त्योहारों में दुखों को भूल जाओ
त्योहारों में दुखों को भूल जाओ
"दीवाली की वो रात खुशियों की रात थी मुझे आज भी याद है जब मां हम सबके लिए मिठाई की थाली सजा रही थी और पापा बड़े प्यार से मां के लिए सोने की चेन लाए थे जो चुपके से मां को पहना रहे थे। वो खुशी कभी-कभी ही मां के चेहरे पर दिखती थी पर उस दिन भी बुआ जी ने उस पर ग्रहण लगा दिया था।" गौरव अपनी पत्नी नम्रता से कहता है।
नम्रता बोली "क्या हुआ था उस दिन और क्या इसी वजह से जब भी बुआ जी आती है मां गुमसुम और उदास रहती है..? ये तो गलत बात है अगर मम्मी जी ही घर में खुश नहीं होंगी तो हम सबकी खुशियां तो फिकी हो जाएंगी।"
गौरव बोला "ये तुम्हें लगता है पर बुआ जी को लगता है कि आज भी इस घर पर पहला हक उनका है और मां पराई है। तुम्हें पता है इसी वजह से पापा ने कभी मां को कोई उपहार नहीं दिया. ! उस दीवाली की रात पापा पहली बार मां के लिए कुछ लाए थे, जब वो मां को चेन पहना रहे थे तो पीछे से बुआ जी देखी और दादी के सामने मां-पापा कितनी बातें सुनाई। उस रात भी मेरी मां बहुत रोई थी इसलिए मुझे बुआ जी बिल्कुल पसंद नहीं हैं।
नम्रता बोली "आप परेशान ना हो इस दीवाली मम्मी जी के चेहरे पर बस मुस्कुराहट होगी मैं बुआ जी को मौका ही नहीं दूंगी कि वो हमारी खुशियों की रात को गम में बदलें।" इतना कहकर नम्रता अपनी सास के पास चली गई।
नम्रता की सास कल्पना जी चुपचाप दिए की बाती बना रही थीं। नम्रता बोली "मम्मी जी दिए की बाती तो हम सब मिलकर बनाएंगे फिर आप यहां अकेली क्यों बैठी है! चलिए हम सबके साथ मिलकर बैठिए ये त्यौहार अकेले आपका नहीं पूरे घर का है, फिर जिम्मेदारी आप अकेली क्यों उठाएंगी।" इतना कहकर जबरदस्ती कल्पना जी को हॉल में सबके पास लेकर गई।
कल्पना जी को देखते ही उनकी ननद कामिनी जी बोलीं "ये क्या कल्पना पूजा की तैयारी हो गई जो तुम उठकर यहां आ गई. ?" कल्पना जी बोलीं "अरे नहीं दीदी मैं तो वहीं कर रही थी पर बहू मुझे जबरदस्ती यहां आप सबके पास ले आई।" कामिनी जी बोलीं "ये तो नासमझ है क्या तुम्हें भी समझ नहीं, सास बन गई हो पर लक्षण तुम्हारे वैसे के वैसे ही हैं।"
नम्रता बोली "बुआ जी छोटा मुंह बड़ी बात मैं कोई नासमझ नहीं हूं। और जब त्यौहार में सब मिलकर खुशियां मनाते हैं तो त्योहारों की जिम्मेदारी बस मम्मी जी अकेले क्यों उठाएंगी.?" गौरव बोला "हां हां मा हमारे साथ बैठो हम सब मिलकर दिए की बाती तैयार करेंगे।" कल्पना जी अपने पति मनोहर बाबू की तरफ देखी उन्होंने मुस्कुराकर उन्हें बैठने को कहा।
कल्याणी जी बोलीं "अभी मां को गुजरे हुए 2 साल नहीं हुए कि इस घर के नियम कानून बदल गए!" गौरव बोला "बुआ जी कौन से नियम और ये नियम किसने बनाए थे, क्या ये नियम बनाने से पहले मां और पापा से पूछा गया था..?" कल्याणी जी चुप हो गई नम्रता बोली "बुआ जी त्योहारों की खुशियां मनाने के लिए किसी नियम की जरूरत नहीं पड़ती है। एक दूसरे की खुशियों के लिए अगर कुछ नियम तोड़ने भी पड़े तो उसमें कोई हर्ज नहीं क्यों पापा जी मैं गलत कह रही हूं.?" मनोहर बाबू मुस्कुराते और अपने पुराने दिनों को याद करते।
2 दिन बाद दीवाली की खुशियों भरी रात थी पूरा परिवार इकट्ठा था। गौरव बार-बार मनोहर बाबू को कुछ कह रहा था और वो इंकार कर रहे थे, कामिनी जी बोलीं "क्या बात है मनोहर तुम्हारा बेटा ऐसा क्या बोल रहा है जो तुम उसकी खुशी के लिए नहीं कर सकते?"
