"गुनहगार कौन?"
"गुनहगार कौन?"


वंदना एक प्रतिष्ठित परिवार की सुशिक्षित कन्या थी। उसके लिए कुलीन परिवारों से सम्बन्ध आने लगे। वंदना के परिवार वालों को एक लड़का और उसका खानदानी परिवार रास आ गया। वंदना ने भी सहर्ष उसे स्वीकार कर लिया। क्योंकि उस ज़मानें में लड़की की पसंद - नापसंद को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती थी।
दोनों ही परिवार प्रतिष्ठित थे, विवाह भी धूम - धाम से सम्पन्न हुआ। वंदना दुल्हन बनकर अब ससुराल आ चुकी थी। नया परिवेश, नए रीति - रिवाज़ और नये परिवार की सोच से उसे तालमेल बिठाना था, क्योंकि लड़की को ही ताल - से ताल मिलकर चलने की हिदायतें दी जाती हैं। और हर समझदार लड़की अपने दायित्व को निभाने की भरपूर कोशिश भी करती है। वंदना परिवार में रच - बस गयी थी। वंदना बिन पँख लगा उड़ने लगी थी। अब उसके मँझले देवर की शादी की बातें चलने लगी थी। वंदना बहुत खुश थी कि चलों हाथ - बँटानें के लिए देवरानी भी आ जायेगी। और उससे अपने तन - मन की बातें भी कर लिया करेगी।
सास (वंदना से) - हमने जो तुझे गहने दिए थे, उसमें से दो सैट मैं निशा को चढ़ा रहीं हूँ।
वंदना - कोई बात नहीं माजी ! आपका ही तो है, आप जिसे चाहे दें, आपस में मिल - जुल कर पहन लेंगे।
सास - निशा, तुम्हारें वाला कमरा निशा को दे देतें हैं। वह बहुत खानदानी लोग हैं। ऐसा न हो कि उनको लगे कि हमारी बेटी को ससुराल में कोई कमीं है।
वंदना - कोई बात नहीं माजी, मैं छोटे कमरें में अपना सामान रख लेती हूँ। निशा भी तो मेरी बहन जैसी ही हैं।
निशा जैसे ही बहू बनकर घर में आयी, घर का माहौल बदलता चला गया। अब वंदना की यहाँ घर में कोई कद्र नहीं रह गयी थी। और रही - सही कसर निशा के गर्भ धारण ने कर दीं।
पड़ोसन - वंदना देखा, छोटी वाली ने तो आते ही लड्डू की तैयारी कर दीं, तू कब खिलायेगी ?
सास - दो साल हो गये इसका मुँह तकते, परन्तु हर महीने दे दाल में पानी जैसी स्तिथि है।
बिन पानी के जैसे पपीहा तरसता है, वैसे ही वंदना बच्चें के लिये तरसने लगीं।
वंदना ने रमेश से कहा - सुनो जी ! डॉक्टर के पास चलते हैं। माजी मुझे हर - रोज़ तानें देन
े लगीं हैं कि यह बाँझ न जाने कब बच्चा जनेंगी। मैं रोज़ - रोज़ के तानों से तंग आ गयी हूँ। जब से निशा गर्भवती हुई है, तब से तो और भी तानें सहने पड़ रहें हैं।
रमेश - तुम क्या समझती हो, मुझमें कोई कमीं हैं ? मैं नपुंसक हूँ ? तुम ही अपने टेस्ट करवाओ, मैं नहीं करवाऊँगा।
वंदना - मैं डॉक्टर के पास गयी थी, पर वह दोनों को बुला रहा है।
रमेश - मैं नहीं जाऊँगा, सुन लिया न तुमनें ? माँ बनों या न बनों, मेरी बला से।
वंदना छटपटा कर रह गयी। ऐसे ही छह महीने और बीत गये।
सास - अरे कलमुँही, बाँझ ही रहेगी ? बच्चा नहीं करेगी क्या ? नहीं तो मैं रमेश की कहीं और शादी कर देती हूँ।
वंदना - माजी, मैं तो इलाज के लिये तैयार हूँ, पर आपका बेटा ही.........
इतना कहना था कि सास ने वंदना के मुँह को तमाचे से लाल कर दिया।
सास - जबान और लड़ाने लगी है आजकल, ये जो गज भर की जबान कैंची की तरह चल रहीं है न, इसे काट कर रख दूँगी।
वंदना सिसकती हुई अपने कमरें में चली गयी। वंदना का मन किसी चमत्कार की आस लगाये, दिन काटनें लगा। एक दिन घर के सारे सदस्य किसी प्रोग्राम में गये। प्लान के मुताबिक वंदना का देवर, सास और वंदना घर में थे। देवर और सास ने वंदना को पकड़ा और मिटटी के तेल की पीपी उसके ऊपर उड़ेल दी।
वंदना को समझते देर नहीं लगी कि क्या चल रहा है। जैसे ही सास ने माचिस से आग लगाई, वंदना ने अपनी सास को दोनों हाथों से अपनी ओर खींचकर आलिंगन में भर लिया। वंदना के साथ - साथ सास भी धू - धू करके जलने लगीं। अब देवर जो पास में खड़ा माँ और भाभी को जलते हुए देख रहा था, वह आग बुझानें के लिये माँ की तरफ दौड़ा। जैसे ही उसने आग बुझानी चाही, वंदना के हाथ में उसकी कॉलर आ गयी। उसने अपने देवर को भी अपनी तरफ खींच लिया। उस दिन उस घर से दो अर्थियाँ निकली।
महज बच्चें की अभिलाषा ने एक हँसते - खेलते परिवार को बर्बाद कर दिया। देवर के भी हाथ और गुप्त अंग जल - चुके थे। वह अब नपुंसक हो चुका था। "शकुन" आप यहाँ किसको गुनहगार मानतें हैं ? रमेश, वंदना, सास या फिर देवर ?