जलाती है छुअन (लघुकथा)
जलाती है छुअन (लघुकथा)
कविता छोटी रुचि के साथ मस्ती से खेल रही थी राहुल टीवी पर चैनल आगे पीछे करते न्यूज़ पर अटक गया तो कविता के कानों पर समाचार के शब्द पड़ते ही कविता सोफ़े पर बैठ गई, और
आज इतने सालों बाद मुंबई हाईकोर्ट की महिला जज के मुँह से निकला फैसला कविता को आहत कर गया। टीवी पर ये न्यूज़ देखते ही कि स्किन टु स्किन टच नहीं हो तो अपराध पॉक्सो ऐक्ट के दायरे में नहीं आता सुन कर "अब बस और नहीं" कहते कविता ने पास में पड़ा काँच का फ्लावर वाज़ टीवी पर दे मारा। बचपन से लेकर आज तक जो सहती आई थी वो एक-एक प्रताड़ना के ज़ख़्म फिर से हरे हो गए। कविता मन ही मन झल्ला उठी और फूट-फूटकर रोने लगी, तो राहुल ने बड़े प्यार से आगोश में भरकर पूछा, क्या हुआ टीवी क्यूँ तोड़ दिया।
उस पर कविता ने कहा एक बार कोई मुझसे पूछे की भले स्किन टू स्किन सीधा संपर्क ना हुआ हो पर जब भी कोई गलत इरादे से छूता है तो कितना गंदा लगता है, कितना डर लगता है और कितनी शर्मिंदगी महसूस होती है। लिफ़्ट में अकेली जाती थी तब लिफ़्ट मैन का मेरी छाती दबाना, घर पर ट्यूशन पढ़ाने आने वाले सर का मेरी जाँधो को सहलाना, वाॅचमेन का आते-जाते चुपके से बम्प पर छूना और फैमिली में किसी मेल मेम्बर का प्यार जताने के बहाने आगोश में भरकर गुप्तांग दबाना मेरे लिए किसी बलात्कार से कम आहत करने वाला नहीं होता था। हाँ तब मैं भले ही बहुत छोटी थी पर जैसे-जैसे बड़ी होती गई उस हर छुअन के मायने समझ में आते गए और एक हीन भावना की शिकार होते खुद में ही सिमटती गई।
एक डर और ख़ौफ़ से घिरी कहीं भी जाने से कतराने लगी थी। अवसाद और डर के मारे मर्दों के साये से भी मैं नफ़रत करने लगी थी। याद है ना शादी की पहली रात भी तुम्हारे छूने पर बेहोश हो गई थी, इतनी हद तक उन सारी गंदी छुअन ने मुझे डरा दिया था।
तुम्हारे सहज और सौहार्दपूर्ण व्यवहार ने उन सारी ख़ौफ़नाक गतिविधियों से मुझे बाहर निकाला था।आज जब मैं अपनी बच्ची को गुड़ टच और बेड टच के बारे में समझ दे रही हूँ तो ऐसे फैसले के बाद इसका तो कोई मतलब ही नहीं रह जाता। जो मैंने सहा वो मेरी बेटी को भी सहना होगा। ये तो वही बात हो गई की कपड़ों से ढ़की लड़की पब्लिक की प्रॉपर्टी है जब चाहे जहाँ चाहे कोई भी छूकर, कोई भी अंग दबाकर निकल जाए हम उस पर कोई एक्शन नहीं ले सकते। गुस्से और डर के मारे कविता काँप रही थी, नन्ही सी रुचि को अपनी आगोश में छिपा लिया और वापस कुछ साल पीछे चली गई डर और ख़ौफ़ के बिहड़ जंगलो में। मन में सोए वो हर ज़ख़्म सर उठाने लगे जो मर्दों ने उपरी पहरन को गंदी नियत से छूकर तार-तार करके दिए थे।
राहुल ने कविता और रूचि को पनाह में ले लिया ये कहते हुए की आदत ड़ाल लो हमें इसी समाज में जीना है खुद की रखवाली खुद करते हुए, "मैं हूँ ना" डरो मत और एक बार फिर राहुल के सौहार्द भाव ने कविता को बाँहों में भरते संभाल लिया।