झूठी सहेली
झूठी सहेली
रोज ही हमें स्कूल को बहुत लेट करवाती थी, बस एक मिनट में आयी बोल के। फिर शाम को साथ बाजार जाने का हमसे "झूठा "वादा कर, किसी दूसरी सहेली के साथ चल देती थी हमें पीछे छोड़ के। पड़ोसन थी हमारी और घर की छतों के बीच थोड़े ही फासले रहते थे। हम दोनों अपनी अपनी छतों की मुंडेर पर बैठ घंटो बातें करते थे।
किसी लड़के ने उसे एक नज़र देख भी लिया हो तो वो हमारी सहेली का "आशिक " कहलाता था। और हमारी गपशप में हर तीन जुमलों के बाद कम से कम एक बार उसका जिक्र आता था। बातें सच कम "झूठी" ज्यादा होती थी। "झूठ" के बीच सच ढूंढना होती बड़ी चुनौती थी। सच है की बस सहेली थी, पर उस बिन दिल नहीं लगता था। वो न हो, तो शाम का वक्त बहुत मुश्किल से गुजरता था।
हम पढ़ने में अच्छे हैं इस बात से खुश रहती थी। हम एक दिन ज़रूर कुछ बड़ा करेंगे ये मीठा "झूठ " बस एक वो ही कहती थी। जब हम नए कपड़े पहनते थे और थोड़ा सज धजते थे। तो "झूठी " तारीफ़ में उसके मुंह से सुहाने बोल निकलते थे। फिर बन गई दुल्हन तो भी बोली "सहेलीपना न छोड़ेगी। इतने सालों की हमारी दोस्ती पति की वजह से ना तोड़ेगी।"
एक "झूठ" ही था हम जानते थे। उसकी रग -रग पहचानते थे। फिर ना कोई संदेशा आया ना कोई तार। हम भी जिंदगी में आगे बढ़ गए यार। बरसों बाद इक दिन ऑफ़िस में उसका फ़ोन आया। भूली बिसरी सोई यादों को उसने जगाया। दोनो ने अपने अपने घर का हाल एक दूजे को बताया। सब ठीक चल रहा है उसका यह "झूठ" मन पकड़ ना पाया। सच में ही "झूठी" थी वो दोस्तों, बोली थी जिंदगी भर दोस्ती निभाएगी। हमने कभी न सोचा था की इतनी जल्दी फिर से "झूठी " कहलाएगी। बीमार पड़ेगी और हमें न बताएगी, इतनी जल्दी खुद की जिंदगी को अलविदा कह जायेगी। बस अपने पीछे कुछ यादें छोड़ जायेगी, और हर याद में बस "झूठी सहेली" नजर आएगी ।
