इण्डियन फ़िल्म्स 2.9

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फुटबॉल - हॉकी


“इस शैतान की वजह से मैं अपने ही घर में प्रसिद्ध कलाकारों की कॉन्सर्ट नहीं देख सकता!” नानू बड़बड़ा रहे हैं, मगर फिर भी किचन में चाय पीने के लिए चले जाते हैं, और आख़िरकार मैं टी।वी। का चैनल बदल ही देता हूँ, मैं प्रोग्राम नं। 2 पर आता हूँ, जहाँ पंद्रह मिनटों से फुटबॉल चल रहा है। “स्पार्ताक” – “दिनामो”(कीएव)। दसाएव, चिरेन्कोव, रदिओनोव, ब्लोखिन, बल्ताचा, मिखाइलिचेन्को… और वो न जाने किन कलाकारों के बारे में परेशान हो रहे हैं!

हमारे यहाँ सिर्फ एक टी।वी। है, और इसलिए, फुटबॉल और हॉकी के सारे मैचेस देखने के लिए, जो वैसे भी कभी-कभार ही दिखाए जाते हैं, मुझे चार साल की उम्र से ही पढ़ना सीखना पड़ा। अख़बार में टी।वी। प्रोग्राम होता है – उसे ले लो और ख़ुद ही देख लो कि कब टेलिकास्ट होने वाला है। और अगर मुझे पढ़ना नहीं आता, तो कोई भी, इन झगड़ों के मारे, मुझे बताता नहीं, कि किसी कॉन्सर्ट के समय दूसरी चैनल पर, मिसाल के तौर पर, यूरोपियन क्लब का मैच दिखाया जा रहा है।

और मैं, सिर्फ देखता ही थोड़े हूँ। पहली बात, मैं इस बात पर गौर करता हूँ कि कौन गोल बना रहा है, किस खिलाड़ी ने कितने अंक बनाए हैं, और फिर, मेरी अपनी भी तो चैम्पियनशिप मैच है, और वो सीधे बड़े कमरे में चल रही होती है, जो टी।वी। में दिखाई जा रही है, उसके बिल्कुल साथ साथ। जब फुटबॉल का मैच हो रहा होता है, तो मैं कमरे में बॉल धकेलता हूँ, कमेन्ट्री करता हूँ, बिल्कुल ओज़ेरोव या पेरेतूरिन की तरह; बाल्कनी का दरवाज़ा – गोल, और इस दरवाज़े को ढाँकने वाला जाली का परदा, - गोल की जाली होती है। अगर टी।वी। पर ‘गोल’ हो रहा होता है, या कोई ख़तरे वाली बात होती है, तो मैं अपना खेल रोक देता हूँ, देखता हूँ, बाद में कालीन के सेंटर से शुरू करता हूँ।

“प्रतासोव लेफ्ट फ्लैन्क की ओर जा रहा है! पेनल्टी कॉर्नर में कैनपी बनाने की ज़रूरत है!” यहाँ मुझे याद आता है, कि नेफ़्त्ची (फुटबॉल क्लब, बाकू) के खिलाड़ी आज “द्नेप्र” के फुटबॉल प्लेयर्स के साथ बहुत गलत खेल रहे हैं, एडी से गेंद को पीछे पीछे धकेलता हूँ, अपने आप को ही कमीज़ से पकड़ता हूँ और जहाँ तक संभव हो, विश्वसनीय तरीके से गिरता हूँ। “बेशक, पेनल्टी, प्यारे दोस्तों!!!” मगर रेफ़री न जाने क्यों सिर्फ एक ही पीला कार्ड दिखाता है।

