां हां ले लो" अरविंद ने कहा "अभी थोड़े पैसे की दिक्कत है और सैलरी भी टाइम पर नहीं मिल रहा कैसे लूं इसी दुविधा में हूं।" पिता के बाल अनुभवों से सफेद होते हैं ना की धूप में..वो बोले "कितने का पलंग आएगा मैं दे देता हूं पैसा।"
अरविंद का चेहरा खिल उठा और वो बोला "बाबूजी आप साइन करके मुझे वो एफडी का पेपर क्यों नहीं दे देते हैं! मैं निकाल लूंगा जितने का टीवी और पलंग आएगा ले लूंगा और जो पैसे बचेंगे वो मैं आपको लौटा दूंगा।" पिता ने मुस्कुराते हुए कागज पर साइन करके दे दिया।
अरविंद ने तनिक भी देर नहीं की और दूसरे ही दिन टीवी खरीदने चला गया। जब वापस घर लौटा तो मां बोली "बेटा नया पलंग और टीवी ले आया तो हमारे कमरे में लगवा दे, मैं भी थोड़ा भजन कीर्तन सुन लिया करूंगी।"
बहू बोली "मांजी रोमी के रूम में भी टीवी नहीं है, वो भी पूरे दिन बोर होती है और मोबाइल में लगी रहती है! तो ये टीवी उसके रूम और पलंग आपके रूम में लगवा लेते हैं, अगली बार जब इनको बोनस मिलेगा तो आपके रूम में टीवी भी लगवा लेंगे। अभी तो आप मसाले वाली चाय पीजिए पीकर नए पलंग का आनंद लीजिए।
दमयंती जी मुस्कुराई और बोलीं "बहू रिश्तों में स्वाद मसालों से नहीं बल्कि प्यार और सम्मान से आता है। तुम हमें उतना दे दो वही हमारे लिए बहुत है, वरना क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जाएंगे। इतना कहकर वो चाय पीने लगीं।
कुछ रोज बाद दमयंती जी की बेटी बबली अपने माता-पिता से मिलने आई थी। एक दो रोज बाद उसने अपनी मां को बताया कि "मां मेरी बुआ सास के बेटे कैसे उन्हें उन्हीं के पैसों के लिए तरसा रहे हैं और वो बेचारी कुछ नहीं कर पाती है! क्योंकि ससुर जी के जाने के बाद उन्होंने सारे पैसे अपने बेटों के नाम कर दिया है। अब बेचारी अपने दवाइयों के लिए बेटे के सामने हाथ फैलाती हैं" कुछ वक्त बिताकर बबली वापस अपने घर चली।
बेचारे ललित बाबू जो सोचकर आए थे वैसा कुछ नहीं हुआ। समय बीतता गया जो दूसरों के घरों में होता देखते थे वही ललित बाबू के घर में भी होने लगा। अपने पैसों को भी वो अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर पाते थे और बहु-बेटे थे की अपनी गलती को कभी मानते नहीं थे।
एक शाम सब बैठे थे तो कुछ पैसों की बात उठी ललित बाबू बोले "बेटा तुम्हारे पास बहुत काम होता है वक्त नहीं मिलता तो मेरे पैसों को का हिसाब-किताब, पोस्ट ऑफिस जाना मैं खुद कर लूंगा तुम चिंता मत किया करो।"
बेटा बोला " पापा ये क्या बात हुई!" तो सुधा बोली "जरूर आपकी बहन ने ये सुझाव दिया होगा। आई थी मां का दुख बांटने और हमारे रिश्तो में मसाले की जगह कड़वाहट घोलकर चली गई,वो हमें खुश वो देखना ही नहीं चाहती है।"दमयंती बोलीं "बहू इन सब बातों में मेरी बेटी को मत घसीटो,उसे हमारी चिंता यहां तक ले आती है और जहां तक बात पैसों की है, कौन सा हम तुमसे पैसे मांगते हैं! मैंने उस दिन भी कहा था रिश्तों में स्वाद मसालों से नहीं बल्कि प्यार और सम्मान से आता है जो तुम डाल ही नहीं पाती हो"
सुधा बोली "आप ही बताइए मम्मी जी इस उम्र में अपने बेटे को सब देकर फिर लेना ये क्या अच्छी बात है! बच्चे हिस्से की बात करें तो वो नालायक कहलाते हैं और जो आप लोग कर रहे हैं उसे क्या कहते हैं।"
ललित बाबू का सब्र टूट पड़ा उन्होंने कहा "बस बहू अपनी हद में रहो, ये घर तुम्हारा होगा पर भूल रही हो कि इस घर के लिए भी पैसे तुम्हारे पति ने मुझसे लिए थे और आज तुम अपनी गृहस्ती चला रही हो, छोड़ो तुम्हारी भी कोई गलती नहीं है जब बेटा ही नालायक हो जाए, तो औरों के बच्चों से क्या शिकायत करना!"
