हम कहाँ हैं और कहाँ होंगे
हम कहाँ हैं और कहाँ होंगे
आज हम जिस कालखण्ड में जी रहे हैं, वह मुश्किलों और चुनौतियों भरा है। किसने सोचा होगा कि ज्ञान - विज्ञान की अप्रतिम उपलब्धियों के असंख्य कीर्त्तिमान स्थापित कर चुका मानव, जो अपनी आण्विक-पारमाण्विक-आयुध शक्तियों के बल पर पूरे विश्व का सिरमौर बना फिरता था, एक ही झटके में एक अदने-से अदृश्य व सूक्ष्म कोरोना नामक वायरस के समक्ष घुटने टेक समर्पण की मुद्रा में आ जाएगा। इस महामारी का विनाश करने में आज पूरा विश्व एक साथ लगा हुआ है, मगर सफलता अभी कोसों दूर है।पूरी मानवता कोरोना की सुनामी में डूबी हुई है।
कितना अच्छा होता अगर आसन्न खतरे को भाँपकर समय रहते हमने अपनी तैयारी मुकम्मल कर ली होती, अपने घर में कोरोना के प्रवेश के सारे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय खिड़की-दरवाजे बंद कर लिए होते, तो यह दुष्ट वायरस भारत की दहलीज़ पर ही भूखे-प्यासे, सिर पटक-पटक कर दम तोड़ देता। एक नन्हींं-सी चिड़िया भी वातावरण, तापमान, हवा के वेग और मौसमी परिवर्त्तनों को भाँपकर अपने घोंसले को दुरूस्त करने में लग जाती है और संकटकाल आकर गुजर जाता है। बहरहाल अब समय चूकों से सबक सीखने का है। हम अब इस स्थिति में पहुँच चुके हैं, जहाँ से जीवन-संघर्ष एक नयी दिशा ले सकता है।हमने धन, दौलत, ऐश्वर्य तो खूब अर्जित किया, शिक्षा अर्जित कर विद्वान भी कहलाए, मगर हम कभी भी खुद के प्रति, अपने पर्यावरण, प्रकृति के प्रति सजग और संवेदनशील नहीं रहे। उल्टे प्रकृति का भरपूर दोहन किया।ऐसी - ऐसी अस्वास्थ्यकर आदतों और कुप्रवृत्तियों को अपनी जीवन शैली का हिस्सा बनाकर हम जिए, जो न सिर्फ हमारे लिए अपितु समस्त पर्यावरण के लिए हानिकारक और विनाशकारी बन गयीं।भला हो इस महामारी का जिसने हमारी मृत हो चुकी चेतना और संवेदना को जीवंत कर दिया, भौतिकवादी संस्कृति की ओर उन्मुख मानव सभ्यता का तारतम्य प्रकृति से स्थापित करा दिया। वातावरण को प्रदूषण मुक्त कर दिया।हवा शुद्ध हो गयी।पानी साफ हो गया।नदियाँँ जीवित हो गयीं।फूल खिलखिला उठे। हरियाली लहलहा उठी।पपीहे की तान और कोयल की कूक से कानों में संगीत की स्वर-लहरियाँँ बजने लगीं।व्यक्तिगत व सामाजिक स्वच्छता के प्रति हम सचेत हुए।सोशल डिस्टेंसिंग ऐसी आदत बन गयी, जो शायद अब हमारे जीवन का एक अविभाज्य हिस्सा ही बन जाये।कोरोना की दवा या वैक्सीन तैयार होने में शायद वर्षों लग जायें, मगर जागरूकता और सावधानी का जो सबक हम सीख रहे हैं, उसके जरिए हम पूरी मानवता को गंभीर संकट से बचाने में तो जरूर सक्षम हो जाएँगे।
