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Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

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Prafulla Kumar Tripathi

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झरा उसके आंसुओं का भार !

झरा उसके आंसुओं का भार !

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" मैं अब भी कह्ता हूँ कि बुध्धि से काम ले औरत ! अनुष्ठान पूरा हो जाने दे मुझे मुझे भोग करने दे, यही विधान है, प्राचीन विधान है, कईयों को इससे सन्तान सुख मिल चुका है।पर तूं अभागन है जो अनुष्ठान में बाधा डाल रही है।"एक औरत पर लगभग टूट से पड़े जटा जूट संन्यासी ने बोला।

"ऐसा मुझे नहीं चाहिए संतान सुख नहीं चाहिए नहीं ही चाहिए ।"लगभग चीखते चिल्लाते वह औरत बोल उठी।

"कट", "कट" ! डाइरेक्टर की तेज़ आवाज़ के साथ शूटिंग का यह दृश्य पूरा हो चुका था।

भीड़ में शामिल मैं भी था और मेरी निगाहें इस सीन के लिए शाट दे रही लगभग अधेड़ हो चुकी उस औरत पर जाकर टिक गई थीं। "हाँ, एकदम वही तो लगती है। रंग -रूप,डील- डौल और और आवाज़ सब कुछ तो वैसा ही है !" मैं अपने आपसे बुदबुदा रहा था।अंतत : मुझसे रहा नहीं गया और बिना समय गँवाए मैं भीड़ को लगभग चीरता हुआ शूटिंग स्थल तक पहुँचने को तत्पर हो उठा।वहां मौजूद सिक्योरिटी वाले सीटी बजाते और "रुको", "रुको" की आवाजें लगाते मेरे पीछे चले आ रहे थे। लेकिन मैंने मैराथन लगा दी थी और इस समय मैं उन कलाकार के सामने था।

"तुम तुम कहीं किरन तो नहीं हो ?" मैं अपनी साँसों की उतार चढाव पर नियन्त्रण पाते हुए बोला।

"आप आप, मुझे कैसे जानते हैं ? आप है कौन ? " वह कलाकार थोड़ी हड़बडाहट और फिर संभलते हुए बोल उठी।

"मैं मैं जे सी बोस पहचाना नहीं ?" मैंने तपाक से बोला।

"ओह ! बोस दा ? " आप ? यहाँ ? " ढेर सारे सवाल उसने पूछ डाले।

"चलो शुक्र है तुमने मुझे पहचान लिया।वरना आजकल तो लोग रिटायर होने के बाद सलाम - दुआ की कौन कहे, पहचानते तक नहीं हैं।"मैंने आश्वस्त होकर उससे कहा।

"आइये, फिर साथ चलते हैं होटल और दादा, आज का डिनर आप मेरे साथ लेंगे।" अत्यंत ही आत्मीयता और विनम्रता से वह बोल उठी।

मेरे लिए अब ना नुकुर की कोई संभावना ही नहीं थी क्योंकि उसके साथ डिनर लेना नहीं बल्कि उसके बारे में उस समय के बाद की बातें जानना मेरे लिए उत्सुकता का कारण बन गई थीं जिस काल खंड से आज तक हमारी उससे मुलाक़ात नहीं हो पाई थी।मैं अब उसकी कार में बैठकर उसके होटल की ओर जा रहा था।

होटल में उसके लिए एक शानदार सुपर डीलक्स कमरा बुक था।हम दोनों कमरे में थे।उसने स्काच का आर्डर प्लेस कर दिया था।

किरन और मेरी मुलाक़ात लगभग बीस साल पहले कोलकता में उन दिनों में हुई थी जब मैं एक थियेटर में डाइरेक्टर स्क्रिप्ट के तौर पर काम कर रहा था।मेरा काम कलाकारों के लिए स्क्रिप्ट तैयार करना और आगामी योजनाओं के लिए नाटकों का चयन करना था।मशहूर कलाकार उस थियेटर का हिस्सा बनना चाहते थे और उन्हीं में से कुछेक आगे चल कर फिल्मी दुनिया में भी शीर्ष पर पहुँच चुके थे। उन्नीस सौ सत्तर के दशक में किरन अपनी जवानी के दिनों में थिएटर के उस सत्र के लिए चयनित पैतीस कलाकारों में से एक थी जो मुझसे मिली थी। थियेटर में वरीयता वाले कलाकारों की श्रेणी में उसकी गिनती जल्दी ही होने लगी थी।उसकी डायलाग डिलेवरी अभिनय क्षमताओं और सभी के साथ मेल जोल की आदतों ने उसे सभी का प्रिय बना दिया था। इस बात से कुछ कलाकारों को जलन भी हुआ करती थी लेकिन किरन की व्यवहार कुशलता से कोई उसका विरोध नहीं करता था। उसके खुलेपन से साथी कलाकारों के हौसले बुलंद हुआ करते थे और सत्र की शुरुआत में ही कभी इसके और कभी उसके साथ उसकी नजदीकियों के किस्से भी सुने जाने लगे थे।