अरविंद बोला "बाबूजी आप भड़क क्यों रहे हैं! बैठकर भी इस मसले को हल किया जा सकता है।" वो बोले "मसला ही क्या है पैसा तो मेरा है। मैं जहां चाहूं, जिसे चाहूं दे सकता हूं और खर्च कर सकता हूं! बेटा मानता हूं पत्नी की बात माननी चाहिए पर आंख बंद नहीं करना चाहिए।" इतना कहकर वो चले गए।
एक रोज ललित बाबू को उनके समधी का फोन आया बातों बातों में उन्हें सारी बात बताई। बेटी के पिता ने जब बेटी से इस विषय में बात की तो उसने कहा "क्या मेरे ससुर जी ने मेरी शिकायत की अभी पूछती हूं।"
उसके पिता ने कहा "सुधा तुमने जो किया अगर वही तुम्हारे भाई और भाभी हमारे साथ करते तो सोचो हमें कैसा महसूस होता? अपनी गलती मानने की जगह तुम फिर उनसे लड़ने जा रही थी, हमें तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी..!" फिर मां बाप ने बेटी को समझाया।
सुधा को अपनी गलती का एहसास तो हुआ लेकिन ललित बाबू ने अब वहां रहना सही नहीं समझा और कुछ वक्त बाद ललित बाबू अपनी पत्नी के साथ अपने गांव पुराने मकान में रहने चले गए। उन्होंने पिता होने का भी फर्ज निभाया और बेटे को बहुत कुछ दे दिया परंतु अपने बुढ़ापे के लिए भी कुछ पैसा रख लिया, ताकि औरों के सामने उन्हें कभी हाथ ना फैलाना पड़े और पैसों के लिए खुद के बेटे से ही लड़ना ना पड़े।
जब वो गांव वापस गए तो कुछ लोगों ने उनके निर्णय को सराहा तो कुछ लोगों ने कहा कि "इन्होंने अपने हांथो अपना बुढ़ापे को बिगाड़ा है और कुछ नहीं.." पर ललित बाबू का मानना था कि उन्होंने बुढ़ापे के लिए अपना रास्ता खोला न कि बंद किया था।
दमयंती जी कहती थी "बुढ़ापे के लिए रास्ता खोला या बंद हुआ ये तो आने वाला समय बताएगा क्योंकि वहां बेटे के साथ मजबूरी में रहकर रिश्ते बनते नहीं बल्कि और खराब हो जाते।"
आज के समाज की ये कड़वी सच्चाई है! खुद के पैसे होते हुए भी मां-बाप अपने ही घर में बोझ हो जाते हैं, हां ये बात अलग है कि जब शरीर ही साथ न दे तो ये पैसा क्या कर करेगा...! इस बात पर अब सबको गौर करना होगा जमाने के अनुसार अपनी उड़ान भी लेनी होगी और इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा।
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