तभी तोन्या नानी आती है और न जाने कौनसी बार कहती है, कि बाहर कम्पाऊण्ड में खेलना बेहतर होगा। मगर मैं कम्पाऊण्ड में भी खेलता हूँ, और जानता हूँ, कि वहाँ वो बात नहीं है। क्या वहाँ कमेन्ट्री कर सकते हो? ये सच है, कि जल्दी ही ये घर के अंदर वाली चैम्पियनशिप्स बंद करनी पडेंगी, क्योंकि हॉकी का सीज़न शुरू हो रहा है और चेकोस्लोवाकिया की टीम के साथ कमरे वाले मैच में फ़ेतिसोव ने इतनी ज़ोर से बॉल फेंकी, कि झूमर टूट गया। ये कैफ़ियत, कि हमारी टीम के पास जीतने के लिए सिर्फ दो ही मिनट बचे थे, नानू को मंज़ूर नहीं है, इसलिए अब मैं सिर्फ टी।वी। पर ही मैच देखता हूँ।

कोई बात नहीं, हॉकी का मैच सिर्फ देखने में भी मज़ा आता है। उसमें सब हमेशा लड़ते ही रहते हैं! ख़ास तौर से इण्टरनेशनल मैचेज़ में। और वर्ल्ड कप मैचेज़, “इज़्वेस्तिया” अख़बार के पुरस्कार मैचेज़, कैनेडियन कप के मैचेज़ – ये हम नानी तोन्या के साथ, और कभी कभी परनानी नताशा के साथ भी देखते हैं। हमें सबसे ज़्यादा रेफ़रियों की नाइन्साफ़ी पर गुस्सा करना अच्छा लगता है, जिन्हें कैनेडियन्स की और फ़िन्स की कोई गलती दिखाई नहीं देती और जो हमेशा नाइन्साफ़ी से हमारे खिलाडियों को आउट कर देते हैं। मेरी नानियाँ तो इतने तैश में आ जाती हैं, कि अगर हमारा कोई खिलाड़ी कभी नियम तोड़ भी देता है, तो भी उन्हें कैनेडियन का ही दोष नज़र आता है, और मुझे उनकी इस राय से सहमत होना न जाने क्यों अच्छा लगता है, हालाँकि मुझे भी मालूम है, कि हमारे खिलाड़ी पर गलती के ही लिए जुर्माना लगा है।

फिर अचानक हॉकी रात को दिखाने लगते हैं। तोन्या नानी कोशिश करती है कि सोए नहीं, जिससे कि सुबह मुझे बता सके कि कैसा खेले थे। मगर तीसरे सेक्शन के शुरू में वह ज़रूर सो जाती है, इसलिए सुबह उसे स्कोर का भी पता नहीं चलता, और टी।वी। भी पूरी रात खुला रहता है।

तब मैं फ़ैसला करता हूँ, कि मैं ख़ुद ही मैचेज़ देखूँगा, और दिन में सो लिया करूँगा, जिससे रात में आँख न लग जाए। अपने बिस्तर पर करवटें लेता रहता हूँ, कभी-कभी तो डेढ़ घण्टा लेटा रहता हूँ, मगर एक सेकण्ड के लिए भी आँख़ नहीं लगती, फिर चाहे कुछ भी हो जाए हॉकी का मैच ख़तम होने तक डटा रहता हूँ। वर्ना तो ये सारा करवटें लेना बेकार ही जाता, और दिन में डेढ़ घण्टा सिर्फ पलंग पर लेटे रहना – माफ़ कीजिए, मेरे बस की बात नहीं है! मगर जब सोवियत संघ और स्वीडन के बीच मैच हो रहा हो, तो आख़िर तक कैसे नहीं देखोगे? अगर पहले सेक्शन के बाद स्कोर 3:0 या 5:1 हो, तो, मतलब ये हुआ कि हमारी टीम ज़रूर 10:1 से जीतने वाली है। ऐसा, अगर ज़्यादा नहीं तो, करीब नौ बार हुआ। एक बार तो नानू भी रात को उठ गए, और ये देखकर कि कैसे लगातार हमने स्वीडन के ख़िलाफ़ पाँच गोल बनाए, गर्व से बोले:

“ऐसा होना चाहिए मैच! मुझे भी दिलचस्पी हो गई।”

‘ज़रा ठहरो,’ मैं सोचता हूँ, ‘तुम्हारे आर्टिस्ट्स की कॉन्सर्ट्स से बुरा तो नहीं है।


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