वेटर बहुत ही करीने से आकर ट्रे में एक बोतल स्काच और दो खूबसूरत कांच की गिलासें रख गया था।भुने हुए काजू की प्लेट ने मुझे अधीर कर दिया और मैंने उसे लेना शुरू कर दिया ही था कि किरन खिलखिलाते हुए बोल उठी-

"अरे, इतनी जल्दी भी क्या है बाबू मोशाय !" और वह पेग बनाने लगी।

उसकी खिलखिलाहटें यकायक मुझे एक बार फिर उन्हीं लम्हों में लेती चली गईं जब किरन थियेटर की क्वीन बनने के लिए उतावली थी।मेरे संगी साथी भी उसके लिए हर संभव सहायता करते थे।कुछ बात तो थी ही उसमें जो वह हर एक को अपनी शर्तों पर मानने के लिए बाध्य कर दिया करती थी। चाहे वह अगले नाटक में नायिका का रोल झटकना हो, , विदेश के दौरे पर जा रही टीम में शामिल होना हो या, किसी वी आई पी प्रोजेक्ट में शिरकत करने का हो।

स्काच के दो चार पेग जाते ही मेरे अन्दर उसके प्रति वर्षों से दबी हुई उत्सुकता उबाल लेने लगी। मैंने सोचा कि इसके पहले कि मैं बुरी तरह आउट हो जाऊं उससे उसकी ज़िन्दगी के शेष पन्नों को एक एक करके खोलने को कहूँ।

"किरन, प्लीज़ तुम बिना देर किये अब मुझे अपने बारे में एक एक कर बता डालो।"मैं अधीर हो उठा था।

वह अभी बोलना शुरू करती कि उसकी टीम का कोई आदमी आ गया और उसने उसे एक स्क्रिप्ट पकड़ा दी।

"मैडम, यह कल की शूटिंग के लिए स्क्रिप्ट है। रात में देख लीजिएगा।" इतना बोलकर वह चला गया।

किरन ने स्क्रिप्ट एक किनारे रख दी और अपने हाथ से खुद अपना पेग बना कर उसे अपने खूबसूरत होठों से लगाते हुए बोल पड़ी -

"बाबू मोशाय क्या जानना चाहते है आप मेरी ज़िन्दगी के बारे में ? अरे कुछ बताने लायक हो तब तो बताऊँ ?"

"किरन, असल में तुम कोलकता से अपने बाय फ्रेण्ड बंदन के साथ जब मुम्बई अचानक चली गई थी तो लोग हतप्रभ हो गए थे।कोई कहता था कि तुम दोनों ने शादी कर ली है।कोई कहता था कि लिविंग रिलेशन में हो।जितने लोग उतनी बातें। और और मैं खुद भी अवाक होकर रह गया था जब तुम्हारे इस तरह अचानक गायब हो जाने से पूरी तरह तैयार उस प्रतिष्ठित नाटक के लिए मुझे दूसरी हिरोइन तय करने और उसे शार्ट नोटिस पर तैयार करने की बला मुझ पर आ पड़ी थी ! " एक सांस में मैं बोल पड़ा।

"रिलैक्स, रिलैक्स, बाबू मोशाय।" बोल उठी किरन, जो अब स्काच की धुन पर मगन हो रही थी।उसने आगे अपने जीवन के एक एक पन्ने को खोलना शुरू कर दिया।

" हाँ हाँ बाबू मोशाय, इसमें कोई दो राय नहीं कि बंदन मेरा बाय फ्रेंड था और और हम दोनों ने कोलकता में ही रहने के दौरान एक दूसरे से शारीरिक सम्बन्ध भी बना लिए थे। वह मुझ पर अपनी जान छिड़कता था।कुछ भी करने को तैयार रहता था।लेकिन नौकरी ना होने से वह कभी कभी बहुत ही ज्यादा फ्रस्टेट होकर मुझसे भी बदसलूकी करने लगा था।मेरी कमाई पर्याप्त नहीं थी और वह लगभग निठल्ला था। " किरन ने मुझसे इतना बोलकर अपना खाली गिलास पूरी तरह भर लिया था।

" हाँ, किरन फिर आगे ? "मैंने अपनी उत्कंठा जाहिर की।

"फिर फिर एक दिन उसे मुम्बई से उसके पुराने दोस्त का आफर आया।उसके दोस्त ने एक बहुत बड़ी साफ्टवेयर कम्पनी खोल ली थी और उसको विश्वसनीय पार्टनर चाहिए था जो उसकी कम्पनी देख सके।हम हम तो ज़रूरतमंद थे ही।हम दोनों ने बिना समय गंवाए और बिना परिजनों की अनुमति के मुम्बई जाने का फैसला कर लिया।और और बस, बाबूमोशाय वहीं से मेरी ज़िन्दगी का टर्निंग प्वाइंट शुरू हो गया। " किरन एक साँस में बोल गई।

