Husan Ara

Tragedy

5.0  

Husan Ara

Tragedy

इज़्ज़त

इज़्ज़त

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"सच- सच बता रजनी हम कुछ नहीं कहेंगे तुझे ! " रति की आंखों में क्रोध के साथ साथ याचना भी साफ दिखाई पड़ती थी।

"नहीं मेमसाब मैंने नहीं देखी कोई अंगूठी, मेरा विश्वास क्यो नहींं करती आप, आस पास इतने घरो में काम करती आई हूं कई सालों से किसी से भी पूछ लीजिये आजतक कोई ऐसा इज़्ज़त गवाने का काम नहीं किया मैंने। " रजनी रोते हुए कभी अपनी साड़ी से आंसू पोछती तो कभी रति के आगे हाथ जोड़ती।

"वो कोई ऐसी वैसी अंगूठी नहीं थी, मेरी सास ने मुझे दी थी। क्या इज़्ज़त रह जाएगी उनके सामने मेरी। देखो ! जब मैं नहाने गई थी तुम ही कमरे में झाड़ू लगा रहीं थी, अब ज़्यादा बहाने मत बनाओ और जल्दी वापिस करो। बहुत देखी हैं तुम जैसी। रति लगभग चिल्लाने के अंदाज़ में बोली।

प्रशांत जो कभी बेड के नीचे तो कभी ड्रेसिंग टेबल पर अंगूठी ढूंढ रहा था बोल पड़ा" पुलिस ही पूछेगी अब तो इससे"

"नहीं साब यहाँ आस पास कोई काम पे भी नहीं रखेगा, मैं कैसे अपना और बच्चों का पेट पालूंगी साब, इज़्ज़त की दो रोटी कमाकर बच्चो को खिलाती आई हूं साब कभी लालच नहीं किया।

रति ने उसके कपड़े टटोले उसका थैला उठाकर मेन गेट से बाहर ले आई। शोर शराबा सुनकर आसपास के लोग भी जमा हो गए थे। कोई रजनी को गाली देता,तो कोई रति को सांत्वना।

"अरे बेटी इन लोगों के ऐसे ही काम होते हैं क्या जाने इतनी देर में ही कहाँ छुपा आई होगी "। पड़ोस की एक आंटी अपनी बालकनी से चिल्लाई।

हर किसी के ज़बान पर या तो कोई पुरानी घटना थी जो पहले कभी अखबार में पढ़ी होगी या नौकरानियों के बारे में सुनी होंगी, या बस रति के लिए अफसोस की बातें।

रजनी को धक्के देकर वहां से निकाला गया, वह तरसी हुई सूरत लेकर अपनी इज़्ज़त गवां कर विदा की गई थी उन लोगों के द्वारा, जिनके कितने ही काम वह सालों से निबटाती आई थी।

रति लाल आंखों के साथ आकर धड़ाम से बेड पर बैठ गई। वह रोना चाहती थी मगर आंसू साथ नहीं दे रहे थे वह ठंडे हाथ पैर लिए अपनी चादर फिर से ढककर लेट गई।

" लो कॉफी पी लो। निश्चिंत रहो जल्द ही नई अंगूठी लेकर दूंगा तुम्हे। आगे से ऐसी औरतो से सतर्क रहना।" कहते हुए प्रशांत ने रति को उठाया।

रति ने उठकर अपनी चादर पीछे को झटक दी। तभी चादर में उलझा कुछ फर्श पर "टककक " की आवाज़ के साथ जा गिरा।

अरे ! मेरी अंगूठी। हाँ वही तो है। रति ने जल्दी से उसे उठा ली और ईश्वर का धन्यवाद करने लगी।

प्रशांत दरवाज़े की तरफ बढ़ा ये सोचकर कि पड़ोसियों को ये खुशी सुना सके। रति ने फुर्ती से आकर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली" नहीं प्रशांत क्या सोचेंगे सब, हमारी भी आखिर कोई 'इज़्ज़त' है"।


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