भारत सहित चीन, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली, अमेरिका जैसे देशों में भले ही इस महामारी के निदान के अनुसंधान अभी प्रारंभिक चरणों में होंं, मगर इसके इलाज में हाइड्रोक्सी-क्लोरोक्विन, एजिथ्रोमाइसिन की प्रायोगिक तौर पर सफलता एक सुखद संकेत है। रेमडेसमिर जैसी वैक्सीन की खोज भी चिकित्सा जगत में चर्चा के केंद्र में है। प्लाज्मा थिरेपी विधि से भी इलाज की संभावनाएँ तलाशी जा रही हैं। मगर फिलहाल कोरोना से मुकाबला करने का सबसे प्रभावशाली उपाय है - अपने इम्यून सिस्टम को मजबूत करना। चिकित्सीय रूप से यह सिद्ध है कि मजबूत इम्यूनिटी से मनुष्य ने अनेकों रोगों पर विजय पायी है।एंटीबाडी डेवलप होने के इसी सिद्धांत से सर्वप्रथम चेचक का टीका विकसित किया गया था।आज बायोटेक्नोलॉजी और फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री लगातार अनुसंधान में लगी हुई है, ताकि ऐसी दवाएँ और वैक्सीन विकसित की जा सकें, जो विनाशकारी बनते जा रहे इस कोरोना वायरस से मुकाबला करने में हमें सशक्त और सक्षम बना सके।हमने हैजा, प्लेग, सार्स, स्वाइनफ्लू, डेंगू, चिकनगुनिया, निपाह, हिपैटाइटिस जैसी जानलेवा संक्रामक बीमारियों पर विजय पायी है।हम आज भी अपनी चिकित्सीय विजय के प्रति आश्वस्त हैं।
मगर इन सब उपायों से इतर एक विचारणीय बिंदु और है, जिस पर गंभीरता से सोचा जाना निहायत ही जरुरी है। क्वारंटाईन, आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंस आदि शब्द आज इतने ज्यादा प्रचलन और चर्चा में आ गये हैं कि लगता है जैसे ये अखबार के पन्नों और न्यूज चैनलों से निकलकर व्यक्ति-व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में समा गये हैं।देखते-देखते हम एक दूजे से दूर होते जा रहे हैं।एक-दूसरे से मिलने से कतराने लगे हैं। एक अन्जाना-सा खतरा और भय दहशत बनकर हमारी रगों में दौड़ने लगा है, जिसके मनोवैज्ञानिक परिणाम नकारात्मक भी हो सकते हैं। इससे भी चिंताजनक स्थिति तो कोरोना पीड़ितों के सामाजिक बहिष्कार की होती जा रही है।कोरोना पाजिटिव पाये जाने पर होम-क्वारंटाईन और आइसोलेशन की जरूरत तो समझी जा सकती है, मगर जो कोरोना पाजिटिव ठीक होकर घर आ चुके हैं, उनका आइसोलेशन और सामाजिक बहिष्कार कहाँ तक उचित है ? ऐसे भी वाकये सुनने में आ रहे हैं कि पूरी तरह ठीक हो चुके व्यक्ति से उसका पड़ोसी तक बात नहीं करना चाहता। अखबार वाला अखबार देना बंद कर देता है।दूध वाला दूध नहीं पहुँचाता और किराना दुकान वाला उन्हें सामान देने से मना कर देता है।यह व्यवहार पूर्णतः असामाजिक, अमानवीय, अन्यायपूर्ण और अस्वीकार्य है। इसके परिणाम कितने विस्फोटक और आत्मघाती हो सकते हैं, यह हम सोच नहीं पा रहे हैं।
कमबख़्त कोरोना का अंत तो एक-न एक-दिन निश्चित रूप से हो जाएगा।मगर इस तरह की नफरत, घृणा और भेदभाव-बहिष्कार की मानसिकता मानवीय संबंधों में कौन-सी गाँठ पैदा करेगी तथा सामाजिक समरसता और एकता की भावना को किस दिशा में ले जाएगी और इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह एक अलग समाजशास्त्रीय-मानवशास्त्रीय विमर्श का विषय है।उस रोगमुक्त हो चुके व्यक्ति की मनोदशा क्या होगी, यह तो वही जानता है। हम शायद कोरोनामुक्त हो भी जाएँ।मगर डर है कि हमारा समाज कहीं संक्रमित ही न रह जाये ?