Husan Ara

Drama

5.0  

Husan Ara

Drama

लालच

लालच

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मेरे एक पुराने मित्र ने कई दिनों बाद याद किया और मिलने की इच्छा जताई, तो मैं अगले दिन सुबह टहलता हुआ उसके घर पहुंचा।


यूँ तो वह मन का बड़ा अच्छा है मगर अपनी बातों में न किसी को शरीक करना पसंद करता है, ना कोई नया काम करने से पहले किसी का राय मशवरा लेना पसंद करता है।

इसीलिए मैं भी कभी कभी ही उन जनाब से मिलता हूँ।

आज टहलने के बाद सोचा कि चलो कोई ज़्यादा ही ज़रूरी बात होगी, जो अपने ही घर पर मिलने की इच्छा उनको हुई। वरना मैं ही उन खास लोगों में से था जो कभी एक दो बार उनके घर गया था, वरना वो अक्सर खास दोस्तो से भी बाहर या उन्ही के घर पर मिलना पसन्द करते थे।


इसका कारण अक्सर सब अपनी बातों में उनकी पत्नी का कटु स्वभाव ही बताते थे, कि जनाब उनसे काफी डरते थे।

खैर मैंने कभी ऐसा कुछ देखा नही था , तो सुनी सुनाई बातों पर विश्वास करना तो मेरे उसूलो के खिलाफ था।

मैने उनके घर की बेल बजाई तो महाशय तो जैसे मेरे ही इंतज़ार में बैठे थे, वो मेरा हाथ पकड़ कर अपने घर के गार्डन में ले गए।


"आओ बैठो" गार्डन में रखी कुर्सी मेज़ पर मुझे बैठाकर वे चाय परोसने लगे। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ देखी जा सकती थीं।


"और बताओ सब ठीक" मैंने बात शुरू की।


"अरे तुम तो जानते हो , अब तुम्हारी भाभी की सर्विस से घर चल रहा है, मुझे तो अपनी फैक्टरी से इतना फायदा अब मिल रहा नही , मन्दी का दौर है"

हालांकि मैं जानता कुछ नही था पर हाँ में गर्दन हिला दी।

वे आगे बोले " तो परसो तुम्हारी भाभी ने सत्तर हजार जमा करने के लिए बैंक भेजा था, तो वहीं पास ही में एक सज्जन सा दिखने वाला आदमी मिल गया। उसके पास कुछ था जो मुझे दिखाना चाहता था।"


मैं उनकी बातें बिना कुछ बोले सुने जा रहा था, ज़रूरत पड़ने पर बस गर्दन हिला देता।

"एक कोने में लेजाकर उसने मुझे सोने की ईंट दिखाई, और उसे बैंक से कर्मियों से ले जाते वक्त छूटने की बात बताई, और कहने लगा अगर कुछ पैसे देकर ये ईंट तुम रखना चाहो तो ले लो, क्योंकि मैं यहाँ अनजान हूँ। मंज़िल दूर है रास्ते मे चोरी होने खोने का डर है।"


अब मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी थी। मैं बोला कि " तो वो सच मे सोने की ही थी?"


"उसने मुझे उस ईंट को दीवार में मार कर एक कोना तोड़ कर पकड़ाया और तसल्ली करने को कहा तो मैं अपने पुराने सुनार के पास वह टुकड़ा लेकर गया। उसने खरा सोना होने की बात कही"बताते हुए उनकी आंखों में वही चमक थी जो उस समय रही होगी।


"फिर"! मैं बोला


"फिर तो उस आदमी को पागलो की तरह ढूंढता मैं दोबारा पहुंचा, रास्ते मे ही उस ईंट की कीमत लाखों में होने का अंदाज़ा मैं लगा ही चुका था, मगर उसके सामने अपने भाव छुपाकर सत्तर हजार की बोली लगा दी।

उसने कुछ आनाकानी की फिर मेरी घड़ी और हाथ की अंगूठी लेकर वो ईंट मेरे सुपुर्द की।" कहकर वे चुप हो गए थे।


"तो कहाँ है वह ईंट , तो वही दिखाने आपने बुलाया है" मैंने उनकी किस्मत पर रश्क करते हुए कहा।


"ऊंची उड़ान के सपने के साथ गया था उस ईंट को सुनार के पास ले कर उसने बताया कि जिस कोने से उसने तोड़ कर मुझे हिस्सा दिया था वही से बस कुछ पाँच हज़ार का सोना निकला, बाकी सारी ईंट पीतल की थी। तुम्हे तो इसलिए बुलाया है ताकि किसी से ब्याज पर सत्तर हजार रुपये दिलवा दो , वरना पत्नी को पता चला तो आफत आ जाएगी" कहते हुए वे बड़े ही चिंतित मालूम पड़ते थे।


मैं मन मे कभी ऐसा लालच न करने का प्रण लेता हुआ उनके चेहरे को देखते हुए यही सोच रहा था कि लालच में आकर किये गए कामो से ऊंची नही ऐसी ही बौनी उड़ाने भरी जाती हैं।

ऊंची उड़ान तो मेहनत ,ईमानदारी और हौसलों के पंखों से ही भरी जा सकती है।




















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