गौरव बोला "देखा पापा बुआ जी भी मेरी तरफ है चलिए अब दे भी दीजिए।" मनोहर बाबू बोले "दीदी आप कह रही हैं इसलिए ये सब कर रहा हूं बाद में कुछ मत कहना।" और वो कल्पना जी के पास गए कल्पना जी दिए की लौ को जलाती भी किसी देवी से कम नहीं लग रही थीं। मनोहर बाबू ने एक सुंदर सा मंगलसूत्र कल्पना जी को पहनाते हुए कहा "कल्पना ये मेरी तरफ से तुम्हारे लिए दीवाली का उपहार है।"
कल्पना जी की आंखें भर आई और उन्हें सालों पुरानी अपनी दीवाली की खुशियां भरी रात याद आई जिस रात उनके आंसू रुक ही नहीं रहे थे। कामिनी जी बोलीं "मनोहर ससुर बन गए हो पर तुम भी सबक नहीं सीखे याद है ना वो रात..!"
तभी नम्रता सामने आई और बोली "बुआ जी क्यों खुशियों की रात में दुख को याद करना और क्या सबके चेहरे की खुशियां आपको अच्छी नहीं लगती..? मेरे लिए मेरे सास-ससुर के चेहरे की खुशियां हर त्यौहार से बढ़कर है, तो आपसे आग्रह करूंगी कि कोई ऐसी बात ना करें जो खुशी गम में बदल जाए।"
उस वक्त तो कामिनी जी खामोश हो गए पर उनकी खामोशी से कल्पना और मनोहर चिंतित थे अगले दिन कल्पना ने अपनी परेशानी बहुत से साझा की नम्रता बोली "मम्मी जी बड़ों की इज्जत मन से की जाती है मन को मार कर हम बड़ों की इज्जत नहीं बल्कि उनका अपमान ही करते हैं। बुआ जी को भी अब समझना होगा जहां उनके अपने बच्चों ने उन्हें घर से निकाल दिया वहां अगर हम उन्हें घर का सदस्य मानते हैं तो उन्हें भी हमारी खुशियों का ध्यान रखना पड़ेगा वरना उनके बेटे बहू और हम में क्या फर्क रह जाएगा।"
अपनी आदत के अनुसार दूर दरवाजे पर कान लगाई कामिनी जी ने जब ये सब सुना तब उन्हें एहसास हुआ कि कहीं ना कहीं उनके ऐसे व्यवहार के कारण ही उनके अपने बच्चों ने उन्हें उनके ही घर से अलग कर दिया। अब यहां जब उन्हें परिवार का सुख मिल रहा है तो क्या वो अपना व्यवहार नहीं बदल सकतीं, यही सब सोचते हुए कामिनी जी ने अपना कदम बढ़ाया...
जब कामिनी जी सामने आई तो कल्पना जी ने अपने आंसू पोछते हुए कहा "आइए दीदी आप वहां दूर क्यों खड़ी है आइए हम सब के साथ बैठिए मैं बहू की बातों के लिए आप से शर्मिंदा हूं इसे अपनी बच्ची समझ कर माफ कर दीजिए।"
कामिनी जी सर झुकाए बोझिल आवाज में बोलीं "कल्पना मैं इस घर से कब की विदा हो जा चुकी थी पर तुमने मुझे कभी पराया नहीं समझा। उस रात और इस दीवाली की रात भी मैं गलत हूं, तुम्हारी बहू ने सही कहा खुशियों भरी रात में दुख को याद नहीं करते। मैं नासमझ जो अपने दुखों में दूसरों की खुशियों में भी आग लगाती रही हो सके तो तुम सब मुझे माफ कर दो।"
नम्रता आगे बढ़कर बोली "अरे बुआ जी आप ऐसा क्यों सोच रही हैं कि आप इस घर की नहीं हैं..! बेटियां तो सबसे पहले मायके की होती है बाद में बहुएं क्यों मम्मी जी..?" कामिनी जी को अपनी हर भूल का एहसास हो चुका था हर किसी ने खुले दिल से उनका स्वागत किया तो उन्होंने भी अपने मन के मेल को उसी दिन खत्म किया।
अब मनोहर जी को अपनी पत्नी को उपहार देने से पहले लोगों की नजरों को देखना नहीं पड़ता था और कल्पना जी भी अब खुलकर मुस्कुराती थी और खुशियों के हर त्यौहार को अपने घर परिवार के साथ मनाती थी। कामिनी जी को अपने बेटे बहू के लिए दुख होता था पर जिन्होंने उन्हें अपना माना अब वो उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करती थीं।
दोस्तों ऐसा क्यों होता है जब किसी का मन दुखी होता है तो सामने की खुशी भी उसे अच्छी नहीं लगती है! फिर अपने कठोर वचनों से वो दूसरों की खुशियों को भी दुख में बदल देता है। अपनी दुखों से ऊपर उठिए और जो सामने से खुशियां आ रही है का स्वागत कीजिए।
कहानी को मनोरंजन एवं सीख समझकर पढ़ें कृपया अन्यथा ना लें बहुत-बहुत आभार।