मुझे अब लगने लगा था कि इस किस्से का अंत नहीं हो पायेगा क्योंकि किरन अब शराब के पूरे आगोश में चली जा रही थी।उसके वस्त्र अब इधर उधर झाँकने को उतावले थे और मैं अपनी ज़िन्दगी के उतार पर उसके थक चुके सौन्दर्य को अपलक देखने के लिए विवश था।

यह, यह जो हम पुरुषों की नारी जाति के प्रति ढेर सारी उत्कंठा हुआ करती है ना वह किसी मृग मरीचिका से कम थोड़े ना होती है ! मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिर किरन थी कौन मेरी या उससे मेरा क्या लेना देना है जो मैं बैठे बिठाए इस लफड़े का शिकार हुए जा रहा था !लेकिन अब तो जो था, सो था।

"बाबू मोशाय तुम मर्द लोग क्या जानो इस नारी शरीर और मन की ज़रूरतें ! अरे अरे वो स्साला रास्कल बंदन मुझे मुम्बई क्या लाया कि मैं उसके फ्रेंड की बुरी निगाहों का शिकार हो गई।उसने बंदन को ही नहीं मुझे भी पार्टनर बना लिया।बंदन दिन भर लैपटॉप लेकर मैनेजमेंट देखता और मैं बतौर पी ए उसके दोस्त के इन्ज्वायमेंट का साधन बनती। स्साला दिन रात मेरी देह की कचूमर निकालता रहता था और मैं " उसकी बात पूरी नहीं हो पाई थी कि तभी एक और आदमी उसके कमरे का दरवाज़ा "नाक" करते घुस आया।

" मैडम, कल की शूटिंग के सिलसिले में कुछ लोगों को बुलाया गया है और डाइरेक्टर साहब इसी समय सिटिंग करना चाहते हैं। उनके साथ फिल्म की पटकथा लिखने वाले स्टोरी राइटर डी एन पाण्डेय जी भी आये हैं। जल्दी आ जाइए।वे इंतज़ार कर रहे हैं। " इतना कह कर वह चला गया।

" ये स्साले " भद्दी भद्दी गालियों की जुगाली करती सी किरन आगे बोल उठी - " अब इनको देखो बाबू मोशाय, दस बज रहे हैं और अब इनको सिटिंग की तलब लग गई है स्साले सामने बैठाकर और कुछ नहीं तो मेरा जिस्म ही निहारेंगे ! " बेपरवाह वह हंसती जा रही थी।

मैंने अब अपने आपको बेहद असहज महसूस करना शुरू कर दिया था।मैं अब उठने को था ही कि उसने हाथ पकड़ लिया और बोल उठी -

"बाबू मोशाय अभी तो मैंने अपनी ज़िंदगी के पन्नों को खोलने की शुरुआत ही की है आप आप कहाँ उठे जा रहे हैं ? " किरन होश में नहीं लगीं।वह बोले जा रही थी -"जब औरत के अन्दर किसी विष फोड़े का जन्म होता है तो उसका दर्द सिर्फ उसे ही नहीं पूरे समाज को भोगना पड़ता है और और उसका अंत बाबूमोशाय बहुत भयंकर होता है।यह यह जो "नकली " प्यार है ना वह बलात्कार से भी बड़ा अपराध होता है तुम तुम मर्द लोग ।" उसकी अधूरी बात रह गई थी और मैं उसके कमरे से बाहर आ गया था।

सीधे टैक्सी लेकर अपने आवास पर पहुंचा और मैनें बैचेनी में डिनर रूम के फ्रिज में रखी शराब की पूरी बोतल गटक डाली।मेरे सामने एक पुस्तक का एक पन्ना फड़फड़ा रहा था जिसमें मेरे प्रिय कवि "अज्ञेय" जी की एक कविता का वह पन्ना खुला हुआ किरन के शेष जीवन के पन्नों की मानो गवाही दे रहा था -

" रेत का विस्तार,

नदी जिसमें खो गई -

कृष धार

झरा मेरे आंसुओं का भार,

मेरा दुःख-धन,

मेरे समीप अगाध पारावार-

उसने सोख सहसा लिया,

जैसे लूट ले बटमार।

और फिर अक्षितिज

लहरीला मगर बेटूट,

सूखी रेत का विस्तार -

नदी जिसमें खो गई,

कृश-धार "

अब मैं भी किसी और दुनिया में विचरण करने लगा था जिसमें ना किरन थीं, ना बंदन और ना ही उसका कमीना दोस्त !


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